राजनीति सड़ी नहीं, सड़े लोग हावी हो गए हैं

बिहार के कम्युनिस्ट आंदोलन के मशहूर नेता और भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के संस्थापक कॉमरेड रामनरेश राम के प्रथम स्मृति दिवस के मौके पर भाकपा (माले) की ओर से 26 अक्टूबर को आरा में संकल्प सभा आयोजित किया गया तथा सहार में उनके स्मारक का शिलान्यास किया गया. जनांदोलनों के दौरान फर्जी मुकदमों में फंसाए गए आरा जेल में बंद राजनीतिक बंदियों ने भी का. रामनरेश राम को याद किया.
आरा में आयोजित संकल्प सभा को संबोधित करते हुए भाकपा (माले) के पोलित ब्यूरो सदस्य का. स्वदेश भट्टाचार्य ने कहा कि रामनरेश राम भोजपुर के क्रांतिकारी सपूत थे. एकाध दो बार तो कोई भी अच्छा काम कर लेता है, लेकिन जिंदगी भर तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए अच्छा काम करने का नाम रामनरेश राम हैं. भोजपुर में उन्होंने जिस क्रांति की मशाल जलाई उससे बिहार ही नहीं, बल्कि पूरा देश रोशन हुआ.
संकल्प सभा में स्वदेश भट्टाचार्य ने सामाजिक बदलाव और गरीब-मेहनतकशों की राजनैतिक दावेदारी को कायम करने में रामनरेश राम की ऐतिहासिक भूमिका पर केंद्रित एक पुस्तिका का लोकार्पण भी किया. इसके पहले सुधीर सुमन ने रामनरेश राम की कम्युनिस्ट आंदोलन में निभाई गई बहुआयामी भूमिका की चर्चा की. उनकी स्मृति में एक मिनट का मौन रखा गया तथा उनके चित्र पर पुश्पांजलि अर्पित की गई.
सहार (भोजपुर) प्रखंड मुख्यालय में सोन के किनारे रामनरेश राम के स्मारक का शिलान्यास भी किया गया. शिलान्यास स्वदेश भट्टाचार्य ने किया. गरीब-मेहनतकश समुदाय के स्थानीय निवासी और पार्टी कैडर मैनेजर ठाकुर ने स्मारक के लिए अपनी जमीन दी है. खेत मजदूर सभा के जिला सचिव कामता प्रसाद सिंह ने कहा कि कभी भोजपुर सामंतों का गढ़ था, गरीब-शोषित-उत्पीडि़त जनता को खाट पर बैठने, जूता और अच्छा कपड़ा पहनने तक का अधिकार नहीं था. उनकी औरतों की मान-मर्यादा सुरक्षित नहीं थी. उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था. रामनरेश राम और उनकी पार्टी के साथियों ने इस सामाजिक स्थिति को बदलने का ऐतिहासिक काम किया. नीतीश सरकार के कार्यकाल में सामंती शक्तियां फिर सर उठा रही हैं और उत्पीड़न व दमन के इतिहास को फिर से कायम करना चाहती हैं, जिसके खिलाफ रामनरेश राम की विरासत को लेकर संघर्ष को तेज करना होगा. नीतीश के विकास का मॉडल बिहार के गरीबों, खेत मजदूरों और लाखों मेहतनकश किसानों के हित में नहीं है.
इस मौके पर खेत मजदूर सभा के जिला अध्यक्ष सिद्धनाथ राम ने पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों और आम जनता को संबोधित करते हुए कहा कि 18 साल की उम्र में अंग्रेज भगाओ आंदोलन से रामनरेश राम की जो राजनीतिक यात्रा शुरू हुई थी, उसमें वे कभी विचलित नहीं हुए, कभी भटके नहीं. शोषक-उत्पीड़क जमींदार वर्ग को उन्होंने सबक सिखाया और एक गांव से जो लड़ाई शुरू हुई उसे सैकड़ों गांवों तक फैलाया. उन्होंने मेहनतकश किसानों के सारे जरूरी मुद्दों पर आंदोलन संगठित किए और कम्युनिस्ट आंदोलन को एक नया क्रांतिकारी रास्ता दिया.
