हाल में ऱाष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल को कैबिनेट की मंजूरी मिली तो मुख्यधारा की मीडिया में इसके वित्तीय प्रभावों को केंद्र में रखकर आलोचनाओं का एक सिलसिला चल निकला. जाहिर तौर पर, बिल से लागत-खर्च के बारे में जो बातें निकलती हैं उनकी जतन के साथ जांच-परख और सार्वजनिक बहस होनी चाहिए लेकिन यह बात बड़ी उदास करने वाली है कि इन आलोचनाओं में लागत के बारे में तो बड़ी चिन्ता जतायी जा रही है लेकिन लोगों की जिन्दगी को संवारने के लिहाज से यह बिल जो कर सकता है, उसको लेकर दिलचस्पी ना के बराबर है.
आलोचनाओं की इस बाढ़ का अंदेशा पहले से था- एक तरह से देखें तो साल 2004 का घटनाक्रम ही इस मामले में अपने को दोहरा रहा है. उस समय राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी बिल संसद में पेश हुआ और आलोचकों ने दावा किया कि इस पर सालाना 2 लाख करोड़ रुपये का खर्चा आएगा. फिर भी, हाल की आलोचकीय आतिशबाजी के पीछे काम करने वाली लालबुझक्कड़ी प्रतिभा की प्रशंसा करनी होगी. कैबिनेट के नोट में बिल के लिहाज से 27,000 करोड़ रुपये के खर्चे का अनुमान किया गया है और इस अनुमान में ऐसी हवा भरी गई कि कई भ्रमपूर्ण टिप्पणियों में यह कई लाख करोड़ रुपयों में तब्दील हो गया. कुछ रिपोर्टों में बिल के अंतिम रुपांकन को स्टॉक-मार्केट के तथाकथित क्रैश से जोड़कर देखा गया. इन रिपोर्टों में से एक ने अफसोस के स्वर में समाचार का शीर्षक लगाया- हू विल फीड द सेंसेक्स?- और एक समाचार के शीर्षक- क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैपस्- में तो यह तक कहा गया कि ना सिर्फ भारत बल्कि चीन, ब्राजील और रुस तक में भुगतान-असंतुलन पैदा हो सकती है, इससे बचने के लिए सरकारों को अपनी उधारी बढ़ानी पड़ेगी. ऐसी अन्य दिलचस्प समाचार-सुर्खियों में शामिल है- रेकलेस फूड सिक्यूरिटी लारज्स कुड बस्ट द बैंक- यानी खाद्य-सुरक्षा के नाम रुपयों की बेतहाशा बरसात से बैंकों का भट्ठा बैठ जाएगा और- विल द फूड बिल बी द लास्ट स्ट्रॉ दैट ब्रेक द इंडियन इकॉनॉमी- यानी क्या खाद्य-सुरक्षा बिल भारतीय अर्थव्यवस्था के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा?
खतरे की घंटी बजाते इन समाचारों से हर उस आदमी को हैरत होगी जिसने खाद्य-सुरक्षा बिल को पढ़ा है. मिसाल के लिए, यह जताने की कोशिश की जा रही है कि 27,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी का बोझ बस तुरंत, अगले ही वित्तीय-वर्ष में पड़ने वाला है. यह बात गलत है. बड़े आशावाद के साथ, यह मान लें कि बिल संसद के बजट-सत्र में पास हो जाता है और साल 2012 की मध्यावधि तक अमल में आता है तो भी साल 2012-13 में अतिरिक्त सब्सिडी की रकम 27,000 करोड़ रुपये से नीचे ही रहेगी. बिल की लागू होने के वास्तविक समयावधि के कारण भी ऐसा होगा और इसलिए भी कि बिल एक झटके में सारे देश में लागू हो जाए, इसकी संभावना कम है. दरअसल, बिल की अधिसूचना जारी करना कालबद्ध मामला नहीं है, इसे कई चरणों में जारी किया जा सकता है. अधिनियम लागू हो जाता है तब भी, सामान्य श्रेणी (प्राथमिक श्रेणी के परिवारों के विपरीत) के परिवारों के भोजन के अधिकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सुधारों से जोड़ा जाना है और इसे उसी तारीख से लागू माना जाएगा जो तारीख केंद्र सरकार तय करेगी. इसके अतिरक्त , मौजूदा खाद्य-भंडार इतना विपुल है कि बिल से पैदा होने वाली अनाज की अतिरिक्त जरुरत को थोड़ी-सी रकम खर्च करके कुछ समय तक पूरा किया जा सकता है.
तो दांव पर फिलहाल किसी किस्म का वित्तीय झटका नहीं, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था और राजकोषीय क्षमता लगी है कि वह एक खास समयांतराल के भीतर आर्थिक रुझानों की रोशनी में इस बिल के साथ मेल बैठा पाती है या नहीं. इन रुझानों में शामिल है- तेज आर्थिक-वृद्धि, सरकारी राजस्व में तीव्रतर बढ़ोतरी, खाद्यान्न के उपार्जन में टिकाऊ बढोतरी और हाल-फिलहाल में कई राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में हुए बड़े सुधार. रुझान कहते हैं कि खाद्य-सुरक्षा की पहलकदमी के लिए माहौल अनुकूल है.
