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65 साल पुरानी एक अनैतिहासिक टीस

Mar 28, 2012 | महबूब ख़ान

दुनिया के लिए तो दूर, भारत या पाकिस्तान के लिए भी उनकी कोई अहमियत नहीं रह गई थी. लाखों करोड़ों लोगों की ही तरह जब वो पैदा हुए थे उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि कुछ ही वर्षों बाद वक़्त क्या करवट लेने वाला है. और सचमुच समय का पहिया कुछ ऐसे अनपेक्षित अंदाज़ में घूमा कि जैसे इतिहास या वक़्त ही नहीं बल्कि पूरी ज़िंदगी ही काँप गई थी.

 
बहरहाल, शनिवार, 17 मार्च 2012 को दुनिया को अलविदा कहते समय इस व्यक्ति की ज़ुबान पर सारी वही कहानियाँ या घटनाएं थीं जो देश आज़ाद या विभाजन के समय थीं. वक़्त उनके लिए जैसे थम गया था या मुड़कर फिर से उसी पड़ाव पर पहुँच गया था जब एक ही भारत हुआ करता था, यानी पाकिस्तान नहीं बना था. मगर हक़ीक़त को कैसे झुठलाया जा सकता है. हालाँकि हक़ीक़त ये थी कि उनकी अंतिम घड़ियाँ नज़दीक आ पहुँची थीं लेकिन उनकी ज़ुबान पर यही पुकार थी कि उन्हें उसी घर की झलक दिखा दी जाए जहाँ उनका भरा पूरा ख़ानदान 1947 तक रहा करता था.
 
मुश्ताक़ हुसैन ख़ान की पैदाइश 1935 की थी. यानी 1947 में उनकी उम्र लगभग 12 साल थी जब इस अल्हड़ उम्र में उन्हें पहाड़ जैसे बोझ ने दबा लिया था. मुश्ताक़ हुसैन ख़ान उर्फ़ नफ़ीस की कहानी भी लाखों करोड़ों हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों से अलग नहीं है जिन्होंने विभाजन होते देखा और ज़िंदगी भर ये दर्द उनके सीने से किसी गोह की तरह चिपटा रहा और मरते दम तक नहीं छूट सका. क़रीब 77 वर्ष की ज़िंदगी जीने के बाद भी जब मौत नज़दीक आई तो जैसे वो टीस फिर से हरी हो गई और आख़िरी इच्छा रही कि काश, समय मुड़कर फिर से वहीं पहुँच जाए जैसाकि 1947 के उस ख़ास दिन से पहले हुआ करता था.
 
हालात चाहे सआदत हसन मंटो के टोबा टेक सिंह के हों, ए ट्रेन टू पाकिस्तान या पिंजर के, इस तरह की मुश्किल ज़िंदगियाँ जिसने जी हैं, दर्द, तकलीफ़ और खोने की टीस का अंदाज़ा और कोई नहीं लगा सकता. 
 
मुश्ताक़ हुसैन ख़ान भी बग़ावत नगरी कहे जाने वाले मेरठ में अपने भरे पूरे परिवार के साथ रहते थे. परिवार में सबसे छोटे थे, तो ज़रा लाडले भी. परिवार के सभी सभी सदस्य ख़ासे पढ़े लिखे थे और अंग्रेज़ी सरकार के समय में ही नौकरी पेशा भी हो चुके थे. ख़ासा बड़ा घर था इसलिए ठाठ बाट से रहने की आदत भी थी. मुश्ताक़ चूँकि किशोरावस्था में क़दम रख ही रहे थे, इसलिए दुनिया और ज़िंदगी की हक़ीक़तों से बेख़बर और ग़ाफ़िल भी थे. या यूँ कहिए कि वो उम्र नहीं थी ये सब सोचने की. 
 
बहरहाल, अचानक बँटवारे का डंका बजा और जैसे सबकुछ बदल गया. मुश्ताक़ शहर में कहीं अपने दोस्तों के साथ अठखेलियाँ करने हुए निकले थे कि अचानक शहर में दंगे भड़क उठे और कर्फ़्यू लग गया. ऐसी अफ़रा-तफ़री मची कि जो जहाँ था, वहीं जान बचाने के लाले पड़ते दिखे. हैवानियत का ऐसा खेल शुरू हुआ कि दोस्त दुश्मन में बदल गए, हालाँकि कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने दुश्मनी की चादर फेंककर दोस्ती का लिबास पहना तो इंसानियत ने राहत की साँस भी ली. कुछ ऐसी ही चादरों ने मुश्ताक़ को इस दुनिया में अकेला होते हुए भी, अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. ख़ैर ऐसे माहौल में अपने घर पहुँचने का तो सवाल ही नहीं था इसलिए एक रिश्तेदार बुज़ुर्ग औरत के घर में पनाह लेना बेहतर समझा. ये वो घर था जहाँ वो कभी-कभार सुस्ताने और बुज़ुर्ग ख़ातून का लाड-प्यार पाने की लालसा में आ जाया करते थे. इसलिए वो भी जैसे उनका दूसरा घर ही बन गया था. उन्हें क्या मालूम था कि नीयति ने उनके लिए वो कुछ लिख दिया था जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी की नहीं होगी. 
 
