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ये तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है

Oct 14, 2011 | रीतेश

मंडल आंदोलन के बाद के दिनों का ये नारा शायद हम भूले नहीं होंगे. ये तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है. पहली झांकी अयोध्या थी जहां हिन्दू चरमपंथियों ने विवादित जमीन पर फैसला आने से पहले ही बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर दिया. मथुरा और काशी में भी मंदिरों के आस-पास मस्जिदों की मौजूदगी इन अलगाववादियों को खटकती है. ये नास्तिक ये भी नहीं समझते कि प्रभु और अल्लाह दोनों एक-दूसरे के आसपास ही खुश हैं और इस खुशी से ही देश में भाई-चारा बना हुआ है.

 

लेकिन संघ और उसके राजनीतिक मुखौटे भाजपा को कट्टर हिन्दुत्व से छुटकारा मिलता नहीं दिख रहा. ये देख लेने के बाद भी कि कट्टर हिन्दुत्व राजनीतिक रूप से लोकसभा में अधिक से अधिक जितनी सीटें दे सकता था, वो ये मुद्दा दे चुका और उन सीटों के बाद भी भाजपा को दूसरे दलों के सहयोग से सरकार बनानी पड़ी थी. मतलब ये कि हिन्दुत्व का संघ परिभाषित मुद्दा हिन्दुओं के ही गले ठीक से नहीं उतर रहा इसलिए बकियों के समर्थन की बात क्या की जाए.

 
सुप्रीम कोर्ट की तरफ से केंद्र सरकार में शामिल लोगों के भ्रष्टाचार पर लगातार टिप्पणी-सुनवाई-निगरानी से बदले माहौल में अन्ना हजारे आम लोगों के गुस्से का प्रतीक बनकर उभरे. अभी के माहौल से लगता है कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस और यूपीए का जाना तय है. इसका एक स्वभाविक मतलब ये है कि भाजपा और एनडीए का आना पक्का है. इसलिए भाजपा और संघ पूरे जोश में है कि बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने ही वाला है. लेकिन उन्हें याद नहीं रहता कि बीएस येदुरप्पा, जनार्दन रेड्डी, रमेश पोखरियाल निशंक, अनंत कुमार पर भी उसी तरह के भ्रष्टाचार के आरोप हैं जिन आरोपों से मनमोहन सिंह की सरकार घिरी हुई है.
 
यहां तक कि जिस 2जी घोटाले ने इस सरकार की सबसे ज्यादा जगहंसाई कराई है उसमें भी भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन का नाम बार-बार आ रहा है. इसलिए कांग्रेस या भाजपा को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि चुनाव से पहले या ठीक बाद कोई तीसरा विकल्प सामने आ जाए.
 
भाजपा के पास सत्ता आती देख लालकृष्ण आडवाणी 2009 में गंवा चुकी दावेदारी फिर से पाने के लिए अचानक संसद में इस बात की घोषणा करते हैं कि वो एक और यात्रा करेंगे जिसका मुद्दा मंदिर या आतंकवाद नहीं बल्कि काला धन और भ्रष्टाचार होगा.
 
ये आडवाणी जी को याद नहीं रहा होगा कि 2009 के चुनाव में काला धन का मुद्दा उन्होंने बड़े जोर-शोर से उठाया था लेकिन वोटरों को उनकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ. कांग्रेस वाले ठीक ही जवाब देते थे उस समय कि जब आप सरकार में थे तो क्यों नहीं ले आए. अगर चुनावी भाषा में कहें तो काला धन मुद्दे पर जो वोट उन्हें मिल सकता था, वो मिल चुका है और उससे सरकार बनती नहीं दिखती.
 
वैसे जानने लायक बात है कि आडवाणी की यात्रा और रामदेव के आंदोलन से पहले देश में अनुमानित तौर पर 40 अरब डॉलर काला धन वापस आ चुका है. कोटक सिक्युरिटीज का ये आंकड़ा 2010-11 का है. ये बताते हैं कि 2010-11 में निर्यात में सरकारी आंकड़ों में 79 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई जबकि बॉम्बे शेयर बाजार में सूचीबद्ध देश की शीर्ष इंजीनियरिंग कंपनियों के निर्यात में इसी दौरान वृद्धि की दर मात्र 11 फीसदी दर्ज की गई है. निर्यात का ये अंतर इन विशेषज्ञों के मुताबिक 40 अरब डॉलर काला धन की वापसी का संकेत है.
 
आडवाणी की यह यात्रा पार्टी के अंदर कई नेताओं को पसंद नहीं आई और संघ को तो बिल्कुल भी नहीं. सबको यही लगा कि ये रिटायरमेंट फेज से अचानक फायरब्रांड क्यों बन रहे हैं. सबको शक है कि आडवाणी 2014 की रेस से हटने को तैयार नहीं हैं और उमा भारती ने ये कहकर इस आशंका को मजबूत किया है कि आडवाणी पीएम पद के लिए सबसे बढ़िया दावेदार हैं. लेकिन आडवाणी की रणनीति अब इस तरह की दिख रही है कि जब 2014 में एनडीए का नेता चुनने का सवाल उठे तो भाजपा की तरफ से दो नाम घटक दलों के सामने रहें, एक तो खुद उनका और दूसरा नरेंद्र मोदी का.
 