संयोग से अगर अधिनियम अगले वित्त-वर्ष की शुरुआत में पूर्णव्यापी तौर पर अमल में आ जाता है, और इसमें अतिरिक्त खाद्य-भंडार का इस्तेमाल नहीं किया जाता यानी अतिरिक्त सब्सिडी की रकम साल 2012-13 में सचमुच 27,000 करोड़ रुपये रहती है तब भी इस लागत की भरपाई के लिए रास्ते निकाले जा सकते हैं. वित्त मंत्रालय के राजस्व संबंधी एक ब्यौरे ( रेवेन्यू फॉरगॉन स्टेटमेंट) के अनुसार हीरा और सोना के कस्टम-शुल्क पर दी जाने वाली छूट को ही खत्म कर दिया जाय तो अकेले इससे तकरीबन 50,000 करोड़ रुपये की आमदनी होगी – और याद रहे शुल्कों में दी जाने वाली छूट के कारण साल 2010-11 में सरकार को जिस 511,000 करोड़ रुपये की राजस्व हानि हुई, हीरा और सोना के कस्टम-शुल्क में दी जाने वाली छूट उसका एक हिस्सा मात्र है. व्यापक धरातल पर सोचें तो देश का टैक्स-जीडीपी अनुपात बढ़ाने की भारी गुंजाइश है. यह बात विशेषज्ञों की कई रिपोर्टों में कही गई है, फिर धनिकों को दी जाने वाली सब्सिडी में कमी करने का रास्ता अलग से है.
इस बात का जिक्र करना लाजिमी है कि 27,000 करोड़ की अनुमानित राशि का संबंध सार्वजनिक वितरण प्रणाली से है. बिल में, बाल-पोषण और मातृत्व से जुड़े खाद्य-सुरक्षा के अधिकारों के भी प्रावधान हैं. बहरहाल, इनमें से अधिकतर प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के आदेशों (मातृत्व से जुड़े भोजन-अधिकार मुख्य अपवाद हैं) के मद्देनजर अपरिहार्य हैं. समय बीतने के साथ जैसे-जैसे नई पहलकदमियां ठोस रुप लेंगी, लागत बढ़ सकती है, लेकिन धन का इस्तेमाल अगर अच्छाई के लिए हुआ है तो यह कोई बुरी बात नहीं .
यही तर्क बिल में वर्णित खाद्यान्न-उपार्जन के बारे में भी लागू होते हैं. जिसने भी कहा है (या तथाकथित रुप से कहा गया है) कि बिल की जरुरतों को ध्यान में रखते हुए “ खाद्यान्न की उपज और खाद्यान्न के सरकारी उपार्जन को बढ़ाने के लिए 350,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त जरुरत पड़ेगी वह इस तथ्य को तकरीबन भूल जाता है कि खाद्यान्न-उपार्जन पहले ही लगभग 6 करोड़ टन का है- इतनी मात्रा बिल को एकबारगी पूरे देश में लागू करने के लिए काफी है. संयोगात्, खाद्यान्न-उपार्जन गुजरे बीस सालों से लगातार लगभग 5 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और ऐसा कोई कारण नहीं दीखता कि यह बढ़वार अचानक से रुक जाएगी. और जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, देश के पास मौजूद विशाल खाद्य-भंडार खुद में एक बड़ी राहत की बात है.
आखिर में एक महत्वपूर्ण बात और कि बिल में बहुत-सी कमियां और जिम्मेदारी से बच निकलने के रास्ते हैं. समयावधि तय करने की ही नहीं, अधिकतर अधिकारों में संशोधन करने और राज्यों के साथ लागत-खर्च में हिस्सदारी की बात तय करने की ताकत भी केंद्र सरकार ने अपने पास रखी है. कई प्रावधान ऐसे हैं जिनमें केंद्र सरकार अपनी मर्जी से भोजन से जुड़े अधिकारों को नकदी के हस्तांतरण (कैश-ट्रांसफर) के रुप में बदल सकती है. बच निकलने के इतने सारे रास्तों के रहते खतरे की घंटी बजाती मौजूदा खबरदारियां समझ से परे हैं.
खतरे की घंटी बजाती इन खबरदारियों की जगह बिल में कही गई बातों पर जानकारी भरी बहस होनी चाहिए. दरअसल, बिल में गंभीर कमियां हैं, केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ज्यादा ताकत रखी है, बच्चों के लिए बड़े सीमित प्रावधान किए गए हैं, और फिर बड़े समस्यापूर्ण ढंग से आबादी को तीन हिस्सों(प्राथमिक, सामान्य और अपवर्जी) में बांटा गया है. जरुरत बिल को लचीला और सरल बनाने की है.
लागत-खर्च पर ज्यादा और लोगों के जीवन को संवारने के लिहाज से होने वाले फायदों पर कम- ऊपर मैंने इसी फांस की चर्चा की थी और जान पड़ता है मैं भी उसी में फंस गया. मैं अपनी बात बस एक वाक्य में कहूंगा कि भुखमरी तो मिटानी ही होगी. बिल में क्या लिखा गया है और बिल को अमल में कैसे लाया जाय- इससे जुड़े सवालों पर बहस बाकी है. लेकिन, लागत-खर्च की आड़ में इन सवालों को दबा रखने का मतलब होगा कि हमारी प्राथमिकता ही गड़बड़ है.