‘कबीर सिंह’ को देखकर क्यों तालियां पीट रहे हैं लोग: ब्लॉग

फ़िल्म ‘कबीर सिंह’ प्यार की कहानी नहीं है. ये एक आदमी के पागलपन की कहानी है. कबीर सिंह का पागलपन घिनौना है. और फ़िल्म उसी घिनौने शख़्स को हीरो बना देती है.

वो आदमी जिसे जब अपना प्यार नहीं मिलता तो वो किसी भी राह चलती लड़की से बिना जान पहचान शारीरिक संबंध बनाना चाहता है.

यहां तक कि एक लड़की मना करे तो चाक़ू की नोक पर उससे कपड़े उतारने को कहता है.

वो इससे पहले अपनी प्रेमिका से साढ़े चार सौ बार सेक्स कर चुका है और अब जब वो नहीं है तो अपनी गर्मी को शांत करने के लिए सरेआम अपनी पतलून में बर्फ़ डालता है.

और मर्दानगी की इस नुमाइश पर सिनेमा हॉल में हंसी-ठिठोली होती है.

तेलुगू फ़िल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ पर आधारित ये फ़िल्म उस प्रेमी की कहानी है जिसकी प्रेमिका का परिवार उनके रिश्ते के ख़िलाफ़ है और प्रेमिका की शादी ज़बरदस्ती किसी और लड़के से करा देता है.

जंगलीपन की शक्ल लेता विलाप

इसके बाद प्रेमी कबीर सिंह का विलाप जंगलीपन की शक्ल ले लेता है. क्योंकि वो किरदार शुरू से ही औरत को अपनी जागीर मानने वाला और ‘वो मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं होगी’ वाली मानसिकता वाला है.

प्रेमिका हर व़क्त शलवार क़मीज़ और दुपट्टा लिए रहती है पर वो उसे गला ढकने को कहता है.

वो ‘उसकी’ है ये साफ़ करने के लिए पूरे कॉलेज को धमकाता है. होली के त्यौहार पर सबसे पहले वो ही उसे रंग लगाए इसके लिए लंबा-चौड़ा इंतज़ाम करता है.

उसे ये तक कहता है कि उसका कोई वजूद नहीं और “कॉलेज में लोग उसे सिर्फ़ इसलिए जानते हैं क्योंकि वो कबीर सिंह की बंदी है”.

खुले तौर पर शराब पीने, सिगरेट का धुंआ उड़ाने और दिल्ली जैसे ‘अनऑर्थोडोक्स’ यानी खुले विचारों वाले शहर में शादी से पहले आम तौर पर सेक्स करने का माहौल, ये सब छलावा है.

इस फ़िल्म में कुछ भी प्रगतिशील, खुला, नई सोच जैसा नहीं है. इस फ़िल्म का हीरो अपनी प्रेमिका को हर तरीक़े से अपने बस में करना चाहता है और पसंद की बात ना होने पर ग़ुस्सैल स्वभाव की आड़ में जंगलीपन पर उतर आता है.

सभ्य समाज का दबंग

उसके पिता से बद्तमीज़ी करता है, अपने दोस्तों और उनके काम को नीचा दिखाता है, अपने कॉलेज के डीन का अपमान करता है, अपनी दादी पर चिल्लाता है और अपने घर में काम करनेवाली बाई के एक कांच का गिलास ग़लती से तोड़ देने पर उसे चार मंज़िलों की सीड़ियों पर दौड़ाता है.

दरअसल कबीर सिंह सभ्य समाज का दबंग है. बिना लाग-लपेट कहें, तो ये किरदार एक गुंडा है.

प्यार पाने की ज़िद और ना मिलने की चोट, दोनों महज़ बहाने हैं. इस किरदार की हरकतों को जायज़ ठहराने के. उसे हीरो बनाने के.

हिन्दी फ़िल्म के हीरो को सात ख़ून माफ़ होते हैं. उस किरदार की ख़ामियों को ऐसे पेश किया जाता है कि देखनेवालों की नज़र में वो मजबूरी में की गईं ग़लतियां लगें.

कबीर सिंह का बेहिसाब ग़ुस्सा हो, बदज़बानी हो या अपनी प्रेमिका के साथ बदसलूकी, उसके दोस्त, उसका परिवार, उसके साथ काम करनेवाले, उसके कॉलेज के डीन और उसकी प्रेमिका तक, सब उसे माफ़ कर देते हैं. तो देखनेवाले क्यों ना माफ़ करें?

दशकों से औरत को नियंत्रण में रखनेवाले मर्दाना किरदार पसंद किए गए हैं. ऐसी फ़िल्में करोड़ों कमाती आईं हैं. और सोच से परे दकियानूसी ख्यालों को जायज़ ठहराती रही हैं.

कबीर सिंह शराबी हो जाता है पर उसके दोस्त उसका साथ नहीं छोड़ते बल्कि एक दोस्त तो उसे अपनी बहन से शादी का प्रस्ताव भी देता है.

“मेरी बहन तेरे बारे में सब जानती है पर फिर भी तुझे बहुत पसंद करती है, तू उससे शादी करेगा?”

एक औरत के दिए ग़म से निकलने के लिए एक दूसरी औरत का बलिदान.

ज़िम्मेदार ठहराई जाए प्रेमिका

एक शराबी बदतमीज़ आदमी जो प्यार की चोट को वजह बनाकर किसी भी लड़की के साथ सोता है, ऐसे आदमी को पसंद करनेवाली बहन.

एक बार फिर एक फ़िल्म प्यार के नाम पर हिंसा का जश्न मना रही है. सिनेमा हॉल में ख़ूब तालियां बज रही हैं. सीटियों से हीरो का इस्तक़बाल हो रहा है.

पर लड़कियों को कैसे लड़के पसंद होते हैं? ऐसे तो नहीं. फ़िल्म की काल्पनिक दुनिया में भी ऐसा आदमी मेरा हीरो नहीं हो सकता.

जो मुझसे प्यार करे पर मेरे वजूद को नकार दे, मुझे हर व़क्त कंट्रोल करने की कोशिश करे, जिसे ना मेरे नज़रिए की समझ हो ना ही परवाह.

फिर मैं ना मिलूं तो किताब में लिखी हर घृणित हरकत करे. और फ़िल्म में बार-बार उन सभी हरकतों के लिए उसे नहीं, उसकी प्रेमिका को ज़िम्मेदार ठहराया जाए.

सारी परेशानियों की जड़ उसे बना दिया जाए. कबीर सिंह का ग़ुस्सा, शराब के प्रति दीवानापन, मरने की कोशिशें, इस सब की क़सूरवार वो प्रेमिका बना दी जाए.

उस प्रेमिका की ज़िंदगी, उसका अकेलापन, इसकी कोई चर्चा ना हो. और आख़िरी सीन में वो अचानक कबीर सिंह को हर बात के लिए माफ़ कर दे और वो हीरो बन जाए.

प्यार जैसे ख़ूबसूरत रिश्ते जिसमें हिंसा को किसी भी पैमाने से सही नहीं ठहराया जा सकता और जिसमें बराबरी और आत्म सम्मान की लड़ाई औरतें दशकों से लड़ रही हैं, उसके बारे में सोच कैसे खुलेगी?

आप ही से शुरुआत होगी. बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता के शोर के बीच मैं लिखूंगी, आप पढ़ेंगे और इस जश्न को बारीकी से समझकर नकारने की गुंजाइश बनी रहेगी.

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