मार्क्सवादी दर्शन के बारे में

मार्क्सवादी दर्शन को आम तौर पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है. इसका मतलब समझने के लिए थोड़ा उस समय की परिस्थिति को देखना होगा. मार्क्स जर्मनी के रहनेवाले थे और उस समय जर्मनी दार्शनिक सोच विचार का गढ़ बना हुआ था खासकर नौजवानों में उस समय हेगेल नाम के दार्शनिक का फ़ैशन था . वे न सिर्फ़ जर्मनी बल्कि दुनिया के बड़े दार्शनिक थे. हेगेल का महत्व बताते हुए एंगेल्स ने लिखा ‘हेगलवादी दर्शन का असली महत्व और उसका क्रांतिकारी स्वरूप—इसी बात में निहित था कि उसने मानव चिंतन और कृत्यों की सारी उपज की अंतिमता पर प्राणघातक प्रहार किया था .’ नतीजा कि तमाम नए लोग इनके विचारों की ओर आकर्षित हुए. इन्हीं नौजवानों में मार्क्स भी शामिल थे. लेकिन मार्क्स ने बाकी सबसे अलग राह अपनाई. शुरू के ही दिनों में उन्होंने एक टिप्पणी में इसकी झलक दिखलाई जब उन्होंने लिखा ‘दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से विश्व की केवल व्याख्या की है लेकिन प्रश्न विश्व को बदलने का है.’ बात यह नहीं कि मार्क्सवाद विश्व की व्याख्या करता ही नहीं बल्कि उसकी व्याख्या का उद्देश्य दुनिया को बदलना होता है.

