नवउपनिवेशवाद का सच: दुनिया में बढ़ रहे हैं जमीन के सौदे

मंदी के बाद पूंजी अपनी प्यास बुझाने के लिए हरे भरे मैदान तलाश रही है. बेहतर रिटर्न की तलाश उसे खेतों तक ले आई है. हाल के दिनों में जितनी तेजी से अनाज की कीमत बढ़ी है उतनी ही तेजी से दुनिया में जमीन के सौदे बढ़े हैं. दुनिया के बड़े निवेशकों और उनके कारिंदों की निगाह जमीन और अनाज दोनों पर है. आर्थिक मंदी से डांवाडोल सरकारें और निवेशक बड़े पैमाने पर गरीब देशों की जमीन हड़पना शुरू कर दिया है. वित्तीय मोर्चे पर लुट चुके असफल लालची निवेशक और सरकारें अब अफ्रीका,एशिया और लैटिन अमेरिका में जमीन के कब्जे पर जोर दे रही हैं. रोजगार के चंद मौके और चुनिंदा लोगों को बेहतर मुनाफा का लालच देकर लाखों एकड़ जमीन पर कब्जा जारी है. जमीन की इस लूट को नवउपनिवेशवाद के नए चरित्र के रूप में देखा जाना चाहिए.

सीधे सेनाओं से नहीं बल्कि उदारवादी व्यापारिक माहौल में मित्रवत सरकारों के जरिए बड़े निवेशकों की फौज इन सौदों को अंजाम दे रही है. न्यूजीलैंड की अर्थशास्त्री लिज एल्डेन विली सार्वजनिक जमीनों पर व्यावसायिक दबाव के मुद्दे पर काम करती हैं. लिज का कहना है कि सरकारें और पहुंच रखने वाले संप्रभु वर्ग के लोग जमीनों के इन सौदों में दलाली की भूमिका निभा रहे हैं.
अब तक इन सौदागरों ने 8.54 अरब हेक्टेयर जमीन पर नजर गड़ाई है. दुनिया की कुल साझा जमीन का 65 फीसदी हिस्सा बिकने के लिए तैयार है. इसमें से 8 करोड़ हेक्टेयर के लिए बातचीत तकरीबन पूरी हो चुकी है.  इसे ‘विकसित करके ज्यादा उपजाऊ’ बनाने की योजना के लिए कानून में बदलाव के साथ करोड़ो लोगों को विस्थापित करने की योजना है. सबसे ज्यादा मार साझा जमीन (जंगल,मौसमी खेती,चारागाह) पर है. अफ्रीका इसका पहला निशाना है. सबसे ज्यादा सौदे इस महाद्वीप पर हो रहे हैं. कांगो, उत्तरी सुड़ान, बेनिन, नामिबिया, इथोपिया, मेडागास्कर जैसे सब सहारन अफ्रीका की नब्बे फीसदी जमीनों का मालिक कानूनी रूप से तय नहीं है. यहां साझा जमीने हैं. 2007 से 2009 के अंत तक करीब 33 देशों ने 4.5 करोड़ हेक्टेयर कृषियोग्य जमीन लीज पर लिया. इन देशों में दो से तीन विकासशील देश भी हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हाल में हुई इथोपिया यात्रा में कृषि योग्य जमीन को लीज पर लेने का समझौता हुआ. यहां हैदराबादी निवेशक करतुतरी तीन लाख हेक्टेयर जमीन पहले ही पट्टे पर लेकर “आधुनिक तरीके” से जौ पैदा कर रहा है.
अफ्रीकी देशों के अलावा ब्राजील,अर्जेटिना कंबोडिया, मलेशिया,फिलिपिंस जैसे देशों में जमीन के सौदे बड़े पैमाने पर हुए हैं. पाकिस्तान में पट्टे पर विदेशी निवेशकों के साथ होने वाले सौदों को गुप्त रखा जाता है. हालांकि स्थानीय रिपोर्ट के मुताबिक करीब 10 लाख हेक्टेयर जमीन साउदीअरब और संयुक्त अरब अमिरात के निवेशकों ने अकेले 2008 में सौदा किया है(Daniel and Mittal 2009; SCOPE 2010). 