राजसत्ता पत्रकारिता से क्यों डर रही है?

लगता है, राजसत्ता के कर्ताधर्ताओं ने लोकतांत्रिक राज्य के चौथे स्तंभ मीडिया को सबक़ सिखाने की ठान रखी है.

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश की पुलिस ने दिल्ली-नोएडा क्षेत्र से तीन मीडिया कर्मियों को गिरफ़्तार किया. उन्हें 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. और एक पत्रकार के ख़िलाफ़ उत्तरप्रदेश में ही एफ़आईआर दर्ज करा दी गई है.

देश के संपादकों की सबसे बड़ी संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया’ ने गिरफ़्तारियों की कड़ी निंदा की है और पुलिस की कार्रवाई को क़ानून का निरकुंश दुरूपयोग क़रार दिया है.

मुख़्तसर से, इन पत्रकारों का अपराध यह है कि इन्होनें महंत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध कथित रूप से ऐसी सामग्री प्रसारित की है जिससे उनके सम्मान को ठेस पहुँचती है.

सामग्री कितनी असम्मानजनक या अशोभनीय है, इसका फ़ैसला तो जांच और कोर्ट करेगा. पर इतना तय है कि राजसत्ता की प्रतिनिधि पुलिस की इस कार्रवाई से प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता ज़रूर ख़तरे में दिखाई दे रही है.

निशाने पर असहमति रखने वाले

बड़े फलक पर सोचें तो नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संभावित ख़तरों से घिरी दिखाई दे रही है.

यह लेखक तेज़ी से उभरते इन ख़तरों को इनकी व्यापकता में देखता है. वास्तव में इन ख़तरों की जड़ें दूर दूर तक फैली हुई हैं, किसी एक प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. अलबत्ता, अब इनका आक्रामक रूप सामने आ रहा है.

भाजपा या एनडीए शासित राज्य में ही ऐसा घट रहा है, यह भी नहीं है. कर्नाटक में कांग्रेस की गठबंधन वाली जनता दल (सेक्युलर) सरकार ने भी मीडिया की आज़ादी के प्रति असहिष्णुता का रवैया दिखलाया है.

मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने तो उन पत्रकारों को खुली धमकी तक दे दी है जो मंत्रियों के ख़िलाफ़ लिखते हैं.

मीडिया-आज़ादी के पर कतरने के लिए क़ानून लाने की बात की जा रही है. मुख्यमंत्री की दलील है कि उनके और मंत्रियों के ख़िलाफ़ अनाप-शनाप लिखा जा रहा है.

इससे पहले मोदी सरकार के प्रथमकाल (2014 -19) के दौरान भाजपा और सरकार से असहमति रखनेवाले पत्रकारों को ‘राष्ट्र विरोधी’ तक कहा गया.

अघोषित आपातकाल

भय, असहनशीलता और हिंसक धमकियों का माहौल पैदा किया गया जिससे कि मीडियाकर्मी स्वतंत्र रूप से काम न कर सकें और हिंदुत्व की विचारधारा से अनुकूलित हो कर ही सोचें -बोलें-लिखें.

प्रतिकूल या प्रतिअनुकूलित दिशा में जानेवालों की नियति है गौरी लंकेश, एमएम कलबुर्गी, गोविन्द पनसारे और नरेंद्र दाभोलकर.

याद होगा, 2015-16 और 17 में असहनशीलता के ख़िलाफ़ आंदोलन भी हुए. लोकतंत्र, संविधान और मानवाधिकार के लिए सड़क पर भी बुद्धिजीवी, कलाकार ,पत्रकार, साहित्यकार उतरे.

पिछले एक अरसे से देश में अघोषित आपात काल की चर्चा चल रही है. किसी से यह बात छुपी हुई नहीं है; प्रेस रहे या चैनल, पत्रकार अदृश्य क्षेत्र के दबावों के भीतर काम करते हैं; प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया और दिल्ली से बाहर प्रतिवाद व प्रतिरोध को लेकर मार्च निकाले गए, सभाएं हुईं. सिविल सोसाइटी के लोग सक्रिय हुए थे.

