“हम हौज़ काज़ी को, बल्लीमारान को अयोध्या बना सकते है। अब हिन्दू पिटेगा नहीं ये उनको समझ लेना चाहिए”- यह भाषा विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त सचिव सुरेन्द्र जैन की थी जब पुरानी दिल्ली में शोभा यात्रा निकाली जा रही थी। ये अमन के बोल जैन जी के मुख से तब फूटे जब पुरानी दिल्ली के मुस्लिम समुदाय के लोग शोभा यात्रा का स्वागत कर रहे थे, भंडारों का आयोजन कर रहे थे।
सांप्रदायिक दंगे की फसल पुरानी दिल्ली में लहलहा न सकी लेकिन शक्ति प्रदर्शन, एक पर दूसरे की सांप्रदायिक बढ़त की राजनीति, खूब चमकाई गयी। जब बात अमन और भाईचारे की होती है तो आक्रामक नारे और बयानबाज़ी नहीं बल्कि आभार और धन्यवाद का नरमी के साथ आदान प्रदान होता है। लेकिन कल की शोभा यात्रा में शायद ऐसा कोई मौका गुज़रा हो।
क्या पूरे मुस्लिम समुदाय को इस घटना के लिए पहले से ही मुजरिम करार दे दिया गया है? और शायद उन्होंने यह मान भी लिया है?
मैं निजी तौर पर मानता हूं कि अच्छा हुआ पुरानी दिल्ली में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने आगे बढ़कर दुर्गा मंदिर के निर्माण के खर्चे की ज़िम्मेदारी को उठाया। बड़ा दिल दिखाते हुए शोभा यात्रा के स्वागत का आयोजन भी किया। दंगाइयों के मंसूबों को नाकाम किया।
और अच्छा होता यदि इस मौके पर पुरानी दिल्ली के मुसलमान धरने पर बैठ जाते और केंद्र सरकार से पूछते कि यूनेस्को द्वारा दिल्ली को हेरिटेज सिटि का दर्जा हासिल क्यूं नहीं होने दिया गया और कब सरकार ऐसा करेगी। और यदि सरकार उनकी मांग मानती, तो दिल्ली के दस पुराने मंदिरों के पुनर्निर्माण का खर्च उठाने का जिम्मा मुसलमान लेते।
2014 में भाजपा सरकार ने दिल्ली को हेरिटेज सिटि बनाने की फ़ाइल यूनेस्को से वापस ले ली थी। क्यों? इसका जवाब अभी तक सरकार ने नहीं दिया है। जबकि मुंबई और जयपुर को यह दर्जा हासिल होने दिया गया। ऐसा होने से पर्यटन बढ़ता। पर्यटन से रोज़गार बढ़ता।
अगर यह मांग की गयी होती तो सांप्रदायिकता की राजनीति हवा हो जाती मुद्दा रोजगार पर केन्द्रित हो जाता, जो दोनों समुदाय के लिए अहम है। इससे मुस्लिम कट्टरपंथियों की राजनीति भी समाप्त हो जाती (जिसको कल की शोभा यात्रा के बाद फलने-फूलने के लिए छोड़ दिया गया है)। मुस्लिम समाज का बेहतर राजनीतिकरण होता। लेकिन…
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