इस टिप्पणी में उन्होंने अपना काम तय करने के साथ यह भी बताया कि दर्शन है क्या. दर्शन आम तौर पर मनुष्य, संसार और ईश्वर के आपसी रिश्तों की व्याख्या करने की कोशिश होता है. यह इस दुनिया में मनुष्य की स्थिति को समझने की कोशिश से पैदा हुआ है. आधुनिक काल में दर्शन के एक बड़े सवाल को पेश करते हुए एंगेल्स ने लिखा है ‘यह प्रश्न कि आत्मा और प्रकृति में कौन प्राथमिक है – इस तीक्ष्ण रूप में प्रस्तुत किया गयाः क्या ईश्वर ने संसार का सृजन किया है या संसार अनंत काल से मौजूद है? दार्शनिकों ने इस प्रश्न के जो उत्तर दिए उन्होंने उनको दो बड़े खेमों में बाँट दिया. जिन्होंने आत्मा को प्रकृति के मुकाबले में प्राथमिकता दी—उनका अपना अलग भाववादी शिविर बन गया. दूसरे जिन्होंने प्रकृति की प्राथमिकता मानी वे भौतिकवाद की विभिन्न शाखाओं में शामिल हुए.’
उन्होंने द्वंद्ववाद की विकास यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा ‘जब हम समग्र प्रकृति या मानवजाति के इतिहास पर या अपने मन की प्रक्रियाओं पर विचार करते हैं तब हमें पहले क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, संबंधों, विभिन्न तत्वों के योग और संयोजन से बना हुआ एक जाल सा दिखाई देता है जो कहीं खत्म नहीं होता, जिसमें कोई वस्तु स्थिर नहीं रहती, जो जहाँ जैसा था वह वहाँ वैसा नहीं रहता, जिसमें हर वस्तु गतिशील है, परिवर्तनशील है, हर वस्तु का निर्माण होता है और नाश होता है. इस प्रकार हम इस चित्र को पहले समग्र रूप में देखते हैं, उसके अलग अलग हिस्से हमारी नजर में नहीं पड़ते, वे न्यूनाधिक पृष्ठभूमि में ही रहते हैं. हम गति, संक्रमण और परस्पर संबंधों को देखते हैं, किंतु जिन वस्तुओं की यह गति है, ये योग और संबंध हैं, हम उन्हें नहीं देख पाते. विश्व की यह धारणा आदिम और भोली भाली है.’ तो यह हुआ द्वंद्ववाद का आदिम स्वरूप.
इसकी कमी यह थी कि ‘यह धारणा कुल मिलाकर दृश्य जगत के चित्र के सामान्य स्वरूप को तो सही सही व्यक्त करती है लेकिन जिन तफ़सीलों से यह चित्र बना है उनकी व्याख्या के लिए पर्याप्त नहीं है.’ इसी कमी के चलते चिंतन में अधिभूतवाद का जन्म हुआ जिसकी विशेषता थी कि वह ‘वस्तु और वस्तुओं के मानस चित्र अर्थात विचार’ को ‘एक दूसरे से अलग करके और एक के बाद एक देखता है.’ लेकिन यह चिंतन प्रणाली ‘एकांगी, संकुचित , अमूर्त हो जाती है—अलग अलग वस्तुओं पर विचार करते समय अधिभूतवादी उनके परस्पर संबंधों को भूल जाता है, उनके अस्तित्व पर विचार करते समय वह उस अस्तित्व के आरंभ और अंत को भूल जाता है, वह उन्हें विराम स्थिति में देखता है, लेकिन उनकी गति को भूल जाता है.’ इसके बाद द्वंद्ववाद का अगला महत्वपूर्ण विकास हेगेल के दर्शन में दिखाई पड़ता है. ‘इस प्रणाली में- और यही इसकी बहुत बड़ी खूबी है- यह पूरा जगत-प्राकृतिक, ऐतिहासिक तथा बौद्धिक जगत- पहली बार एक प्रक्रिया के रूप में अर्थात सतत प्रवाह, गति, परिवर्तन, रूपांतरण तथा विकास की अवस्था में चित्रित किया गया है और साथ ही साथ उस आंतरिक संबंध को, उस सूत्र को पकड़ने की कोशिश की गई है जिससे इस समस्त गति और विकास को एक क्रमबद्ध व्यवस्था का रूप मिलता है.’ लेकिन हेगेल भाववादी थे. उनके दर्शन की इस कमी के चलते ‘दार्शनिकों का झुकाव फिर भौतिकवाद की ओर हुआ लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि यह भौतिकवाद अठारहवीं सदी के अधिभूतवादी, सर्वथा यांत्रिक भौतिकवाद से भिन्न था. – आधुनिक भौतिकवाद की दृष्टि में – इतिहास मानवजाति के विकास की एक प्रक्रिया है और उसका लक्ष्य है इस विकास के नियमों का पता लगाना. – आधुनिक भौतिकवाद मूलतः द्वंद्वात्मक है.’
         