स्मारक शिलान्यास के मौके पर आयोजित जनसभा के मुख्य वक्ता अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के राष्ट्रीय महासचिव का. धीरेंद्र झा ने कहा कि रामनरेश राम आजादी मानते थे कि आजादी जब तक गरीबों के घर तक नहीं पहुंचेगी तब तक उसका कोई मतलब नहीं है. आज जहां रोजाना 20 रुपये की आमदनी में करोड़ों लोग जीवन गुजारने को विवश हैं, वहां सवाल उठता है कि केंद्र से लेकर बिहार तक सरकारें जो विकास का शोर मचा रही हैं, उससे किसका विकास हो रहा है? जब देश के करोड़ों मजदूर किसान बदहाल हैं, नौजवान बेरोजगार हैं, तो इसका हिसाब तो लेना ही पड़ेगा कि ये रंगबिरंगी पार्टियों की सरकारें किनका विकास कर रही हैं. यह सिर्फ भाकपा (माले) की राजनीतिक दिशा का मामला नहीं है, बल्कि यह इस देश की बहुत बड़ी आबादी की जिंदगी से जुड़ा बेहद जरूरी सवाल है. महंगाई और भ्रश्टाचार की मार सबसे ज्यादा इसे ही झेलना पड़ रहा है. इसलिए जरूरी यह है कि गरीब-मेहनतकशों की एक बड़ी राजनैतिक गोलबंदी के जरिए मौजूदा सरकारों को बदला जाए, जो एक ओर तो साम्राज्यवादपरस्त नीतियों को बढ़ावा दे रही हैं और पूंजीपतियों के हित में काम कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर समाज में सामंती-सांप्रदायिक-रूढि़वादी शक्तियों को बढ़ावा दे रही हैं. बिहार में जिन सामंती शक्तियों को गरीबों ने अपनी लड़ाइयों के जरिए कमजोर किया था, विज्ञापन के बल पर काम करने वाली नीतीश सरकार उन्हें ही मजबूत कर रही है.
इसके खिलाफ 21 नवंबर को पटना में भाकपा (माले) की रैली में बिहार के गरीब-मेहनतकश लोग, महिला, नौजवान और समाज के लोकतंत्रपसंद नागरिक बुद्धिजीवी भारी संख्या जुटेंगे और नीतीश सरकार के विकास की असलियत का पर्दाफाश करेंगे तथा भ्रष्टाचार और लूट के खिलाफ जमीनी स्तर पर विकास के लिए एक बड़ी जनगोलबंदी के साथ एक नई लड़ाई का शुरुआत करेंगे.
पिछले साल पटना में आयोजित ‘जनाधिकार रैली’ में रामनरेश राम ने ऐसी ही बड़ी जनगोलबंदी और जुझारू जनसंघर्ष का आह्वान किया था.
जनसभा में जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने रामनरेश राम पर केंद्रित जनगीत सुनाए. संचालन रामकिशोर राय ने किया.
आरा जेल में भी डिग्री यादव, सतीश, महेंद्र सिंह और हरेराम के नेतृत्व में करीब 350 कैदियों ने एक स्मृति सभा करके रामनरेश राम की विरासत को नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाने का संकल्प लिया.
ज्ञात हो कि पिछले साल विधानसभा चुनाव के बीच ही ब्रेन हेमरेज से रामनरेश राम का निधन हो गया था. उनकी अंतिम यात्रा में जैसा जनसैलाब उमड़ा था, वह ऐतिहासिक था. वे भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के बेहद जनप्रिय नेता थे. भाकपा (माले) के विस्तार और उसे गरीब-मेहतनकशों की राजनैतिक दावेदारी को मजबूत बनाने के साथ-साथ लोकतंत्र से जुड़े सारे जरूरी मुद्दों पर जुझारू जनांदोलन करने वाली पार्टी बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही.
