हमारे समाज का तथाकथित प्रगतिशील तबका एक साथ कई आवरणों में जीता है। कभी आपको लग सकता है कि महिलाओं के मामले में वह काफी रैडिकल पोजीशन लेकर खड़ा है लेकिन जब बात दलित महिला की होगी, तो एकाएक वह दलितों के खिलाफ पोजीशन लेकर खड़ा दिखाई दे सकता है। जाति का सवाल हो तो यह खेमा क्रांतिकारी पोजीशन लेकर खड़ा हो सकता है, लेकिन दूसरे संप्रदाय के धर्म पर बिल्कुल ही दकियानूसी विचार से लैस हो सकता है। कहने का मतलब यह कि हमारे देश के तथाकथित प्रगतिशील तबके का सोच पूरी तरह उसके निजी हित को ध्यान में रखकर तैयार होता है, न कि उसकी कोई वैचारिक कसौटी होती है।
उदाहरण के लिए ‘दंगल’ व ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ फेम वाली अभिनेत्री ज़ायरा वसीम के उस इंस्टाग्राम पोस्ट को लिया जा सकता है जिसमें उसने कहा था बॉलीवुड में काम करना उसके मज़हब के ऊपर भारी पड़ रहा है, इसलिए अब वह फिल्म इंडस्ट्री में काम नहीं करेगी। अट्ठारह साल की लड़की की उस पोस्ट को जिन लोगों ने हवा दी, उसमें हमारे समाज का तथाकथित प्रगतिशील खेमा भी उतनी ही शिद्दत से शामिल था जिस उत्साह से हिन्दू फैनेटिक शामिल था। कई बार स्थिति इतनी विकट हो जाती है कि समझदार व्यक्ति के लिए दोनों खेमों के बीच अंतर स्पष्ट करना मुश्किल हो जाता है कि कौन कम पुरातनपंथी है।
इसी तरह तीन तलाक बिल की चर्चा तथाकथित प्रगतिशील तबके ने उसी रूप में की जिस रूप में हिन्दुत्ववादी शक्तियां कर रही थीं। तीन तलाक बिल पर चर्चा करते हुए कई प्रगतिशील लोग तो आरिफ़ मोहम्मद खान के उस बयान को दुहराने लगे जिसमें आरिफ़ ने कहा था कि देश में जैसा भविष्य हिन्दुओं का है वैसा ही भविष्य मुसलमानों का भी है। आरिफ़ मोहम्मद खान की बातों का समर्थन करते हुए यह तबका इस स्तर पर उतर आया कि कहने लगा आरिफ़ मोहम्मद जैसे लोगों को दरकिनार करके ही ‘मुसलमानों’ ने अपनी यह गत बना रखी है। फिर उसने फैसला भी सुना दिया, कि इसी कारण से मुसलमानों को मुख्यधारा में शामिल करना असंभव है!
सवाल यह है कि कैसे गोबरपट्टी का ‘बुद्धिजीवी’ तबका अनजाने ही कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी भाषा बोलने लगता है, जिसमें तार्किकता पूरी तरह गायब हो जाती है? क्या इस तबके को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह किसके बदले में किसकी मदद कर रहा है? या फिर ‘अंतरात्मा’ की आवाज़ इतनी गहरी है कि बिना सोचे-विचारे वही सब बोलने लगता है जिसे सबसे ज्यादा आरएसएस और बीजेपी पसंद कर रहे हैं? या फिर वे इतने भोले हैं कि वे समझ ही नहीं पाते कि जिन बातों को तर्कसंगत ढ़ंग से कहने की ज़रूरत है उसे एक झटके में ‘कुछ भी’ कहकर बहस को काफी पीछे ले जाते हैं!
