ठीक नहीं होगा र्इरान के खिलाफ खड़ा होना

र्इरान अपने इतिहास के सबसे कठिन वक्त का सामना कर रहा है. अमेरिका-यूरोपीय संघ ठीक उसी राह पर चल रहे हैं, जिस राह पर इराक को ध्वस्त किया गया. मामला काफी तीखे ढंग से आगे बढ़ रहा है.

ऐसे में भारत के सामने एक बार फिर दुविधा है कि वह अपने पुराने दोस्त र्इरान के साथ खड़ा हो या गैरभरोसेमंद पश्चिम का साथ दे.
र्इरान के मामले को अमेरिका ने लगातार हवा दी है. उस पर आरोप है कि परमाणु हथियार बनाने के लिए यूरेनियम संवर्धन कर रहा है. हथियारों की बजाय शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए तकनीक हासिल करने के र्इरान के दावे को अमेरिका और पश्चिमी देश स्वीकार नहीं कर रहे हैं.
जरा याद कीजिए, अमेरिका और पश्चिम ने ठीक इसी प्रकार इराक के उस दावे को मानने से मना कर दिया था कि उसके पास विनाशक हथियार नहीं हैं. खैर, अब इस मामले को भारत के नजरिये से देखने की जरूरत है.
र्इरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का ज्यादा असर नहीं पड़ा, लेकिन यूरोपीय संघ के रुख ने उसकी दिक्कतें बढ़ा दी हैं. वजह, साफ है कि यूरोपीय संघ र्इरान के कच्चे तेल के करीब 17 प्रतिशत हिस्से का खरीददार है. दूसरी बात यह है कि र्इरान की अर्थव्यवस्था का करीब आधा हिस्सा कच्चे तेल की बिक्री से आता है. यूरोपीय संघ द्वारा तेल खरीद बंद किए जाने से र्इरान की अर्थव्यवस्था पर आठ-नौ प्रतिशत की चोट पड़ेगी.
भारत अभी तक र्इरान से कच्चे तेल की खरीद कर रहा है. डालर से भुगतान बंद होने पर भारत ने यूरो का रास्ता पकड़ा, लेकिन अब यह भी बंद हो चुका है. इसके बाद यूएर्इ और तुर्की के जरिये कोशिश की गर्इ, लेकिन यह मामला भी ज्यादा लंबा नहीं चला. फिलहाल, भारत ने रूस के जरिये भुगतान की राह पकड़ी हुर्इ है, लेकिन अब यह भी बंद होने जा रही है. अब, भारत के पास बेहद सीमित रास्ते हैं.
भारत, चीन के जरिये भुगतान कर सकता है, लेकिन राजनयिक और रणनीतिक कारणों से भारत इसके पक्ष में नहीं हैं. अब, भारत ने अंतिम कोशिश के तौर पर रुपये के जरिये भुगतान का प्रयास शुरू किया है. इस कोशिश को कैबिनेट की सुरक्षा समिति ने अनुमति दे दी है. इसकी अगली कड़ी में भारत का एक प्रतिनिधि मंडल र्इरान जाकर वहां के अधिकारियों के साथ मौजूदा सिथति पर चर्चा करेगा. भारत ने प्रस्ताव रखा है कि र्इरान तेल के बदले में भारत से दवाओं, उर्वरकों और खाध उत्पादों को खरीद ले. यह प्रस्ताव भी रखा गया है कि तेल की कीमत के बदले असैन्य क्षेत्र की परियोजनाओं में भारत की मदद हासिल कर ले. मौजूदा हालात में प्रतिनिधि मंडल की वार्ता के बाद ही यह तय होगा कि भारत को र्इरान से तेल मिल सकेगा या नहीं.
अमेरिका और यूरोपीय संघ पूरा जोर लगा रहे हैं कि भारत को र्इरान से कच्चे तेल की खरीद बंद कर देनी चाहिए. लेकिन, भारत के लिए ऐसा कर पाना आसान कतर्इ नहीं है. भारत द्वारा इस समय कुल जरूरत का 10 प्रतिशत कच्चा तेल र्इरान से खरीदा जाता है. अमेरिका और पश्चिमी देशों के इशारे पर सउदी अरब ने तेल उत्पादन बढ़ाने की बात कही है. इससे भी अमेरिकी रणनीति का साफ पता चलता है. तेल उत्पादन बढ़ाकर सउदी अरब की अर्थव्यवस्था और मजबूत होगी, जबकि र्इरान को झटके लगेंगे. वैसे, र्इरान पर प्रतिबंध के बाद कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गर्इ हैं. इसका फायद भी सउदी अरब जैसे देशों को ही होगा.
यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत अमेरिका और पश्चिम के रुख के विपरीत र्इरान से तेल खरीद जारी रखेगा ? बीते सालों में र्इरान को लेकर भारत के रुख को देखकर तो यही लगता है कि भारत एक बार फिर पश्चिम के साथ खड़ा होगा. वजह साफ है कि भारत इससे पहले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका और यूरोपीय संघ के दबाव में र्इरान के खिलाफ वोट डाल चुका है. इस बार न केवल अमेरिका बलिक फ्रांस और जर्मनी भी र्इरान के खिलाफ जरूरत से ज्यादा सख्त दिख रहे हैं. यूरोपीय संघ ने र्इरान को 30 जनवरी की डेडलाइन दी है. डेडलाइन तक र्इरान ने यूरेनियम संवर्धन का काम बंद न किया तो उसे और कठिन परिसिथतियों का सामना करना पड़ेगा. इस डेडलाइन के बाद यूरोपीय संघ र्इरान के केंद्रीय बैंक की संपतित जब्त करने जैसे कदम भी उठा सकता है.
अमेरिका और पश्चिमी देश भारत को यही समझा रहे हैं कि मध्य-पूर्व में र्इरान द्वारा परमाणु ताकत हासिल किए जाने से उसके लिए परेशानी बढ़ जाएगी. माना जा रहा है कि र्इरान द्वारा ऐसा किए जाने पर सउदी अरब और सीरिया भी परमाणु ताकत हासिल करने के लिए जोर लगा देंगे. इस तरह भारत के आसपास परमाणु ताकत संपन्न देशों का जमावड़ा हो जाएगा.
यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सामरिक लिहाज से भारत को सबसे बड़ा खतरा चीन और पाकिस्तान से है. जब, अमेरिका और पश्चिमी देश पाकिस्तान को ऐसा करने से नहीं रोक पाए तो भारत को इस बात से क्यों डरना चाहिए कि र्इरान के पास भी परमाणु हथियार होंगे. परमाणु हथियारों के मामले में चीन को काबू करना पश्चिम के बूते से बाहर है.
इन उदाहरणों को देखते हुए ऐसी कोर्इ वजह नहीं कि अमेरिका के कहने पर भारत पूरी दुनिया में परमाणु हथियारों को रोकने का झंडाबरदार बनकर घूमे. भारत को अपने हित देखने चाहिए और मौजूदा हालात यही कहते हैं कि र्इरान के खिलाफ खड़ा होना भविष्य के लिहाज से कतर्इ अच्छा नहीं होगा. भारत के विरोधी रुख से उन कटटरपंथी ताकतों को बल मिलेगा जो र्इरान में भारत के खिलाफ भावनाएं भड़काती हैं. इससे र्इरान के सत्ता वर्ग में शामिल नरमपंथी तबका हताश होगा जो दशकों से भारत को दोस्त मानता आया है.
भारत को र्इरान के साथ अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्तों को भी देखना चाहिए. र्इरान के मामले में भारत भले ही कमजोर पड़ जाए, लेकिन चीन एक बार फिर र्इरान के साथ दिखेगा. इससे वैश्विक संतुलन के लिहाज से भारत का पक्ष कमजोर होगा.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले दिनों में भारत छिपे तौर पर र्इरान मामले में मध्यस्त की भूमिका में रहा है. अब, पशिचम के साथ खड़े होने पर र्इरान की निगाह में भारत की मध्यस्त की भूमिका समाप्तप्राय हो जाएगी.
हाल के दिनों में र्इरान के सामान्य फैसले भी पशिचम को भड़काउ लग रहे हैं. स्ट्रेट आफ हारमूज खाड़ी में र्इरान द्वारा नौसैनिक अभ्यास और र्इरानी राष्ट्रपति द्वारा लैटिन अमेरिकी देशों की यात्रा को इस तरह प्रचारित किया गया मानो र्इरान ने तीसरे विश्वयुद्ध की जमीन तैयार कर दी है. भारत को इस युद्ध-भूमि को गलत पक्ष के चयन से बचना चाहिए.

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