एंगेल्स ने द्वंद्ववाद को परिभाषित करते हुए लिखा ‘द्वंद्वात्मक दर्शन के लिए कोई भी वस्तु अंतिम, निरपेक्ष और पुण्य नहीं है. वह हर चीज में और हर चीज का परिवर्तनशील गुण प्रदर्शित करता है उसके समक्ष निम्नावस्था से ऊपर की ओर उठते हुए अंतहीन विकासक्रम, उत्पत्ति और विनाश की निरंतर प्रक्रिया के अलावा और कोई दूसरी चीज टिक नहीं सकती.’ दूसरी विशेषता का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि द्वंद्ववाद ‘दुनिया को पहले से ही मौजूद वस्तुओं के समुच्चय के रूप में नहीं, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में ग्रहण’ करता है ‘जिसमें स्थायी लगने वाली वस्तुएँ ही नहीं बल्कि उसी तरह मानव मस्तिष्क में उनके मानसिक बिंब यानी धारणाएँ भी लगातार पैदा और खत्म होती रहती हैं–’. द्वंद्ववाद का उलटा अधिभूतवाद है जो सबसे ज्यादा एकांगीपन में व्यक्त होता है इसलिए द्वंद्ववाद की एक और विशेषता चीजों को उनकी समग्रता में देखना है. यहाँ इस बात को साफ करना जरूरी है कि यह पद्धति बहुत पुरानी है क्योंकि प्रकृति में विभिन्न वस्तुएँ और मनुष्य के दिमाग में विचार इसी रूप में मौजूद होते हैं. लेकिन इस पुराने द्वंद्ववाद से मार्क्सवाद का अंतर भौतिकवाद को इससे जोड़ देने से पैदा हुआ. भौतिकवाद भी पहले से ही मौजूद था लेकिन द्वंद्ववाद के साथ मिलकर यह एक नए विश्व दृष्टिकोण का रूप ले बैठा.
तो ऊपर की बातों से स्पष्ट होता है कि द्वंद्वात्मकता यानी लगातार विकास और कोई भी चीज अंतिम नहीं. भौतिकवाद यानी आत्मा के मुकाबले प्रकृति को प्राथमिकता देना. इस तरह दोनों को मिलाकर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है. द्वंद्व शब्द से ही स्पष्ट है कि इसके मुताबिक किन्हीं दो चीजों के बीच टकराव होता है. टकराव तभी होगा जब ये दोनों चीजें एक दूसरे से अलग हों लेकिन एक ही जगह मौजूद हों. इसे ही ‘विपरीतों की एकता’ या ‘अंतर्विरोध’ भी कहा जाता है. माओ ने लिखा ‘वस्तुओं में अंतर्विरोध का नियम, यानी विपरीत तत्वों की एकता का नियम, भौतिकवादी द्वंद्ववाद का सबसे बुनियादी नियम है.’ लेनिन ने इसे ही द्वंद्ववाद का सार माना है.
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को प्रकृति और मानव चिंतन में तो देखा गया था लेकिन मार्क्स ने इसे समाज के इतिहास पर लागू किया जिसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहते हैं इसके सिलसिले में हम उनकी एक और रचना में व्यक्त उनकी चिंतन पद्धति को देखेंगे. सामाजिक इतिहास के सिलसिले में मार्क्स एंगेल्स की किताब ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ का उल्लेख जरूरी है. उसकी पहली पंक्ति ही सामाजिक इतिहास में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि के प्रयोग की मिसाल है ‘अभी तक का आविर्भूत समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है.’ वर्ग संघर्ष का अर्थ ही हुआ परस्पर विरोधी दो मानव समूहों का एक दूसरे के साथ रहना और एक दूसरे के साथ संघर्षरत अवस्था में होना. इसी को मार्क्सवाद सामाजिक विकास का प्रमुख कारण मानता है.
