बीजापुर नरसंहारः निर्दोष होने का मतलब

साझे मकसद की इस लड़ाई में सबको शामिल होना होगा. कोई इससे बाहर नहीं रहेगा. कोई निर्दोष नहीं होगा और न कोई तमाशबीन होगा. हम सबके हाथ सने हुए हैं…इस सबसे बाहर खड़े तमाशा देखने देखने वाले या तो कायर हैं या गद्दार.


-फ्रांज फैनन, द रेचेड ