भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ खड़ा मीडिया खुद कितना खरा

(अन्ना के आंदोलन के दूसरे चरण में यानी अगस्त 16 के बाद जिस तत्परता से मीडिया कड़ाही, छन्ना संभाले था, उसपर एक लेख समकालीन जनमत में प्रकाशित हुआ है. उसे यहां पुनः इस्तेमाल कर रहा हूं.)

देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा है. शहरी क्षेत्र और खासकर महानगरीय परिवेश में इसका असर ज़्यादा है. लोग तिरंगा थामे आज़ादी की कथित दूसरी लड़ाई में कूद पड़े हैं. 24 घंटे लाइव चल रहा है. अखबार के अखबार रंगे पड़े हैं. फिल्मी हस्तियां, विश्वविद्यालयों के छात्र, युवा वाहिनियां, गैर सामाजिक संगठन, कुछ लेखक-साहित्यकार, गीतकार और करतबिए, समाजसेवी, मध्यमवर्गीय करदाता समाज के ढेर सारे लोग, आदि आदि अन्ना के नेतृत्व वाले आंदोलन में जुड़ गए हैं. सबकी लड़ाई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़.
भ्रष्टाचार. सबसे बड़ी चुनौती, सबसे बड़ी समस्या. हम जब भ्रष्टाचार की प्रकट व्याख्याओं की विवेचना करते हैं तो समझ में आता है कि सेवाओं और सुविधाओं की बंटरबांट, जिसमें किसी को बिना नियम, वैधता के भी सबकुछ मिले और किसी को सारे नियम, वैधताओं के बावजूद कुछ न मिले, प्राथमिक स्तर पर भ्रष्टाचार का मूल स्वभाव है. इसके अलावा दूसरे और तीसरे स्तर का भी भ्रष्टाचार है. दूसरे स्तर का भ्रष्टाचार विचारधारा के स्तर पर, सोच और समझ के स्तर पर भ्रष्ट होना है जिसके कारण कभी पिछड़े वर्ग को दंश झेलने पड़े हैं तो कभी अल्पसंख्यकों को. किसी वर्ग, जाति, समाज या संप्रदाय का एकाधिकारवाद या वर्चस्व में खुद बने रहने की प्रवृत्ति इसी के कारण है. तीसरे स्तर का भ्रष्टाचार सबसे कम प्रकट रहनेवाला भ्रष्टाचार है पर इसकी मार और खतरे सबसे ज़्यादा हैं. यह भ्रष्टाचार है नीतियों के स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार. इसमें कॉर्पोरेट लूट आती है, संसाधनों को हड़पने और दोहन करने की होड़ आती है, किसी दूसरे देश या सत्ता के इशारे पर अपनी प्रभुसत्ता को गिरवी रखने, बेंचने की सुनियोजित बेवकूफी दिखाई देती है. मुट्ठीभर लोगों के हितों के लिए बहुमत के अस्तित्व से खेलने की गंदी साजिशों का गंध आती है. इस महासंकट से लड़ने के लिए कारगर कानून होना ज़रूरी है पर कानून केवल औपचारिकता भर ही रहेगा क्योंकि बड़े स्तर के या दूसरे और तीसरे स्तर के भ्रष्टाचार से क़ानून के ज़रिए नहीं निपटा जा सकता है. इस मुग़ालते में रहना कि क़ानून की किताब सभी समस्याओं का अंतिम हल है और किसी क़ानून को ला देने से क्रांति होने वाली है, आत्महंता होने के बराबर है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी देशव्यापी (जैसा कुछ लोग समझ रहे हैं या जैसा समझाया जा रहा है) जन आंदोलन के प्रकट रूप के पीछे कई तरह के मैनेजमेंट काम कर रहे हैं. रामलीला मैदान में और उसके आसपास बिसलेरी, ट्रॉपिकाना जूस और बिस्कुट वितरण से लेकर टैटू बनाने वाले कलाकार, टोपी, तिरंगे और पोस्टर बांटते वॉलेंटियर, मीडिया की कवरेज पर ब्लू टूथ मॉनीटरिंग करती टोली, आधुनिकतम तकनीक वाली कैमरा क्रेनें और ट्रॉलियां, एक ही प्रिंट की हज़ारों टी-शर्ट, नारे और गीतों को तय करती टीमें… ऐसे कितने ही पहलू हैं जो इस लड़ाई के बहरूपिए होने के सारे प्रमाण देती हैं. इस सबसे बड़ा है इस अभियान का मीडिया मैनेजमेंट जिसपर चर्चा करना बहुत ज़रूरी है.