माओ ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘अंतर्विरोध के बारे में’ में विस्तार से और खूबसूरती के साथ द्वंद्ववाद के कुछ सूत्रों पर चर्चा की है. उनका कहना है ‘भौतिकवादी द्वंद्ववाद के विश्व दृष्टिकोण का कहना है कि किसी वस्तु के विकास को समझने के लिए उसका अध्ययन भीतर से, अन्य वस्तुओं के साथ उस वस्तु के संबंध से किया जाना चाहिए ; दूसरे शब्दों में वस्तुओं के विकास को उनकी आंतरिक और आवश्यक आत्म गति के रूप में देखना चाहिए, और यह कि प्रत्येक गतिमान वस्तु को और उसके इर्द गिर्द की वस्तुओं को परस्पर संबंधित तथा एक दूसरे को प्रभावित करती हुई वस्तुओं के रूप में देखना चाहिए. किसी वस्तु के विकास का मूल कारण उसके बाहर नहीं बल्कि उसके भीतर होता है ; उसके अंदरूनी अंतर्विरोध में निहित होता है. यह अंदरूनी अंतर्विरोध हर वस्तु में निहित होता है तथा इसीलिए हर वस्तु गतिमान और विकासशील होती है. किसी वस्तु के भीतर मौजूद अंतर्विरोध ही उसके विकास का मूल कारण होता है जबकि उसके और अन्य वस्तुओं के बीच के अंतर्संबंध और अंतर्प्रभाव उसके विकास के गौण कारण होते हैं.’ फिर वे खुद ही सवाल उठाते हैं. ‘क्या भौतिकवादी द्वंद्ववाद बाह्य कारणों की भूमिका को नहीं मानता?’ उत्तर देते हुए वे कहते हैं ‘भौतिकवादी द्वंद्ववाद का मत है कि बाह्य कारण परिवर्तन के लिए महज परिस्थिति होते हैं जबकि आंतरिक कारण परिवर्तन का आधार होते हैं तथा बाह्य कारण आंतरिक कारणों के जरिए ही क्रियाशील होते हैं.’ आगे वे अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता की चर्चा करते हुए बताते हैं ‘अंतर्विरोध सार्वभौमिक और निरपेक्ष होता है, वह सभी वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया में मौजूद रहता है और सभी प्रक्रियाओं में शुरू से अंत तक बना रहता है.’ कोई नई प्रक्रिया पैदा कैसे होती है ? इसका वर्णन करते हुए वे बताते हैं ‘जब कोई नई एकता तथा उसके संघटक विपरीत तत्व किसी पुरानी एकता और उसके संघटक विपरीत तत्वों का स्थान लेते हैं तो पुरानी प्रक्रिया के स्थान पर एक नई प्रक्रिया का उदय होता है. पुरानी प्रक्रिया का अंत हो जाता है और नई प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है. इस नई प्रक्रिया में नए अंतर्विरोध होते हैं और उसके अपने अंतर्विरोधों के विकास का इतिहास शुरू हो जाता है.’ अंतर्विरोधों की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता पर विचार करने के बाद वे इनकी विशिष्टता पर विचार करते हैं क्योंकि ये दोनों ही मिलकर अंतर्विरोध की पूरी तस्वीर बनाते हैं. इन दोनों का आपसी रिश्ता बताते हुए वे लिखते हैं ‘इसमें संदेह नहीं कि अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता को समझे बिना हम वस्तुओं की गति, वस्तुओं के विकास के सार्वभौमिक कारण या सार्वभौमिक आधार का किसी तरह पता नहीं लगा सकते; लेकिन अंतर्विरोध की विशिष्टता का अध्ययन किए बिना हम किसी वस्तु की उस मूलवस्तु का किसी तरह पता नहीं लगा सकते जो उस वस्तु को अन्य वस्तुओं से भिन्न बना देती है -.‘ इसका मकसद यह है कि ‘भिन्न भिन्न अंतर्विरोधों को हल करने के लिए भिन्न भिन्न तरीकों को इस्तेमाल करने का उसूल एक ऐसा उसूल है जिसका पालन मार्क्सवादी लेनिनवादियों को सख्ती से करना चाहिए.’
इसे ही वे लेनिन का ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस रूप में विश्लेषण’ कहते हैं. लेकिन एक विशेष स्थिति का जिक्र भी माओ करते हैं जब आम तौर पर लागू होने वाला जोर बदल जाता है और यह मार्क्सवाद तथा कम्युनिस्ट कार्यनीति की खासियत है कि वह एक ही धारणा से चिपकी नहीं रहती बल्कि स्थिति में आने वाले बदलावों के मुताबिक अपनी कार्यनीति भी बदल लेती है. माओ कहते हैं कि यह सोचना सही नहीं होगा कि ‘उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच के अंतर्विरोध में उत्पादक शक्तियाँ प्रधान पहलू हैं ; सिद्धांत और व्यवहार के बीच के अंतर्विरोध में व्यवहार प्रधान पहलू है ; आर्थिक आधार और ऊपरी ढाँचे के बीच के अंतर्विरोध में आर्थिक आधार प्रधान पहलू है ; और इनकी अपनी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होता.
