मानेसर: मजदूर विरोधी नीति का त्रासद मध्यांतर

देश की अर्थव्यवस्था जिस राह पर चल निकली है वहां ऐसी त्रासदी कोई नई बात नहीं है. यह सचमुच त्रासदी है. यह मजदूर विरोधी नीति पर चलने की त्रासदी है. मारुति के मानेसर प्लांट में 18 जुलाई को फैक्टरी के भीतर हुई झड़प व आगजानी में महाप्रबंधक अवनीश कुमार देव की जलकर मर जाने की घटना उस नीति का त्रासद परिणाम है जिसके तहत मजदूरों को हर हाल में पूंजीपति वर्ग कुचल देने के लिए आमादा था. ऐसी त्रासद घटना दिल्ली व आसपास में होती रही हैं. और, हर इस तरह की घटना में बड़े पैमाने पर मजदूरों की गिरफ्तारी, फैक्टरी पर तालाबंदी होती रही है. लगभग 90 मजदूरों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है.

बहरहाल इस फैक्टरी के चेयरमैन आर सी भार्गव ने भी इसी तरह की नीति का ऐलान 21 जुलाई को प्रेस वार्ता में किया. शांति व उत्पादन का माहौल बनने व सरकार द्वारा ऐसी घटना को रोकने की नीति बनने तक फैक्टरी उत्पादन बंद करने का यह ऐलान मजदूरों के हक पूरी तरह कुचल देने की दुर्दम्य इच्छा ही है जिससे श्रम की खुली लूट चलती रहे. यह त्रासदी पूंजीपति वर्ग के लिए सुनहरा मौका में तब्दील हो गया है जिसका मौका उठाकर मजदूरों के हक को कुचला जा सके.
चेयरमैन एसी भार्गव ने फैक्टरी की तालाबंदी की घोषणा के पीछे अपने कर्मचारियों की सुरक्षा एक मुख्य कारण की तरह पेश किया है. और, सारा दोष मजदूरों के कंधों पर डाल दिया है. मारुति प्रबंधन यह बताने की जहमत से मुकर गया कि 18 जुलाई को उसने मजदूरों को हिंसात्मक तरीके से निपटने के लिए बाउंसरों को फैक्टरी के भीतर तैनात कर रखा था. साथ ही पुलिस का इंतजाम भी कर लिया था. वह यह बताने से मुकर गया कि 16-17 जुलाई को फैक्टरी के भीतर एक सुपरवाइजर द्वारा दलित मजदूर को जाति सूचक गाली दी गई और निलंबित कर दिया गया. जब मजदूरों ने इसका प्रतिवाद किया अगली शिफ्ट में आने वाले मजदूरों के साथ मिलकर गेट पर प्रदर्शन करना तय किया तो प्रबंधक मजदूरों से निपटने के लिए खुद प्रबंधक समुदाय, बाउंसरों व पुलिस के बल पर हमला करना तय कर लिया. लगभग शाम 5 बजे जब दो शिफ्टों के मजदूर मिलकर इकठ्ठा होना शुरू हुए उस समय इन्होंने मजदूरों पर हमला बोल दिया.
प्रबंधक और चेयरमैन अपनी आपराधिक कार्रवाई को स्वीकार करने से मुकर गया. वह इस बात से भी मुकर गया कि लगभग साल भर पहले जब मजदूरों ने वेतनवृ़द्धि की मांग किया तो उन्हें कुचल देने के लिए खुलेआम बाउंसरों का प्रयोग किया गया और मजदूर घायल हुए. जब उन्होंने यूनियन बनाने के अधिकार और मजदूरों को नियमित करने की मांग को रखा तो मजदूरों की मांग को स्वीकार करने के बजाय उन्हें लॉकआउट और फिर उन्हें सबसे लंबे हड़ताल पर जाने को मजबूर किया. जब गुड़गांव में मारुति से जुड़े सभी उद्योग संस्थानों ने हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया तब मजदूरों की ओर से वार्ता कर रहे मजदूर प्रतिनीधियों को लाखों रूपए -कुछ लोगों के अनुसार चंद प्रतिनिधियों को करोड़ों रूपए, घूस खिलाकर ‘वीआरएस’दे दिया गया. इसके बाद भी मजदूरों ने हार मानने से इंकार कर यूनियन बनाने के अधिकार को अंततः जीत लिया और फैक्टरी गेट पर यूनियन के झंडे को लहराया गया.
