यह व्यवस्था नौकरियां देती नहीं, खाती है ओबामा जी

यह हफ्ता आर्थिक दुनिया में भूचाल लाएगा. हालांकि अमेरिका और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की घनघोर अंधेरे की ओर बढ़ती जा रही है. अमेरिका का बेरोजगारी के घनघोर संकट से जूझना एक छोटा संकेत है. लेकिन इस हफ्ते से कई ऐसी खबरें मिलेंगी जो पूंजीवाद के चाकरों की नींद उड़ा देगी. दाएं बाएं नहीं सीधे सवालों पर गौर करने की जरूरत है.

मंगलवार से ग्रीस के फिर से दिवालिया होने का खतरा बढ़ गया है. 22 फीसदी का बजट घाटा ग्रीस सरकार का दम घोंट रहा है. उधर ओबामा कह रहे हैं कंपनियों, तुम नौकरी दो हम टैक्स छूट देंगे. 447 अरब डॉलर कांग्रेस में पास होने के लिए तैयार है.
फिर वही ढाक के तीन पात. ओबमा की घोषणा के तीन दिन बाद खबर आती है कि बेलाउट पा चुका बैंक ऑफ अमेरिका 30,000 लोगों को नौकरियों से निकालने जा रहा है. इसी बैंक ने मेरिल लिंच के साथ मिलकर एक और आठ सितंबर के बीच एक सर्वे किया जिसमें आधे से ज्यादा लोग मान रहे हैं कि अगले 12 महीने में यूरोप पूरी तरह से मंदी के गिरफ्त में होगा.
भारत में भी एक एजेंसी मैनपावर का कहना है कि चार नियोक्ताओं में से एक हायरिंग प्लान को लेकर अनिश्चित है. पिछले तिमाही (जुलाई-सितंबर) में नौकरियों के मौकों में करीब 15 फीसदी की गिरावट आई है. आगे भी धीमी रहेगी. वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि हम महंगाई को समय नहीं मिल पाने की वजह से हल नहीं कर पा रहे हैं.
नौकरी तब पैदा होती है जब चीजों और सेवाओं की मांग ज्यादा हो. उसे उपलब्ध कराने वालों की संख्या कम पड़े. लोकप्रिय धारणा बिल्कुल गलत है कि बिजनेस रोजगार देगा. आज की तारीख में ठीक उलट है. प्रबंधन स्कूल का सिलेबस देखिए या मोटी तनख्वाह पर काम करने वाले सेल्समैन टार्गेट लिए घुमते हैं. टार्रेट पूरा नहीं नौकरी से पत्ता साफ. ‘कॉस्ट कटिंग’ का मंत्र तो व्हार्टन से लेकर आईआईएम अहमदाबाद का मूलमंत्र है. कौन रोजगार देने जा रहा है. ओबामा टैक्स कम कर देंगे. कंपनियों के पास पैसा ज्यादा होगा तो क्या वह कर्मचारी रख लेंगे. जब व्यवस्था ही गैरबराबरी में मुनाफा देखती है तो उससे नौकरी और कल्याण जैसी बातें सोचना बेवकूफाना नहीं तो क्या है.
कबतक करेंगे नज़रअंदाज़
मंगलवार 13 सितंबर 2011 को अमेरिका की गरीबी रेखा वाली रिपोर्ट जारी हुई है. 2010 में गरीबी 15 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है. यह अमेरिका का सरकारी आंकड़ा है.
गरीबी,बजट घाटा और टैक्से के इस चक्रव्यूह में व्यवस्था कैसे-कैसे तर्क देने वालों को प्रोत्साहित करती है. खुलेआम लूट को भी हम नियमों के तहत नजरंदाज कर रहे हैं.
कभी मौका मिले तो सोचिएगा कि आखिर कैपिटल गेन टैक्स कम क्यों होता है?
यह टैक्स ऐसा है कि आप पैसे से पैसा पैदा करने पर लगता है. शेयर से लेकर प्रॉपर्टी में भारी भरकम पैसा लगाने के बाद मिला मुनाफा कैपिटल गेन कहा जाता है और इस इनकम पर लगने वाला टैक्स कैपिटल गेन टैक्स.
तकरीबन हर देश में खासकर अमेरिका या विकसित देश में यह टैक्स बाकी इनकम टैक्स से कम होता है. आप मानेंगे कि यह मुनाफा वही हासिल करता है जिसके पास पूंजी है. यह इनकम का ऐसा हिस्सा है जिसपर सामान्य तौर पर ऊपरी इनकम टैक्स रेट से कम टैक्स लगता है. भारत में भी ऐसा है. 30 फीसदी इनकम टैक्स की ऊपरी सीमा है तो कैपिटल गेन (लांग टर्म) की सीमा 20 फीसदी है. केवल भारत ही नहीं पूरी दुनिया में यह ट्रेंड देखने को मिलेगा कि कैपिटल गेन इनकम टैक्स के स्तर से कम होता है.
एक आंकड़ा देखिए जिसे डेव जानसन से लिया है. 2008 के 400 सबसे बड़े धनी लोगों की इनकम कैपिटल गेन की कैटेगरी वाली थी. 8 फीसदी सैलरी और मेहनताना वाली थी. बाकी जनता यानी 400 लोगों के अलावा केवल 5 फीसदी लोगों की इनकम कैपिटल गेन कैटेगरी वाली थी जबकि 72 फीसदी लोग सैलरी वाली कैटेगरी में थे.
अमेरिका से लेकर यूरोप तक तबाही मचने वाली है. एंजिला मर्केल (जर्मन चांसलर) की नींद उड़ गई है. 17 देशों में चलने वाली मुद्रा यूरो 2003 के स्तर पर पहुंच गई है. ग्रीस को दिवालिया होने का दोबारा खतरा पैदा हो गया है. सरकारी बांड 25 फीसदी पर भी देने के लिए लोग तैयार नहीं है. इटली को पांच साल के बांड पर सबसे ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ रहा है. 1999 के बाद का रिकॉर्ट भुगतान. एक-एक करके सभी देश इस जाल में फंसते जा रहे हैं.
देखिएगा कुछ ही देर में ढेरों बयान आएंगे कि ग्रीस ने सही तरीके से सरकारी खर्च को मैनेज नहीं किया. फिर थुलथुला तर्क और मौजूदा व्यवस्था में खामी निकालने से पूरी तरह इनकार की गुंज साफ सुनाई देगी.
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PRATIRODH BUREAU

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