“मास्टर जी” के डंडे से होगा हॉकी का भला..?

आजकल भारतीय हॉकी की फिर से जिंदा करने के लिए केन्द्रीय खेल मंत्री अजय माकन अपना पूरा दम खम लगा रहे हैं. उन्होंने हॉकी इंडिया और आईएचएफ को आपसी समझौते के लिए अल्टीमेटम दे दिया ताकि नया हॉकी इंडिया का बन सके.

देश का हरेक नागरिक राष्ट्रीय खेल को एक बार फिर से ऊंचाईयों पर देखना चाहता है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या खेल मंत्री के नए प्रयासों से वाकई देश की हॉकी में सुधार हो पाएगा. या फिर ये भी मास्टर जी के डंडे जैसा ही होगा. यानी सरकार के डर से हॉकी इंडिया और आईएचएफ एक तो हो जाएं लेकिन दोनों संघों के ऊपरी तौर पर एक हुए लोग अपनी बपौती बचाने के लिए अंदर ही अंदर देश की हॉकी का कबाड़ा करने में जुटे रहें.
ऐसे सवाल जेहन में इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि मौजूदा हॉकी संस्थाओं में कोई भी बड़ा हॉकी खिलाड़ी नहीं है. यानी अगर खेल मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित हॉकी इंडिया का गठन हो जाएगा तो भी सवाल तो जस के तस ही रहेंगे कि क्या हॉकी इंडिया में शामिल लोग देश के हॉ़की का भला करेंगे. क्योंकि अभीतक का इतिहास तो कुछ और ही कहानी बयां करता है.
सरकार की प्रस्तावित नीति के अनुसार एकीकृत संस्था का नाम हॉकी इंडिया होगा जो देश में हॉकी के संचालन के लिए एकमात्र राष्ट्रीय खेल महासंघ के रूप में काम करेगी. अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ द्वारा हॉकी इंडिया को मान्यता प्राप्त होने के कारण इसी नाम को बरकरार रखने का प्रस्ताव किया गया है. इसके तहत आईएचएफ के पूर्व अध्यक्ष और सलाहकार केपीएस गिल को हॉकी इंडिया का आजीवन संरक्षक बनाया जाएगा. गिल साहब की कार्यप्रणाली पर पहले भी सवाल उठे हैं. वो खेल और खिलाड़ियों को डंडे से हांकते रहे हैं. उनपर तानाशाह रवैया का आरोप लगता रहा है. उनके लिए दूसरे को सोच कोई मायने नहीं होता. नई हॉकी इंडिया में होने वाला एकमात्र उपाध्यक्ष का पद भी आईएचएफ के खाते में जाएगा.
लेकिन मौजूदा हॉकी इंडिया के महासचिव नरेन्द्र बत्रा इस प्रस्ताव को मानने के पक्ष में नहीं दिख रहे हैं. और अगर ये एक हो भी गए तो इस बात की गारंटी नहीं है कि खेल मंत्री के विश्वसनीय पहले के बाद भी देश में हॉकी का भला हो ही जाए.
पूर्व ओलंपियन परगट सिंह ने देश में हॉकी की मरणासन्न दशा के खिलाफ अनशन करने की भी धमकी दी है. कई अन्य पूर्व खिलाड़ियों ने भी देश की हॉकी की दुर्दशा पर आंसू बहाए हैं.
बीजिंग ओलंपिक में पहली बार भारत हॉकी स्पर्धा में क्वालीफाई नहीं कर पाया था और अभी जैसी उसकी स्थिति है उसमें उसके लंदन ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करना भी मुश्किल लग रहा है.
सवाल आज भी वहीं के वहीं है कि क्या देश में हॉकी खिलाड़ियों के प्रोत्साहन और उन्हें सामने लाने के लिए सरकार के पास क्या कोई ठोस योजना है. शायद नहीं. आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि भारत के पास रिजर्व खिलाड़ियों का अकाल है. जूनियर खिलाड़ी में दिवाकर राम का नाम छोड़कर कोई भी बड़ा खिलाड़ी याद नहीं आता है जिससे उम्मीद लगाई जाए कि सीनियर खिलाड़ियों को तो जिस तरह से ताश के पत्तों की तरह फेटा और निकाला जाता है उससे उनका मनोबल इस करद प्रभावित होता है कि उससे बेहतर प्रदर्शन करने का भरोसा नहीं जाग पाता है.
दरअसल अभी भारतीय हॉकी की दिशा और दशा पाकिस्तान की क्रिकेट टीम की तरह हैं. यहां भी थोक के भाव से कप्तान बदल दिए जा रहे हैं और खिलाड़ियों को गुटबाजी के आधार पर टीम मे जगह दी जा रही है. विश्व हॉकी का परिदृश्य आज बदल चुका है. आज तेज हॉकी और चपल खिलाड़ियों का जमाना है. अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ ने भी भारतीय हॉकी को जीवित करने की बात कई बार कह चुका है. लेकिन कोई ठोस पहल नहीं हो पा रही है.
ऐसे में भला देश की हॉकी का भला कैसे होगा. हॉकी में पूरा सिस्टम में सड़ चुका है. अगर हमें अपने स्वर्णिम दिनों में लौटना है तो एक व्यापक योजना पर काम करना होगा और उसके परिणाम के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा.

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