ज़ाहिर सी बात है कि उस ज़माने में संपर्क के टेलीफ़ोन जैसे साधन तो थे नहीं, इसलिए बाज़ लोगों को तो ये भी पता नहीं चला कि वक़्त की उस बेरहम अंगड़ाई में कौन जीवित बचा या किसे दुनिया से ज़बरदस्ती रुख़सत कर दिया गया. मुश्ताक़ हुसैन ख़ान के लिए उन बुज़ुर्ग़ रिश्तेदार के घर से निकलना जान जोखिम में डालना था, लेकिन कुछ हफ़्तों बाद जब हिम्मत करके निकले तो, जो हुआ उसे देखकर उनके होश उड़ गए. 
 
मुश्ताक़ जब अपने घर से निकले थे उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था फिर कब और किस हालत में आना होगा. जब पहुँचे तो वो घर उनका नहीं बचा था. उस घर ने मुश्ताक़ से आँखें फेर ली थीं और पहचानने से इनकार कर दिया. वो घर जहाँ मुश्ताक़ पैदा हुए, जहाँ उनके भरे पूरे ख़ानदान की आवाज़ें और ठहाके गूँजते थे, जिसने मुश्ताक़ को भी पैदा होते ही अपनी आग़ोश में जगह दी, लेकिन वक़्त ने फ़िज़ाँ में इतनी बेरहमी घोल दी थी, कि जो भी अपना था, पराया हो गया या पराया लगने लगा. बहरहाल, उस घर में मुश्ताक़ को दाख़िल होने की इजाज़त नहीं मिली क्योंकि पूरा ख़ानदान रातों-रात खींची गई विभाजन रेखा के उस पार यानी पाकिस्तान चला गया था. नियमों के अनुसार वो घर किसी और ख़ानदान को आबंटित कर दिया गया था और जैसा कि बाद में पता चला, मुश्ताक़ के ख़ानदान को पाकिस्तान के कराची में रिहायश मिल गई थी. लेकिन मुश्ताक़ के हिस्से में क्या आया?
 
ये बात और थी कि या तो मुश्ताक़ भी अपने पूरे ख़ानदान के साथ पाकिस्तान चले जाते या फिर उनका पूरा ख़ानदान यहीं रहता तो हालात कुछ और होते. ये बहस का मुद्दा नहीं है कि मुश्ताक़ का पूरा ख़ानदान पाकिस्तान जाकर अच्छा रहा या भारत में ही अच्छा रहता, मुद्दा ये है कि 12 साल का एक अपरिपक्व लड़का अगर पूरे ख़ानदान से बिछड़ जाए तो उसके दिमाग़ और दिल की कैफ़ियत समझने के लिए कुछ अलग समझदारी की ज़रूरत होगी. 
 
अब मुश्ताक़ के सामने हिमालय से भी बड़ी चुनौती ये थी कि ज़िंदगी को कैसे जिया जाए, जिया भी जाए या नहीं. ये एक ऐसा फ़ैसला था जो किसी के लिए भी मुश्किल था. बल्कि सच कहा जाए तो ये चुनौती मुश्ताक़ के ही सामने नहीं बल्कि उन हज़ारों लोगों के सामने थी जिन्हें सदियों से बसी-बसाई ज़िंदगी को छोड़कर सीमा को लांघना पड़ा था. 12 साल के बच्चे को कौन सहारा देता, वो भी ऐसे माहौल में जहाँ ख़ुद का वजूद बनाए रखना हर किसी के लिए हर दिन की चुनौती थी. वजूद बनाए रखने की इस जद्दोजहद में मुश्ताक़ के सामने दो रास्ते थे, वैसे सच कहें तो एक ही रास्ता बचा था और वो ये कि शिक्षा को जारी रखना तो संभव ही नहीं था, इसलिए रोज़ी-रोटी चलाने के लिए जो भी काम मिला करना शुरू कर दिया. 
 