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने देशभर में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक लामबंदी करने में सफलता अर्जित की है और भ्रष्टाचार को बहस के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है. सरकार हाय हाय करती नज़र आ रही है. लोग वंदेमातरम कहते दिखाई दे रहे हैं. मध्यमवर्ग की पीठ पर बंधी इस तख्ती ने मीडिया के मारीचों को सबसे ज़्यादा आकर्षित किया है क्योंकि यही वर्ग मीडिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. आरक्षण विरोधी अभियान हो, भारत-पाक संबंधों की कड़वाहट हो, फैशन और लाइफस्टाइल हो, ज्योतिष और पंचांग हो, सेल और शेयर बाज़ार हो, किसी जेसिका, आरुषि या कटारा की हत्या हो या नई कार का लॉन्च, यह मीडिया के लिए सर्वाधिक आकर्षक और महत्वपूर्ण विषय रहे हैं. उस देश में, जहाँ कुपोषण और गरीबी अफ्रीका के कई देशों को मुंह चिढ़ाती है, उस देश में जहाँ किसान आत्महत्या कर रहे हैं दशक भर से, उस देश में जहाँ दलितों के साथ अत्याचार के मामलों का कोई अंत नहीं दिख रहा है, उस देश में जहाँ नौजवान हताश और बेरोज़गार अनिश्चय के साथ भविष्य के एक-एक दिन से लड़ रहा है. उस देश में, जहाँ जल, जंगल और ज़मीन का निरंतर दोहन जारी है. उस देश में, जहां लाखों लोग सीखचों के पीछे इसलिए कैद हैं क्योंकि उन्होंने सरकार प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ सत्याग्रह किए या आवाज़ उठाई है. अफसोस, मीडिया के चश्मे में ऐसे मुद्दे खबर नहीं, किरकिरी हैं और इन्हें बाहर रखना ही मध्यमवर्गीय आंखों के लिए सबसे ज़्यादा आरामदायक है. अब यही एक बड़े भ्रष्टाचार का परिचायक है कि मीडिया इस तरह से सेलेक्टिव कैम्पेन रिपोर्टिंग में लगी है. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना का ताज़ा आंदोलन कोई पहली लड़ाई नहीं है और न ही आखिरी. इससे पहले कई राजनीतिक या जन-राजनीति करने वाले संगठनों, दलों ने पुरज़ोर लड़ाइयां की हैं भ्रष्टाचार के ख़िलाफ. अभी अगस्त महीने में ही भूमि अधिग्रहण और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एनएपीएम की ओर से दिल्ली में पुरज़ोर ढंग से जन पक्ष की बात सरकार की आंखें खोलने के लिए रखी गई. अफसोस, इस दौरान किसी अखबार की न तो कलम खुली और न ही किसी चैनल का कैमरा. इसके बाद नौ अगस्त से 100 घंटे की ऐतिहासिक घेरेबंदी का आयोजन आइसा-आरवाईए की ओर से किया गया. कश्मीर, मणिपुर से लेकर बंगाल और केरल तक लगभग भारत के हर प्रांत-प्रदेश से युवा और छात्र इस प्रदर्शन में जुटे. पुलिस और मौसम के विरोध के बावजूद घरना 100 घंटे टिका रहा और मज़बूती के साथ अपनी बात रखता रहा. किसी माई के लाल मीडिया हाउस को यह प्रमुख खबर तो क्या, दैनिक ख़बर भी नहीं लगा. जो थोड़ा बहुत छनकर छपा उसकी वजह पार्टी या विचारधारा से सहमत रहे वैतनिक पत्रकार थे, न कि एक निष्पक्ष संपादकीय निर्णय. इसके तीन दिन बाद अचानक से मीडिया भ्रष्टाचार विरोधी हो गया. अचानक से अन्ना का प्रश्न भारत के हर छोटे-बड़े अखबार, पत्रिका और चैनल का विषय बन गया. दनादन कैमरे, चमाचम पत्रकार और धकाधक छापेखाने… खेल शुरू. लगा जैसे टी-20 सीज़न है, भारत पाक युद्ध होने वाला है या फिर किसी राष्ट्रभक्त टोली ने मीडिया कार्यालयों पर कब्ज़ा कर लिया है.