मजदूरों की यह मौलिक जीत मारुति के प्रबंधकों को कभी रास नहीं आई. मजदूरों के अपने हक और इज्जत से काम करने के न्यूनतम अधिकार को भी प्रबंधक कभी भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए. वेतनवृद्धि की मांग को वे लगातार एक खतरे की तरह देखते रहे. और, मजदूरों पर हमला बोलते रहे. यह हमला अभी भी जारी है.
खुद हरियाणा और केंद्र की सरकार व श्रम विभाग का इस मुद्दे पर जो रवैया रहा वह भी प्रबंधकों की नीति से पूरी तरह नत्थी रहा. जब भी प्रबंधकों को मजदूरों के खिलाफ पुलिए या अर्द्धसेना बल की तैनाती की जरूरत हुई इनका प्रयोग सरकार ने तुरंत किया.
श्रम विभाग उत्पादन के माहौल न को बनाए रखने के लिए मजदूरों को फैक्टरी परिसर छोड़ने का आदेश जब तब देता रहा. यहां तक कि सारे श्रम कानूनों की धज्जी उड़ाने वाले ‘कोड ऑफ कंडक्ट’को मान्यता दे दी. ज्ञात हो कि इस मसले पर संसद में श्रम मामलों के मंत्री ने इसे ‘अवैध’ बताया. लेकिन न तो फैक्टरी के प्रबंधकों के खिलाफ इस मुद्दे पर कार्रवाई की गई और न ही श्रम मंत्रालय ने अपनी गलती सुधारते हुए इस कंडक्ट के शिकार मजदूरों को न्याय दिया गया. यह अराजकता या आम भूल गलती नहीं है. यह सरकार की सोची समझी नीति है जिसमें मारुति के प्रबंधकों व मालिकों को लूट की खुली छूट जारी रह सके और ‘निवेश’का माहौल बना रह सके. यह वैसी ही लौह तानाशाही है जैसी गुजरात में देखने को मिल रहा है और जिस पर अमेरीका लट्टू हुआ जा रहा है.
सरकार पूंजीपतियों के लूट को लेकर उनको हर हाल में समर्थन देने की साफ नीति पर चल रही है. आज मारुति ही नहीं पूरा गुडगांव श्रम  दासता का एक नमूना बनकर उभरा है जहां एक एक फैक्टरी में हजारों मजदूर दसियों साल से कम करते हुए भी न तो नियमित हैं और न ही उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार है.
सरकार व मारुति प्रबंधक इस बात को छुपा ले जाने के लिए बेचैन हैं जिसमें उन्होंने मजदूरों के खिलाफ एक आपराधिक गोलबंदी किये हुए हैं. पिछले एक साल में मारुति के मानेसर प्लांट में जो घटना घटी हैं उसका सिलेसिलेवार जायजा लिया जाय उससे एक एक बात खुलकर सामने आ जाएगी.
एक प्रबंधक की रहस्यमयी मौत एक त्रासद मध्यांतर की तरह सामने आया है. यहां से सरकार व प्रबंधक मिलकर पूरे मामले को अपने पक्ष कर लेने को तैयार हो गए हैं. हत्या की सारी नैतिक जिम्मेदारी मजदूरों के कंधों पर डालकर खुद को देश का जिम्मेदार कर्णधार साबित करने में लग गए हैं. अर्थव्यवस्था के नाक तक डूबे संकट को उबारने के लिए जब अमेरीकी शासक वर्ग फासिस्ट हत्यारे मोदी को सिर पर चढ़ाने के लिए तैयार है और यहां का पूंजीपति उसकी सरपरस्ती में जाने के लिए तैयार है तब निश्चय ही स्थिति नैतिक रूप से साफ सुथरा होने की जरूरत भी खत्म हो गयी है. अब तो सरपरस्ती पाने की होड़ की शुरूआत हो चुकी है.
मारुति के मजदूरों पर हमला और उनकी गिरफ्तारी एक ऐसी नंगई की शुरूआत है जिसकी मिसाल पिछले कुछ सालों से दिखने लगा है. हीरो होंडा और रिको कंपनी में मजदूरों के खिलाफ पुलिस बाउंसरों का प्रयोग जो षुरू हुआ उसके नतीजे भी उतने ही खतरनाक रूप से सामने आए. इन कंपनियों में भी यूनियन बनाने, वेतनवृद्धि और प्रबंधक की ओर से उचित व्यवहार की मांग से आंदोलन शुरू हुआ. इसमें मजदूरों की बुरी तरह से पिटाई की गई और कुछ मजदूरों को जान से मार डाला गया. जिसके विरोध में ऐतिहासिक उद्योग बंदी हुई.