इन बुद्धिजीवियों की समझदारी पर एक नज़र दौड़ाइए। जब वे मुसलमानों के बारे में बात करेंगे तो पूरी ‘अथॉरिटी’ से बात करेंगे, बिना किसी ऐतिहासिक परिपेक्ष्य के। उदाहरण के लिए, जब वे आरिफ़ मोहम्मद खान की उस बात को दुहराएंगे तो यह बताना नहीं भूलेंगे कि ये वही शख्स है जिसने शाह बानो के तीन तलाक वाले मसले पर मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था! आरफ़ा खानम शेरवानी के जिस इंटरव्यू में आरिफ़ मोहम्मद खान को ‘मुसलमानों का भविष्य हिन्दुओं के समान दिखता है’, अगर उस इंटरव्यू को देखें तो आप पाएंगे कि वहां आरिफ़ साफ-साफ कहते हैं, “अगर राजीव गांधी को सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलना ही था तो मुझसे एक घंटा उस फैसले के पक्ष में तकरीर क्यों करवायी… मैं संसद में तकरीर नहीं करता तो मैं इस्तीफा नहीं देता।‘
मतलब यह कि आरिफ़ ने मंत्री पद से इस्तीफा इसलिए दिया था क्योंकि उनके अहं को ठेस पहुंची थी। उन्हें लग रहा था कि उनकी कही बातों को नेतृत्व ने नकार दिया है! कुल मिलाकर मुसलमान महिलाओं के तीन तलाक से उनका उस रूप में वास्ता नहीं रहा है, जिस तरह से वे इसे पेश कर रहे हैं! क्या आरिफ़ से एक सवाल यह नहीं हो सकता है कि जब वीपी सिंह की सरकार में फिर से वे मंत्री बने तो उन्होंने राजीव गांधी की सरकार के शाह बानो के फैसले को बदलने के लिए क्या-क्या किया?
हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी इस बात न सिर्फ भूलता है, बल्कि इस तथ्य की तरफ भी ध्यान नहीं देता कि आरिफ़ 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी में शामिल हो गए थे, हालांकि 2007 में उन्होंने बीजेपी से इस्तीफा दे दिया था। यह बात अलग है कि आज भी वे पार्टी के हर के मंच पर शिरकत करते नज़र आते हैं।
जिस सवाल का जवाब दिया जाना ज़रूरी है, वो यह है कि ‘काबिल’ हिन्दू जिसे मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार मानता है, वही काबिल हिन्दू सबरीमाला मंदिर पर क्यों चुप्पी साध लेता है? क्या सबरीमाला का मसला हिन्दू महिलाओं के उपर अत्याचार नहीं है?
सवाल यह भी है कि जिन मुस्लिम महिलाओं को लेकर हमारा ‘प्रगतिशील’ तबका इतना विचलित रहता है, क्या उसे लगता है कि मुसलमानों का पूरा समूह तीन तलाक के पक्ष में खड़ा है? इन्हें ऐसा क्यों लगता है जो मुसलमान तीन तलाक के पक्ष में खड़े हैं, उन्हें अपनी मां, बहन या बेटियों की सुध बिल्कुल ही नहीं है और तीन तलाक को बचाने के लिए वे अपनी मां, बहन और बेटियों की हितों को भूल जा रहे हैं!
आखिर इन बुद्धिजीवियों को ऐसा क्यों लगता है कि मुस्लिम महिलाओं का हित सिर्फ वे ही देख पा रहे हैं जबकि पूरा का पूरा मुस्लिम समाज अपने समाज की महिलाओं के खिलाफ है? वे कुछ दकियानूसी मौलवियों के कहे के आधार पर भारतीय मुसलमानों को महिला विरोधी कैसे साबित कर देते हैं? वे यह क्यों नहीं सोचते कि सुप्रीम कोर्ट ने जब तीन तलाक के फैसले को अवैध घोषित किया था तो मुसलमानों का कौन सा तबका उसके खिलाफ था? जबकि सबरीमाला के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ न सिर्फ बीजेपी बल्कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भी ‘डिसेंट फैसले’ का समर्थन करने पर उन्हें हिंदुओं में दकियानूसी नहीं दिखाई पड़ती है!
यह तथाकथित प्रगतिशील तबका दकियानूसी का इतना ज्यादा शिकार है कि वह इस बात को ही समझने से इंकार कर देता है कि दुनिया का हर धर्म महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए होता है न कि उन्हें मुक्त करता है। वे धार्मिक बेड़ियों को केवल इस्लाम से जोड़कर देखना चाहते हैं। वे देश, काल और समाज की सारी समस्याओं को अपनी सुविधानुसार धार्मिक बनाकर देखते हैं क्योंकि इससे उन्हें जातिवादी हिन्दुत्व के पक्ष में खड़ा होने की छूट मिल जाती है।
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