यह धारणा एक यांत्रिक भौतिकवादी धारणा है, द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नहीं. यह सच है कि उत्पादक शक्तियाँ, व्यवहार और आर्थिक आधार आम तौर पर प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करते हैं ; जो कोई इस बात से इन्कार करता है वह भौतिकवादी नहीं है. लेकिन इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि एक विशेष परिस्थिति में उत्पादन संबंध, सिद्धांत और ऊपरी ढाँचे जैसे पहलू भी प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करते है .’ इसका उदाहरण देते हुए वे कहते हैं ‘जब उत्पादन संबंधों को बदले बिना उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं हो सकता, तब उत्पादन संबंधों में परिवर्तन ही प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका अदा करता है. जैसा कि लेनिन ने कहा था “बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता”; ऐसी स्थिति में क्रांतिकारी सिद्धांत की रचना और उसके प्रतिपादन की ही प्रधान और निर्णयात्मक भूमिका होती है. – जब ऊपरी ढाँचा (राजनीति, संस्कृति आदि) आर्थिक आधार के विकास को अवरुद्ध करता है, तब राजनीतिक और सांस्कृतिक सुधार प्रधान और निर्णयात्मक तत्व बन जाते हैं. जहाँ हम यह मानते हैं कि इतिहास के आम विकास के दौरान भौतिक स्थिति ही मानसिक स्थिति का निर्णय करती है तथा सामाजिक अस्तित्व ही सामाजिक चेतना का निर्णय करता है, वहाँ हम यह भी मानते हैं और हमें ऐसा अवश्य मान लेना चाहिए कि मानसिक स्थिति की भौतक सथिति पर, सामाजिक चेतना की सामाजिक अस्तित्व पर तथा ऊपरी ढाँचे की आर्थिक आधार पर भी प्रतिक्रिया होती है. यह मान्यता भौतिकवाद के खिलाफ़ नहीं है ; इसके विपरीत यह यांत्रिक भौतिकवाद से बच जाती है और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर दृढ़ता से कायम रहती है.’
अपनी बात का समाहार करते हुए माओ ने लिखा ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दृष्टिकोण के अनुसार अंतर्विरोध वस्तुगत पदार्थों की और मनोगत चिंतन की सभी प्रक्रियाओं में मौजूद होता है और इन सभी प्रक्रियाओं में शुरू से अंत तक बना रहता है ; यही अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता है. प्रत्येक अंतर्विरोध और उसके प्रत्येक पहलू की अपनी अपनी विशिष्टताएँ होती हैं ; यही अंतर्विरोध की विशिष्टता और सापेक्षता है. एक विशेष परिस्थिति में विपरीत तत्वों में एकरूपता होती है और इसलिए वे एक ही इकाई में सह अस्तित्व की स्थिति में रह सकते हैं तथा एक दूसरे में बदल सकते हैं ; यह भी अंतर्विरोध की विशिष्टता और सापेक्षता है. किंतु विपरीत तत्वों के बीच संघर्ष लगातार चलता रहता है ; यह संघर्ष तब भी चलता रहता है जबकि विपरीत तत्व सह अस्तित्व की स्थिति में रहते हैं और तब भी जबकि वे एक दूसरे में रूपांतरित होते हैं और खासकर जब उनका एक दूसरे में रूपांतर हो रहा होता है उस समय यह संघर्ष और ज्यादा स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है ; यह भी अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता ही है. अंतर्विरोध की विशिष्टता और सापेक्षता का अध्ययन करते समय हमें प्रधान अंतर्विरोध तथा अप्रधान अंतर्विरोधों के फ़र्क को तथा अंतर्विरोध के प्रधान पहलू और अप्रधान पहलू के फ़र्क को ध्यान में रखना चाहिए ; अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता और अंतर्विरोध में निहित विपरीत तत्वों के संघर्ष का अध्ययन करते समय हमें संघर्ष के विभिन्न रूपों के भेद को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा हम गलतियाँ कर बैठेंगे.’  
       