ग्रेटर नोएडा में ग्रेजियानों के मजदूर व प्रबंधक की झड़प में महाप्रबंधक की हत्या हुई. इस घटना में 80 से उपर मजदूरों को जेल में डाल दिया गया. बरसों तक ये मजदूर जेल में पड़े रहे. आज भी यह केस चल रहा है. इस घटना में भी प्रबंधकों ने बाउंसरों का इस्तेमाल किया गया. ग्रेजियानों के मजदूर वेतनवृद्धि और यूनियन बनाने के अधिकार की लड़ाई लगभग एक साल से लड़ रहे थे. इस मामले में प्रबंधक समूह के एक व्यक्ति पर न केवल मजदूरों ने बल्कि मारे गए महाप्रबंधक की पत्नी ने भी अपना संदेह प्रकट किया लेकिन इस मसले को दबाकर मजदूरों को ही दोषी मान लिया गया. पुलिस व श्रम मंत्रालय ने इस पूरे मसले पर श्रम विरोधी रवैया अपनाए रखा.
इसके बाद साहिबाबाद में निप्पो कंपनी के प्रबंधक की हत्या ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में की गई. बाउंसरों का प्रयोग, प्रबंधकों के बीच की आपसी होड़, सम्मान पूर्ण व्यवहार की मांग, वेतनवृद्धि की मांग व यूनियन बनाने का अधिकार ही वह धुरी थी जिसके इर्द गिर्द प्रबंधक की हत्या हुई और इसके आरोप में मजदूरों को गिरफ्तार किया गया. बाद में मुंबई और कोयंबटूर में ऐसी ही घटना घटी. पोंडीचेरी में मजदूरों ने शिरामिक कंपनी के प्रबंधक को ऐसी ही झड़प में मार डाला.
गुड़गांव में पिछले एक साल में ठेकेदार व प्रबंधकों के खिलाफ मजदूरों की झड़प की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. कंस्ट्रक्शन मजदूरों ने अपने साथी की मौत पर पुलिस और प्रबंधक पर हमला बोला. इसके तुरंत बाद ओरिएंट लॉगमैन में मजदूरों ने प्रबंधक द्वारा एक मजदूर पर कातिलाना हमला करने के खिलाफ प्रबंधक के खिलाफ हमला किया. चंद महीनों बाद मारुति में हुई यह घटना उस हालात का ही नतीजा है जिसे इस देश में विकास के नाम पर बना दिया गया है.
मारुति मानेसर प्लांट में हुई घटना किसी अराजकता का परिणाम नहीं है. यह एक सोची समझी नीति का परिणाम है. यह श्रम की अंतहीन लूट को और मजदूरों को दास के अस्तित्व तक सीमित कर देने की नीति का परिणाम है. यह उनके संगठित होने से रोकने और उन्हें एक नागरिक जीवन तक न जीने देने की नीति का परिणाम है. यह मजदूरों को भ्रष्ट कर देने की चाल का नतीजा है. यह मजदूर वर्ग को ‘हेडलेस चिकेन’बना देने की नीति का परिणाम है. यह उनके संकट का परिणाम है जो चारों ओर से उन्हें दबोचे हुए है. यह उनके अपने ही षडयंत्रपूर्ण कार्रवाईयों का नतीजा है. यह एक नए समाज का सपना देखने की ललक से भर उठे मजदूरों से डर जाने का परिणाम है. यह पूंजीपति वर्ग के अपने ही मौत के डर से उपजी हुई उस हताशा का परिणाम है जिसमें वह अपनी कब्र खोदने में जुट जाता है.
बहरहाल जो मजदूर इस हत्या और षडयंत्र में शामिल नहीं है उन्हें अविलंब आरोप से मुक्त कर देना चाहिए. सरकार और प्रबंधक को अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए. बाउंसरों के बेजा प्रयोग के जिम्मेदार प्रबंधकों पर मुकद्मा चलना चाहिए और उन प्रबंधन में बैठे उन दोषियों को जेल होना चाहिए जिन्होंने इस माहौल को पैदा किया है.

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