इमरजेंसी जैसी सेंसरशिप

कुलदीप नैयर, वर्गीज़ कुरियन जैसे दिग्गज संपादक पत्रकार-सड़कों पर उतरे थे. इस लेखक को जून 1975 की इमरजेंसी के दिन याद हैं. सेंसरशिप तब भी थी, लेकिन घोषित थी.

दोस्त-दुश्मन की पहचान साफ़ थी और प्रतिरोध भी उतना ही मुखर व आक्रामक था. इस लेखक के विरुद्ध भी ‘मीसा वारंट’ था.

लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर भी नौकरशाही की ऐसी प्रजाति (पीएन हक्सर, डॉ ब्रह्म देव शर्मा, अनिल बोड़दिया, डी बंदोपाध्याय, शंकरन, अरुणा रॉय, एससी बेहार, केबी सक्सेना, कुमार सुरेश सिंह आदि) भी मौजूद थी जिनकी धमनियों में जन प्रतिबद्धता प्रवाहित रहा करती थी.

इमरजेंसी की तपिश से रक्षा करने में ये लोग किसी न किसी रूप में अपना परोक्ष योगदान किया करते थे.

इमरजेंसी काल के बाद भी यह प्रजाति सक्रिय रही और आदिवासियों, दलितों और कृषि संकट के पक्ष में ‘भारत जन आंदोलन’ जैसा संगठन खड़ा किया था.

बंधक श्रमिकों की हिमायत में मानवाधिकार की आवाज़ उठाई थी; जस्टिस तारकुंडे, कृष्णा अय्यर, एच मुखौटी आदि ने जन प्रतिबद्धता का उदाहरण पेश किया था.

हाशिए पर असली मुद्दे

किसी ने ठीक कहा है कि जब पूंजी का दबदबा, आत्मग्रस्तता या आत्ममोह, धार्मिक आस्था और प्रतीकवाद अपने चरम पर हों तब सामाजिक न्याय व मानव अधिकारों के आंदोलन हाशिये पर जाने लगते हैं या निस्तेज पड़ जाते हैं.

कुछ ऐसा ही दौर है इस समय. चूंकि राज्य का वर्तमान चरित्र उत्तर सत्य राजनीति व मीडिया (पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स एंड मीडिया) के पक्ष में दिखाई देता है, जहाँ ‘सत्य को असत्य, असत्य को सत्य’ में आसानी से रूपांतरित किया जा सकता है.

इसलिए सिविल सोसाइटी को अतिरिक्त रूप से सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है.

याद रखें, प्रतिरोध की ग़ैर-मौजूदगी में समाज के दबे-कुचले लोगों के मानवाधिकार पर राज्य और उसके विभिन्न अंगों के हमले बढ़ जाते हैं; नागरिक अधिकार कुचले जाते हैं; संवैधानिक संस्थायें निष्प्रभावी बनने लगती हैं या उन्हें विवादास्पद बना दिया जाता है.

एशियाई लोकतंत्र विफल

कोई भी हुकूमत रहे, इक़बाल से चलती है. जब इक़बाल ठंडा पड़ने लगता है तो लोकतंत्र की सफलता पर सवालिया निशान लगने लगते हैं, जनता और राज्य के बीच अविश्वास का वातावरण बनने लगता है. लोकतंत्र नाकाम होने लगता है.

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमन्त्री टोनी ब्लेयर के राजनीतिक सलाहकार रोबर्ट कूपर ने 2003 में एशियाई लोकतंत्र के बारे में चेतावनी दी थी कि वहां लोकतंत्र नाकाम होते दिखाई दे रहे हैं.

राष्ट्र के रोज़मर्रे व्यवहार में लोकतंत्र व मौलिक अधिकार झलक नहीं रहे हैं. इसलिए आज का ‘नागरिक धर्म’ है नागरिक चेतना को ज्वलंत रखना और सिविल सोसाइटी को हर स्तर पर सक्रिय होकर नागरिक धर्म की अलख जगाते हुए राजसत्ता पर ‘राजधर्म’ का पालन करने के लिए दबाव बनाये रखना.

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