अपनी चिंतन पद्धति को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने लिखा है ‘जिस सामान्य निष्कर्ष पर मैं पहुँचा और जो एक बार प्राप्त हो जाने के बाद मेरे अध्ययन का पथ प्रदर्शक सूत्र बन गया उसे संक्षेप में इन शब्दों में कहा जा सकता है . अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित संबंधों में बँधते हैं जो अपरिहार्य और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं. उत्पादन के ये संबंध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं. इन उत्पादन संबंधों का कुल जोड़ ही समाज का आर्थिक ढाँचा है- वह असली बुनियाद है जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं. भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है. मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि उलटे उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है. अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँचकर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन संबंधों से या- उसी चीज को कानूनी भाषा में यों कहा जा सकता है- उन संपत्ति संबंधों से टकराती हैं जिनके अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती हैं. ये संबंध उत्पादन शक्तियों के के विकास के अनुरूप न रहकर उनके लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं. तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है. आर्थिक बुनियाद बदलने के साथ समस्त ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है.’ इन दोनों के बीच अंतर बताते हुए ऊपरी ढाँचे का महत्व भी मार्क्स रेखांकित करते हैं ‘एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपांतरण है जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है.
दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी या दार्शनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं जिनके दायरे में मनुष्य इस टक्कर के बारे में सचेत होते हैं और उससे निपटते हैं.’ यहीं हम यह भी समझ सकते हैं कि आर्थिक सवालों के लिए होने वाले संघर्ष में राजनीति की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण क्यों हो जाती है. आगे वे इस सूत्र को ऐतिहासिक बदलाव की प्रक्रिया से जोड़ते हुए कहते हैं ‘कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती जब तक उसके अंदर तमाम उत्पादन शक्तियाँ जिनके लिए उसमें जगह है विकसित नहीं हो जातीं और नए उच्चतर उत्पादन संबंधों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उनके अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के ही गर्भ में पुष्ट हो चुकतीं.’ इसी बात को थोड़ा विस्तार से समझाते जुए एंगेल्स ने लिखा ‘इतिहास की भौतिकवादी धारणा का प्रस्थान विंदु यह प्रस्थापना है कि मनुष्य के पोषण के लिए आवश्यक साधनों का उत्पादन और उत्पादन के बाद उत्पादित वस्तुओं का विनिमय प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का आधार है— इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक क्रांतियों के अंतिम कारण मनुष्य के मस्तिष्क में नहीं—बल्कि उत्पादन तथा विनिमय प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों में निहित हैं. उनका पता प्रत्येक युग के दर्शन में नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था में लगाया जाना चाहिए.’ इसी आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने पूँजीवाद अपने बारे में जो कहता है उसके आधार पर नहीं बल्कि सचमुच मौजूद स्थितियों के विश्लेषण के आधार पर उसमें निहित अंतर्विरोधों का पता लगाया और सर्हावरा क्रांति के जरिए उसके विनाश और समाजवाद की स्थापना का सिद्धांत प्रस्तुत किया .
इस लेख में मार्क्स और एंगेल्स की किताब ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ के अलावा मार्क्स की ‘फ़ायरबाख पर टिप्पणियाँ’ और ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान’ की भूमिका, एंगेल्स की ‘लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अंत’ और ‘समाजवाद : काल्पनिक और वैज्ञानिक’ तथा माओ के लेख ‘अंतर्विरोध के बारे में’ से मदद ली गई है.

Recent Posts

  • Featured

What Makes The Indian Women’s Cricket World Cup Win Epochal

For fans and followers of women’s cricket, November 2 – the day the ICC World Cup finals were held in…

3 hours ago
  • Featured

Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis

Caste-based reservation is back on India’s political landscape. Some national political parties are clamouring for quotas for students seeking entry…

5 hours ago
  • Featured

‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’

In an election rally in Bihar's Aurangabad on November 4, Congress leader Rahul Gandhi launched a blistering assault on Prime…

22 hours ago
  • Featured

How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach

Dengue is no longer confined to tropical climates and is expanding to other regions. Latest research shows that as global…

1 day ago
  • Featured

India’s Tryst With Strategic Experimentation

On Monday, Prime Minister Narendra Modi launched a Rs 1 lakh crore (US $1.13 billion) Research, Development and Innovation fund…

1 day ago
  • Featured

‘Umar Khalid Is Completely Innocent, Victim Of Grave Injustice’

In a bold Facebook post that has ignited nationwide debate, senior Congress leader and former Madhya Pradesh Chief Minister Digvijaya…

2 days ago

This website uses cookies.