इस चयनात्मक प्रस्तुति और समर्थन को क्या भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं आप. क्या यह पक्षपात किसी भ्रष्टाचार से कम है. क्या बाकी आंदोलनों के मुद्दे कमतर थे या उनकी ईमानदारी में कमी थी. क्या बाकी आंदोलनों की बात और संदर्भ कम व्यापक थे या उनमें दूरदर्शिता की कमी थी. हाँ, बाकी आंदोलनों के पास पैसा नहीं था, प्रोपेगेंडा के लिए मसाला नहीं था, मिडिल क्लास मार्फीन नहीं था, छपवाने या ऑन एयर चलाने के लिए बड़े विज्ञापनों का जुगाड़ नहीं था और न ही भामाशाहों की टोली थी. इनके पास थी इसलिए सारा मीडिया अन्ना को राणा प्रताप बनाकर उनके पीछे खड़ा हो गया. लोकतंत्र में मीडिया के चौथे स्तंभ होने की बात के बारे में जब सोचता हूं और दर्द से विलखते, शोषण और उत्पीड़न झेलते कमज़ोर लोगों की लड़ाइयों को दरकिनार करके कॉर्पोरेट स्वांग को आंदोलन बनाने वाले मीडिया की ओर देखता हूं तो घृणा होती है. पर्दे पर पीप नज़र आता है और कागज़ों पर कोयला. यह किस तरह की पत्रकारिता है, इसे किस तरह से दायित्वबोध वाली, परिपक्व और निष्पक्ष पत्रकारिता कहेंगे. जिस मीडिया का बाप कॉर्पोरेट और मां बाज़ार है, उससे या उसके सहारे किसी ईमानदार, राजनीतिक और दूरगामी, व्यापक जन आंदोलन की अपेक्षा करना मिथ्या है. किसी को क्योंकर आश्चर्य नहीं होता ऐसे चैनलों पर जिनके कुछ शेयर उस अनिल अंबानी के पास हैं जिसका नाम और काम पिछले एक वर्ष में खासा विवादित और भ्रष्ट साबित हुआ है. अफसोस, कि ऐसे चैनल अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं पर अपने शेयर धारकों के खिलाफ वे एक शब्द नहीं कहना चाहते, चाहे वो देश बेंचकर खा जाए. कुछ समूह तो ऐसे हैं जहां सारा साम्राज्य ही धोखाधड़ी का है. चिट फंड से लेकर रियल स्टेट तक बेनकाब होते आ रहे हैं पर साथ साथ चैनल भी चला रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम जारी है.
इस मीडिया मैनेजमेंट में कुछ कॉर्पोरेट दलाल टाइप बाबाओं के शिष्य मालिकों को आशीर्वाद और निर्दश मिला है कि आंदोलन की महती करवेज हो, कुछ समूह सरकार से नाराज़ है और आखिर तक कोई डील न हो पाने के कारण अपने मिडिल क्लास मीनिया में कूद पड़ें हैं. दिल्ली के पत्रकारों में तो आईएसी के कर्णधारों द्वारा दिए जाने वाले एक प्रतिष्ठित मीडिया पुरस्कार से लेकर रोज़मर्रा मिडिल क्लास रिलेटेड खबर सप्लाई का भी आकर्षण है और इसका लाभ वे वर्षों से लेते आ रहे हैं इसलिए भी मौके पर काम आना ज़रूरी है. यही टीम चैनलों को समय समय पर केस स्टडीज़ से लेकर सिटिज़न जर्मलिस्ट भी मुहैया कराती रही है. मीडिया मैनेजमेंट की यह पाठशाला पिछले आठ बरस से दिल्ली में चल रही है और टीम अन्ना के पीछे खड़ी टीम ने मीडिया के कुछ लोगों की एक टोली तैयार की है जो अपने काम को अमरीकी राष्ट्रपति के प्रचार अभियान की तरह देखती है. दरअसल, अन्ना के आंदोलन के दौरान और पिछले कुछ समय से भारत में मीडिया के क्षेत्र में आ रहे बड़े बदलाव पर हम कम ही चर्चा करते रहे हैं पर यह खेल कोई नया खेल नहीं है. अमरीका ने दो दशक पहले लतिन अमरीका के देशों के खिलाफ, क्यूबा और कास्त्रो के खिलाफ मीडिया कैम्पेन को जिस तरह से इस्तेमाल शुरू किया, यह उसी क्रम का भारतीय चेहरा है. हमारे देश में यह आदत भी है कि अमरीका या पश्चिम की पुरानी चीज़ों को हम सहर्ष अपनाते आए हैं. इसीलिए, अन्ना के आंदोलन का मीडिया मैनेजमेंट अमरीकी चुनाव के प्रोपेगंडा की शक्ल ले चुका है.