60 लाख हेक्टेयर के लिए भी बातचीत चल रही है. इसका असर पाकिस्तान की 50 फीसदी ग्रामीण आबादी पर पड़ने की आशंका है. बेहद गरीब आबादी इस जमीन पर मौसमी खेती के अलावा पशुओं के चारे का इतंजाम करती है. स्थानीय रिपोर्ट का हवाला देते हुए डैनियल और मित्तल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2008 में अकेले पंजाब प्रांत में जमीन के केवल एक सौदे से ढाई हजार गांववासी विस्थापित हुए हैं. साझा जमीन का सौदा है इसलिए एक भी गांव वालों को मुआवजा नहीं मिला. भारत में अनिवार्य रुप से निजी जमीन के अधिग्रहण से सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ा है. फरवरी 2010 तक कुल 571 स्पेशल इकोनॉमिक जोन के अलावा और कई ऐसी जगहे हैं जहां जमीन हड़पने की घटनाएं हुई हैं. मुआवजे से लेकर विस्थापन की लड़ाइयां अभी भी जारी हैं.
जमीन का सौदा करने वाली कंपनियां या निवेशक सबसे पहले स्थानीय लोगों को रोजगार का भरोसा दिला रही हैं. जमीन के सौदों में संभावित विरोध को दूर करने के लिए कंपिनयां इस चारे का इस्तेमाल करती हैं. थिया हिलरेस्ट ने रोजगार को लेकर बेनिन,बुर्किनाफासो और नाइजर के 99 छोटी परियोजाओं में एक सर्वे किया. प्रोजेक्ट चलाने वालों ने कोई ग्रामीण रोजगार पैदा नहीं किया है. कंपनियां नौकरों को बाहर से लेकर आती हैं. उन्हे स्थानीय लोगों पर भरोसा नहीं होता. खुले बाजार की वकालत करने वाली पत्रिका इकोनॉमिस्ट का तर्क मजेदार है. पत्रिका का कहना है कि अफ्रीका जैसे देशों में जमीन का बाजार विकसित नहीं हुआ है, वह अभी कमजोर है. इसलिए आम लोगों को इस नवउपनिवेशवाद का अभी फायदा नहीं मिल रहा है.
दुनिया के बड़े पूंजीखोर इस उम्मीद में खेती लायक जमीनें खरीद रहे हैं ताकि आने वाले भूखमरी और छलांग लगाते अनाज के दाम पर भारी मुनाफा कमाया जा सके. इकोनॉमिस्ट का मानना है कि अगले चार साल में दो बार अनाज की कीमतें आसमान छुएंगी.
जमीन के इन सौदों के पीछे की सच्चाई विस्थापन से लेकर खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़ी है. इन जमीनों में जो निवेश हुआ है वह चरित्र में सट्टे वाली पूंजी है. जिन लोगों की जमीने चंद पैसों में खरीदी जा रही है वे हमेशा के लिए विस्थापित हो रहे हैं. अब वे अनाज के उत्पादक नहीं भविष्य के खरीदार बन रहे हैं. इन सौदों में जमीन को आमतौर पर 99 साल के लिए पट्टे पर दिया जा रहा है. एक पीढ़ी से लेकर आने वाली चार पीढ़ियां इस जमीन से महरूम रहेंगी. भूखमरी,गरीबी और राजनीतिक हलचलों के बीच यह जमीन दोबारा वापस मिलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है.
जमीन के सौदों में आई बढ़ोतरी ने साफ कर दिया है कि आर्थिक मंदी से उबरने का दावा ढकोसला है. वित्तीय उत्पादों से दिशा बदलकर अब यह पूंजी कमोडिटी पर केंद्रित हो रही है. अदृश्य पूंजी के इस बदलाव के बड़े मायने हैं. वित्तीय पूंजी जब वास्तविक बाजार में सट्टा का पैसा इस्तेमाल करती है तो राजनीतिक और आर्थिक बदलावों रास्ते खुलते हैं. मुनाफे का यह नया चक्र समाजिक तानेबाने से सीधे जुडता है. इसलिए यह विकल्पों के नए दरवाजे भी खोलता है.
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PRATIRODH BUREAU

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