शुरू में तो उन्हें भी यही उम्मीद थी कि एक दिन वो भी पाकिस्तान जाकर अपने ख़ानदान के साथ बस जाएंगे लेकिन वक़्त ने फिर करवट बदली और उनकी ये ख़्वाहिश पूरी ना हो सकी. वो बताते थे कि वो जब भी पाकिस्तान जाते थे तो उनकी माँ तब तक दरवाज़े पर खड़ी होकर देखती रहती थीं जब तक वो उनकी आँखों से ओझल नहीं हो जाया करते थे. और हर बार यही कसक दिल में रहती थी कि अब न जाने एक दूसरे को फिर देख सकेंगे या नहीं. जब तक माँ-बाप और भाई बहन रहे तो उन्होंने और उनके कुछ बच्चों ने ताल्लुक़ात रखे और आना जाना भी रहा, लेकिन ये सिलसिला ज़्यादा दिनों तक ना चल सका, ख़त भी आने बंद हो गए और फिर तो कभी-कभार टेलीफ़ोन से ही बात हो जाती थी, जो थोड़े समय बाद बंद हो गई.
 
1947 में जब मुश्ताक़ का सामना ज़िंदगी की कठोर हक़ीक़त से हुआ तो 12 साल की उम्र वैसे भी रूमानी ख़यालों में जीने की ही होती है और मुश्ताक़ हुसैन ख़ान भी उर्दू और फ़ारसी के शेर पढ़ने में दिलचस्पी रखते थे जिनमें कुछ फ़लसफ़ाना पुट भी होता था. बाद में ये शेर उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए लेकिन इसी दानिशमंदाना अंदाज़ ने उन्हें एक सच्चा और ईमानदार इंसान बनाया जिसने कभी भी लालच को अपने दिल में नहीं घुसने दिया. हमेशा दूसरों की मदद की और ज़िंदगी भर हमेशा इस बात की ही भरसक कोशिश करते रहे कि अनजाने में भी किसी का रत्ती भर भी नुक़सान ना हो जाए. तालीम के बहुत बड़े हिमायती थे मुश्ताक़ हुसैन ख़ान. ख़ुद तो हालात की सितमज़रीफ़ी की वजह से नहीं पढ़ सके मगर इकलौती बेटी को समाज के तमाम तानों और उलाहनों के बावजूद उच्च शिक्षा दिलाई. लेकिन मरते दम तक किसी का अहसान लेने का क़याल ही उनकी रूह को हिला देता था इसलिए बेटी-दामाद के इंग्लैंड आकर बसने के न्यौते को भी क़बूल नहीं किया. 
 
यूँ तो बात बहुत लंबी हो जाएगी लेकिन असल बात ये है कि जब मुश्ताक़ हुसैन ख़ान की मौत की घड़ियाँ नज़दीक आईं तो वो एक बार फिर से 1947 के दिनों में वापिस चले गए लगते थे. वो सारी वही बातें याद कर रहे थे जो 77 साल पहले पीछे छूट गई थीं. उन्हें पाकिस्तान में बसे और दुनिया छोड़ चुके सारे रिश्तेदार उसी शिद्दत से याद आए और वो घर भी जहाँ उनके सिर्फ़ 12 साल गुज़रे थे लेकिन वो 12 साल बाक़ी 65 साल से अलग थे. ज़माना बहुत आगे बढ़ चुका है, अब तीसरी पीढ़ी परवान चढ़ चुकी है, नई उम्मीदों और मूल्यों के साथ. पुरानी पीढ़ी अपने मूल्यों के साथ भी पुरानी पड़ गई लगती है जहाँ ईमानदारी, भलमनसाहत, दूसरों का भला चाहने और करने की आदत को बेवकूफ़ी क़रार दे दिया गया है. लेकिन मुश्ताक़ हुसैन ख़ान ने ना सिर्फ़ इन मूल्यों को कभी छोड़ा बल्कि अपनी पत्नी और औलाद को भी इन्हें ना छोड़ने की विरासत करके गए हैं. 
 
ये और बात है कि भारत पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व 65 साल पुरानी इस टीस को कभी समझ पाएगा जो मुश्ताक़ हुसैन ख़ान जैसे लाखों-करोड़ों लोगों की रही है जिनमें से ज़्यादातर तो इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं और जो कुछ होंगे, वो भी ज़्यादा दिन इस दुनिया के सूरज की रौशनी नहीं देख सकेंगे. लेकिन एक बड़ा सवाल सभी की आँखों में चमकता रहता है कि 1947 में जो कुछ हुआ क्या उससे इंसानियत का कुछ भला हुआ है. अगर वही एक मात्र समस्या का हल था तो इन 65 वर्षों में अनगिनत लोगों की जानें क्यों गई हैं और अब भी ये सिलसिला रुका नहीं है. मुश्ताक़ हुसैन ख़ान जैसे बुज़ुर्गों की सूनी आँखों में आख़िरी हिचकी तक मौजूद रहे इन सवालों का जवाब किसी के पास हो तो मेहरबानी करके ज़रूर पेश कीजिएगा, बहुत मेहरबानी होगी.

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