पेड न्यूज़ की चाशनी में डूबा यह मीडिया तंत्र कई तरह के उल्लू सीधे कर रहा है. मसलन, पेड न्यूज़ की किरकिरी को कुछ कम कर लिया जाएगा. सार्वजनिक रूप से गालियां खाने की नौबत तक वाहियात हो चुके ऐजेंडे और रिपोर्टिंग में अचानक से राष्ट्र और जनता के साथ खड़ा होना खोती ज़मीन और विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करने में मदद करेगा. इस तरह की कॉर्पोरेट प्रायोजित कैम्पेन में विज्ञापन साहू के बेटे के विवाह की रेवड़ियों की तरह बरस रहा है. इसमें आचमन किया तो लाखों-करोड़ों का लाभ प्रति प्रकाशन या चैनल होगा. इसका सीधा लाभ मंदी की मार झेलते और अपने रोज़ लुढ़कते शेयरों को कातर भाव से देखते मीडिया मालिकों को होगा. जो जितना नाच दिखाएगा, वो उतना पइसा पाएगा- के सिद्धांत पर हम पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए अपराधों, ग़लतियों का पिण्डदान भी कर लेंगे और साथ साथ मोटी कमाई भी हो जाएगी. कॉर्पोरेट जगत जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों में लगातार घिरता जा रहा है, ऐसे में लोगों का फोकस कॉर्पोरेट से वापस जन प्रतिनिधियों पर स्थानांन्तरित करना भी ज़रूरी हो गया था. जिन लोगों को ऐसा लगे कि मीडिया के बारे में इतना ग़लत प्रचार बेवजह है, उनके लिए कुछ आंकड़े गौरतलब हैं. द हूट डॉट ओआरजी वेबसाइट पर मीडिया के इस पागलपन के बारे में छपी एक ख़बर के मुताबिक अन्ना के अभियान के पहले चऱण में ही 3 अप्रैल से 11 अप्रैल के बीच टीवी चैनलों पर दिखाई गई अन्ना संबंधी ख़बरों और उनके साथ चले विज्ञापनों का कुल मूल्य 175.86 करोड़ रूपए है. इन नौ दिनों के दौरान 655 घंटे का प्रसारण समय अन्ना की खबरों को मिला. प्राइम टाइम और नॉन प्राइम टाइम की कुल ख़बरों की तादाद 5657 है. इसमें से 5592 खबरें अन्ना के पक्ष में और 65 खबरें उनके विरोध में चलीं. इन नौ दिनों के आंकड़ों के बाद अन्ना की रैलियों से लेकर प्रचार सभाओं तक का मीडिया मकड़जाल फिलहाल विवेचित होना बाकी है. साथ साथ अभी उन आंकड़ों के सामने आने में भी समय लगेगा जिनमें ज़ी टीवी के टैलेंट शो की टीआरपी और रेवेन्यु जनरेशन से लेकर इंडिपेंडेंस स्पेशल और शहीद सैनिक स्पेशल प्रोग्राम हैं, टीम अन्ना स्पेशल स्टूडियो विज़िट प्रोग्राम हैं और फ़िल्म इंडस्ट्री में आंदोलन के समर्थन में (या हवा में) बन रहे वीडियो, म्यूज़िक एल्बम, प्रमोशनल कैम्पेन, टैलेंट शो प्रमोशन जैसी खुराफातें शामिल हैं. प्रिंट के आंकड़े तो अभी कोसों दूर हैं पर प्रकाशन के मामले में भी यह आंदोलन अच्छी दुकानदारी कराने में किसी भी और घटना से बेहतर साबित हुआ है. क्या किसी और आंदोलन से मीडिया इतना माल कमा पाती, यह एक बड़ा सवाल है और औद्योगिक घराने की ढाल के लिए गैंडे की खाल की तरह पैदा हुई चैनलों अखबारों की फसल का सीधा सिद्धांत यही है कि जहाँ मिलेगा माल नहीं, वहां गलेगी दाल नहीं. अभी तो जामुन के कुछ फल ही नीचे गिरे हैं, गलीचा बिछना बाकी है और सच्चाई का प्याज जैसे-जैसे खुलेगा, मीडिया और कॉर्पोरेट की मिलीभगत लोगों को और लोकतंत्र के पहरुओं को उतना ही रुलाएगी.
चीज़ों को कथित रूप से काला-सफेद करके बताने वाली मीडिया… सफेदी तुझे सलाम.

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