कॉमरेड रामनरेश रामः जीवन परिचय
सन् 1924 में सहार प्रखंड के एकवारी गांव में एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मे कॉमरेड रामनरेश राम 18-19 साल की उम्र में ही 1942 के आंदोलन में शामिल हो गए थे. भगतसिंह और उनके साथियों के इंकलाबी विचारों और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में चले किसान आंदोलन का उनपर गहरा प्रभाव पड़ा था. वर्ष 1947 में जो आजादी मिली, उससे बहुत सारे क्रांतिकारियों की तरह वे संतुष्ट नहीं थे. उन्हें लग रहा था कि आजादी की घोषणा तो हो गई है, पर यह जमींदार और पूंजीपतियों की ही आजादी है और व्यवस्था के जनविरोधी स्वरूप में कोई बदलाव नहीं आया है. एक ओर कांग्रेसी सत्ता की बंदरबाट में लगे हुए थे, तो दूसरी ओर तेलंगाना किसान विद्रोह हो रहा था.
रामनरेश राम तेलंगाना किसान आंदोलन के समर्थन में और क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के फांसी के खिलाफ कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हुए और देश के करोड़ों शोषित-वंचित-मेहनतकश लोगों के लिए असली आजादी और वास्तविक लोकतंत्र की लड़ाई में आगे बढ़ चले. जनकवि रमाकांत द्विवेदी \\\’रमता\\\’ समेत उस दौर के कई ईमानदार स्वाधीनता सेनानी उनके साथ थे. जब कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित थी, तब रामनरेश राम उसमें शामिल हुए और शाहाबाद जिला कमेटी के सदस्य बनाए गए. उन्हें किसान सभा की जिम्मेवारी मिली. वर्ष 1954 में उन्होंने सोन नहर में पटवन का टैक्स बढ़ा देने के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन संगठित किया.
रामनरेश राम के लिए राजनीति जनता के संसाधनों को लूटकर घर भरने का माध्यम नहीं थी. उन्होंने गरीब-मेहनतकश लोगों की आजादी और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए राजनीति की और उसमें अपना पूरा जीवन लगा दिया. जनता के बुनियादी संघर्षों से वे कभी अलग नहीं हुए. उनकी राजनीति की दिशा गरीब, भूमिहीन खेत मजदूर और मेहनतकश किसानों के बुनियादी जनसंघर्षों के अनुसार तय होती रही. वर्ष 1965 में वे भूस्वामियों के विरोध और साजिशों को धता बताते हुए एक बड़ी जनवादी गोलबंदी के जरिए एकवारी पंचायत के मुखिया बने. भारत के नए लोकतंत्र का हाल यह था कि उनका मुखिया बनना भूस्वामी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. जब 1967 में उन्होंने सीपीएम के उम्मीदवार के बतौर सहार विधानसभा का चुनाव लड़ा तो उन्होंने उनके चुनाव एजेंट जगदीश मास्टर पर जानलेवा हमला किया.
तब तक नक्सलबाड़ी विद्रोह हो चुका था. चारु मजुमदार के नेतृत्व में भाकपा (माले) का निर्माण हो चुका था. लेकिन पश्चिम बंगाल में भीषण दमन और बिखराव के कारण पार्टी धक्के का शिकार थी, लेकिन जैसे ही उस विद्रोह की चिंगारी एकवारी पहुंची तो एक शक्तिशाली सामंतवाद विरोधी आंदोलन फूट पड़ा. 1974 में पार्टी का पुनर्गठन हुआ. 1975 तक जगदीश मास्टर, रामेश्वर यादव, शीला, अग्नि, लहरी, बूटन मुसहर और भाकपा (माले) के दूसरे महासचिव का. सुब्रत दत्त भी शहीद हो गए. रामनरेश राम को पुलिस सूंघती फिरती रही और हर मुठभेड़ के बाद उनकी मौत की खामख्याली पालती रही. लेकिन भूमिगत स्थिति में ही भाकपा (माले) को व्यापक जनाधार वाली पार्टी बनाने का उनका अभियान जारी रहा. उन्हीं के नेतृत्व में माले ने खुले मोर्चे आईपीएफ के जरिए चुनाव में शिरकत की शुरुआत की. उस वक्त उन्होंने कम्युनिस्टों की चुनाव में भागीदारी के सवाल पर एक पुस्तिका भी लिखी. इसके पहले ‘भोजपुर के समतल की लड़ाई’ नाम की एक पुस्तिका भी उन्होंने लिखी थी.
