सीमा, विश्वविजय की उम्रक़ैद कानून-सम्मत नहीं

इलाहाबाद के अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश (एक्स काडर) सुनील कुमार सिंह ने सीमा आजाद और विश्वविजय को भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने, सरकार के खिलाफ आपराधिक साज़िश रचने और एक प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के रूप में उसके साथ जुड़े होने के आरोप में उम्र क़ैद, दस साल, पांच साल की सज़ा और कुल पचहत्तर हज़ार रूपयों का दंड भरने का आदेश दिया है. सजाएं साथ-साथ चलेंगी, अतः कुल सजा को उम्र क़ैद की ही है.
न्यायाधीश सुनील कुमार सिंह ने सीमा और विश्वविजय को जिन आरोपों का दोषी ठहराया है, वे उनके पास से बरामद दिखाये कुछ संदिग्ध दस्तावेजों पर आधारित हैं. संदिग्ध दस्तावेजों में भाकपा (माओवादी) के विचारों, फौरी कार्यों, उद्देश्यों और कुछ अंदरूनी सांगठनिक मसलों का ज़िक्र है. भाकपा (माओवादी) वह संगठन है जिसे सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी के सिर्फ 7-8 महीने पहले केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था. यह प्रतिबन्ध यू.ए.पी.ए., अर्थात विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 {यथा 21.09.2004 और 31.12.2008 को संशोधित} के अंतर्गत \’आतंकवादी संगठन\’ शीर्षक वाली सूची में शामिल करने के लिए 22 जून 2009 को जारी अधिसूचना के बाद लागू हुआ था.
सवाल यह है कि किसी प्रतिबंधित संगठन के अंदरूनी दस्तावज किसी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के पास पाये जायें, तो क्या इतने ही आधार पर वह उस संगठन से जुड़ा हुआ और उस संगठन से जुड़कर सरकार के विरुद्ध जंग छेड़ने, साजिश रचने या तख्तापलट करने वालों में शामिल माना जा सकता है? सामान्य बुद्धि से भी सोचा जाये, तो जवाब ‘नहीं’ ही होगा.
इसीलिए सीमा और विश्वविजय को ज़बरदस्त माओवादी के रूप में स्थापित करने लिए उत्तर प्रदेश की विशेष पुलिस ने कुमारी मायावती के कार्यकाल में इन्हें 06 फ़रवरी 2010 की सुबह इलाहबाद रेलवे स्टेशन से उठाने के बाद प्रदेश के दूसरे हिस्सों में की गयी कुछ और गिरफ्तारियों का प्रयोग किया. यह भी हो सकता है कि ये दूसरी गिरफ्तारियां सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी से कायम किये जानेवाले मुक़दमे को तदबीर देने के लिए ही की गयी हों.
इन गिरफ्तार व्यक्तियों में आपसी सम्बन्ध दिखाने के लिए पुलिस ने ऐसे दस्तावेज़ बरामद करवाये और बयान दर्ज करवाये जिससे ये सब एक-दूसरे से जुड़े हुए मालूम हों. गोरखपुर में गिरफ्तार बिहार निवासी  श्रीमती हीरामणि मुंडा के नाम पर यह बयान दर्ज करवाया कि सीमा और विश्वविजय भाकपा (माओवादी) के लिए काम करते हैं. सीमा और विश्वविजय के खिलाफ वाद और प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) में यही बयान मूल बात है. हीरामणि मुंडा का यह कथित बयान न तो अभी विधिसंगंत रूप से किसी साक्ष्य के रूप में सिद्ध हुआ है और न ही कहीं से भी यह सिद्ध हुआ कि वह माओवादी पार्टी से जुडी हैं. सुनील कुमार सिंह द्वारा ऐसा मान लेना हीरामणि मुंडा बनाम सरकार के मुक़दमे के औचित्य का ही नकार है. किसी न्यायाधीश और पुलिस के विवेक में कोई फर्क ही न रह जाये, तो ऐसे देश को भगवान ही बचाये.
श्रीमती हीरामणि के तथाकथित बयान को प्रासंगिक बनाने के लिए पुलिस ने एक और चाल चली. सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी, जो कि 6 फ़रवरी 2010 की सुबह हुई थी, रात साढ़े नौ बजे के आसपास दर्ज करायी गयी. सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी का समय और स्थान सिद्ध करने के लिए पुलिस ने न्यायालय में अपने कर्मचारियों के बयानों के अलावा ऐसा एक भी प्रमाण पेश नहीं किया जो संदेह से परे हो. फिर भी सुनील कुमार सिंह ने सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी के बदले हुए समय को सच मान लिया.
सीमा के भाई सीमान्त अदालत में सिद्ध कर चुके थे कि उन्होंने रेलवे का ई-टिकट खरीदा था जिससे सीमा 6 फ़रवरी को, यानी अपनी गिरफ्तारी के दिन रीवा एक्सप्रेस से दिल्ली से इलाहाबाद पहुँची होगी. लेकिन न्यायाधीश महोदय ने इस आधार पर यह मानने से इनकार कर दिया कि सीमा को रीवा एक्सप्रेस से उतरने के बाद और उसे मोपेड से घर ले जाने आये विश्वविजय को तुरंत वहीँ हिरासत में ले लिया गया था. सीमा के मोबाइल से टावर की जो डिटेल्स मिली हैं, वे रीवा एक्सप्रेस के रूट और समय से मेल खाती हैं इस बात पर उन्होंने गौर ही नहीं किया. उलटे अपने पूर्वाग्रहों को उजागर करते हुए अपने आदेश में यह हास्यास्पद बात लिख दी वे जगहें (दिल्ली से इलाहाबाद जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाली जगहें) \’संदिग्ध\’ हैं.
मुक़दमे का एक और ज़रूरी पहलू है सीमा और विश्वविजय की गिरफ्तारी के दो दिन बाद कानपुर के दो अलग-अलग रिहाइशी मकानों से कुल 8 आदमियों की गिरफ्तारी के विषय में पुलिस का दावा. ये आठों व्यक्ति आज तक विचाराधीन हैं. इन पर आरोप चाहे कुछ भी लगे हों, सीमा और विश्वविजय के फैसले के समय कानून की निगाह में इन्हें हर सूरत में बेक़सूर ही मानना होगा. ऐसा न माना जाना विधि के बुनियादी उसूलों की सरेआम अवहेलना है. यह हो सकता है, जैसा कि अक्सर होता भी है, कि कानपुर की गिरफ्तारियां और वहाँ की बरामदगी की पुलिसिया कहानी झूठी सिद्ध हो. क्या इलाहाबाद स्थित सीमा और विश्वविजय के विचारण न्यायालय को इस संभावना पर पल भर के लिए सोचना नहीं चाहिए था?                  
इस सम्भावना पर गौर किये बिना सुनील कुमार सिंह ने पुलिस की सुनियोजित साज़िश के इस परिणाम को बड़ी मासूमियत के साथ मान लिया कि कानपुर में गिरफ्तार आठ लोगों से कथित रूप से बरामद दस्तावेजों तथा सीमा और विश्वविजय से कथित रूप से बरामद दस्तावेजों में समानता है. दस्तावेजों में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है कि सीमा या विश्वविजय का इन दस्तावेजों से या इनमें लिखी किसी बात से कोई सम्बन्ध है.                   

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