यह वही स्थिति होगी जब अटल विहारी वाजपेयी का उदार चेहरा कट्टर आडवाणी पर भारी पड़ा था. आडवाणी पाकिस्तान से लौटने के बाद से खुद को लगातार उदार दिखाने की कोशिश में जुटे हैं. ऐसे में आडवाणी को उम्मीद होगी कि एनडीए के घटक दल मोदी से बचने के लिए उन्हें चुन लेंगे.
 
अपनी छवि बदलने की कोशिश को किसी भी तरह के हिन्दुत्ववादी मुद्दे से बचाने के लिए इस बार आडवाणी 25 सितंबर को हर साल की तरह सोमनाथ नहीं गए. आडवाणी ने दो दशक में कोई 25 सितंबर सोमनाथ दर्शन के बिना नहीं बिताया. हालांकि आडवाणी ने कहा कि चूंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंदिर के दावे को मान लिया है इसलिए सोमनाथ यात्रा का मकसद पूरा हो गया है और उन्होंने इस साल ये दिन किसी और कार्यक्रम में समय दे दिया था इसलिए नहीं गए.
 
हम ये क्यों मान लें कि आडवाणी सोमनाथ सिर्फ इसलिए नहीं गए क्योंकि उन्होंने इस साल 25 सितंबर को किसी और कार्यक्रम में जाने के लिए हामी भर दी थी. ये तो आडवाणी को भी पता रहा होगा कि 25 सितंबर को जिस कार्यक्रम के लिए वो हामी भर रहे हैं वो उनकी 1990 की सोमनाथ यात्रा की शुरुआत का दिन है और इस दिन वो हर साल सोमनाथ ही जाते हैं.
 
आडवाणी 25 सितंबर को सोमनाथ नहीं गए और अपनी जन चेतना यात्रा की शुरुआत के लिए समाजवादी नेता और संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि को चुना. भाजपा के अंदर कई नेता चाहते थे कि यात्रा की शुरुआत सोमनाथ से हो लेकिन ये आडवाणी की उन कोशिशों पर वज्रपात होता जो वो खुद को उदार बनाने के लिए कर रहे हैं. आडवाणी को इस बात की भनक है कि नीतीश कुमार भी 2014 की रेस के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं इसलिए भी बिहार से यात्रा की शुरुआत उनके लिए जरूरी थी.
 
आप कह सकते हैं कि वो नीतीश के हाथों अपनी यात्रा की रवानगी कराके एक हद तक सफल भी रहे. लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा शुरू हो चुकी है कि नीतीश लोकसभा के चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ बिहार में एक गठबंधन बनाएंगे जो तीसरे विकल्प का हिस्सा होगा और शायद नीतीश उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे. ऐसे में नीतीश बिहार में कमल का फूल तो मुरझा ही सकते हैं.
 
आडवाणी ने सोमनाथ से दूरी बनाई या यूं कहिए कि अपनी राजनीति को सोमनाथ से आगे ले जाने की कोशिश की लेकिन पार्टी और संघ ने अपने पुराने नारे अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है को याद रखते हुए उत्तर प्रदेश में दो रथयात्राओं की घोषणा कर दी. एक रथयात्रा काशी से और दूसरी मथुरा से रवाना हो चुकी है जो 17 नवंबर को अयोध्या में खत्म होगी.
 
पार्टी बिना कहे आडवाणी से कह रही है कि आप चाहें जो कर लें, हम अपना चोला नहीं बदलेंगे. हालांकि मथुरा और काशी से निकल रही यात्रा के एजेंडे पर कोई मंदिर या मस्जिद नहीं है लेकिन राजनीति तो संकेतों की भाषा से ही चलती है. हिन्दुत्व पर वोट करने वालों से भाजपा खामोशी से कह रही है कि आडवाणी भूल सकते हैं लेकिन हम न तो अयोध्या को भूलेंगे, न मथुरा को भूलेंगे और न काशी को.
 
अयोध्या, मथुरा और काशी सत्ता में भाजपा की वापसी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं और भाजपा आडवाणी की दावेदारी में सबसे बड़ा रोड़ा. आडवाणी की उम्मीद पार्टी से ज्यादा एनडीए के घटक दलों से है जो भाजपा को उन्हें चुनने के लिए मजबूर कर सकें. और ऐसे में नीतीश कुमार किंग बनेंगे या किंगमेकर, आडवाणी के लिए आने वाले दिनों का सबसे बड़ा सवाल यही है.

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