रामनरेश राम हमेशा संघर्ष के सारे रूपों को मिलाते हुए जनता के संघर्ष को संचालित करते रहे. उनकी राजनीति कभी भी हथियारों या धन की आश्रित नहीं रही, हमेशा उसके केंद्र में जनता और उसकी पहलकदमी रही. जातीय दायरे को तोड़ते हुए उन्होंने गरीबों, खेत-मजदूरों, किसानों, नौजवानों और लोकतंत्रपसंद-न्यायपसंद लोगों का एक व्यापक मोर्चा बनाने की कोशिश की. रामनरेश राम ने एक दलित परिवार में जन्म लिया, पर कभी भी दलित-पिछड़ों के नाम पर शासकवर्ग द्वारा संचालित जातिवादी राजनीतिक धाराओं के साथ नहीं गए. उन्होंने जीवन में वर्ग-संघर्ष की राह पकड़ी और हमेशा उस पर कायम रहे. उन्होंने अपने संघर्षों के जरिए बताया कि दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक लोगों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-संघर्ष के ही रास्ते संभव है, उसी के भीतर से निकलकर कुछ लोगों के शासकवर्ग में शामिल हो जाने से मुक्ति संभव नहीं है.
उन्होंने चुनाव को वर्ग-संघर्ष के तौर पर ही लिया. जब 1995 में वे सहार से चुनाव जीत गए, तभी प्रतिक्रिया में शासकवर्ग ने अपने संरक्षण में रणवीर सेना को जन्म दिया. उस वक्त भी अपने अनुभवों को आधार पर उन्होंने कहा कि यह सेना किसी जाति का भी भला नहीं कर सकती, बल्कि जिस जाति के नाम पर बनी है, उसके लिए ही भस्मासुर हो जाएगी. रणवीर सेना ने महिलाओं, बच्चों और वृद्धों तक की हत्या की और भाकपा (माले) को खत्म करने की कोशिश की. लेकिन का. रामनरेश राम के कुशल राजनीतिक निर्देशन में जो चौतरफा लड़ाई लड़ी गई उससे न केवल रणवीर सेना खत्म हुई, बल्कि जिस जाति के नाम पर वह सेना बनी थी, उससे भी वह अलगाव में पड़ गई.
जातीय समीकरण की राजनीति की आड़ में भूस्वामियों, पूंजीपतियों, दबंगों और अपराधियों का हित साधने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए का. रामनरेश राम हमेशा एक चुनौती बने रहे. जब वे अपार जनसमर्थन से विधायक बने तो सत्ता ने उन्हें भूमिगत जमाने से भी ज्यादा खतरनाक समझा. कांग्रेसी राज के पुलिस रिकार्ड में वे मृत घोषित किए जा चुके थे. वर्ष 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने उन पर लादे गए सारे फर्जी मुकदमों को खत्म करने का ऐलान किया था. लेकिन लालू-राबड़ी राज में भी वे मुकदमे खत्म नहीं किए गए, बल्कि नए-नए फर्जी मुकदमे लाद दिए गए. ऐसा ही एक मुकदमा नितीश राज में उनके निधन तक कायम रहा, जबकि पुलिस द्वारा उन्हें उग्रवादी कहे जाने के खिलाफ पूरा विपक्ष उबल पड़ा था. पुलिस ने उन्हें कई बार गिरफ्तार करने की कोशिश की, पर वे कभी उनके हाथ नहीं आए. जैसा माओ ने कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के बारे में कहा था कि जनता के साथ उनका रिश्ता पानी और मछली की तरह होना चाहिए, तो वैसा ही रिश्ता का. रामनरेश राम का भोजपुर की जनता के साथ था. इसी गहरे जुड़ाव के कारण ही उनके खिलाफ की जाने वाली सत्ता और प्रशासन की साजिशें कभी सफल नहीं हो पाईं.
जनता के व्यापक लोकतांत्रिक मुद्दों पर उनके नेतृत्व में भाकपा (माले) ने हमेशा हस्तक्षेप किया. यहां तक कि जब आपातकाल में दूसरी पार्टियों के नेता दमन और गिरफ्तारी से बचने के लिए नेपाल की ओर रुख कर रहे थे, तब सर पर भारी ईनाम के बावजूद वे भोजपुर के गांवों में थे और आपातकाल के खिलाफ उनके साथी गांव-गांव पोस्टर लगा रहे थे. कार्यकर्ता बताते हैं कि उन्होंने शिक्षा और वैचारिक अध्ययन पर भी हमेशा जोर दिया. चुने हुए जनप्रतिनिधि के तौर पर उन्होंने जो भूमिका निभाई, वह किसी भी ईमानदार और जनपक्षधर जनप्रतिनिधि के लिए प्रेरणास्रोत का काम करेगा. आज जबकि मुखिया तक के चुनाव में लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं, तब भी उनके नेतृत्व में एक मुखिया से भी कम खर्च में उनकी पार्टी पूरे जिले में विधान सभा या लोकसभा का चुनाव लड़ती रही.
जनता का मुखिया या जनता का विधायक कैसा होना चाहिए, रामनरेश राम इसके मिसाल थे. विकास योजनाओं में पारदर्शिता और उस पर जननियंत्रण की परंपरा वे हमें दे गए हैं. उन पर कमीशनखोरी या फंड के गबन का आरोप कभी नहीं लगा. उन्होंने सहार विधानसभा के हर गरीब टोले में सामुदायिक भवन और चबूतरे बनवाए. शायद इसके पीछे भी उनकी मंशा सामुदायिकता को मजबूत करना ही था. अनेक ऐसे गांव जो मुख्य सड़कों से कटे हुए उन गावों को मुख्य सड़कों से जोड़ने का काम आजादी के बाद पहली बार उन्होंने किया. विधायक होते हुए भी जनांदोलनों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. उनके नेतृत्व में सहार की जनता ने सड़क और सोन नद में पुल को लेकर पंद्रह दिनों तक प्रखंड कार्यालय पर अनवरत घेरेबंदी की थी, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने सिंचाई की व्यवस्था को दुरुस्त करने पर खास ध्यान दिया. अपने इलाके में सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने में भी उनकी अहम भूमिका रही. केंद्रीय कमेटी और पोलित ब्यरो सदस्य समेत वे भाकपा (माले) की कई उच्चतर जिम्मवारियों में रहे. वे अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के संस्थापक अध्यक्ष थे. वे माले विधायक दल के नेता भी थे.
सदियों में हासिल जनता के सामूहिक ज्ञान और न्याय के लिए होने वाले संघर्षों और परंपराओं के प्रति उनके भीतर बेहद सम्मान था. उन्होंने 1942 में लसाढ़ी में \\\’अंग्रेजों भारत छोड़ो\\\’ आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों की स्मृति में भव्य स्मारक बनवाया. कुंवर सिंह समेत 1857 के महासंग्राम के शहीदों की याद जगदीशपुर में आयोजित ‘बलिदान को सलाम’ कार्य़क्रम के मुख्य उत्प्रेरक वही थे. भगतसिंह की जन्मशती पर आयोजित समारोह में स्वाधीनता सेनानी और भोजपुर किसान आंदोलन के साथी जनकवि रमाकांत रमता द्विवेदी के साथ वे शामिल हुए थे. का. रामनरेश राम सर्वहारा वर्ग की दृढ़ता और उसकी परिवर्तनकारी शक्ति के प्रति आस्था का नाम हैं. भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, कृषि की बदहाली, किसानों की आत्महत्या, मजदूरों की भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी की वाहक पतनशील राजनीति के इस दौर में वे एक ऐसी क्रांतिकारी जनराजनीतिक परंपरा हमें दे गए हैं, जिन पर भोजपुर ही नहीं, पूरे देश की जनता गर्व कर सकती है और उस राह पर चलते हुए परिवर्तन और इंकलाब की उम्मीदों को नई ऊंचाई दे सकती है.

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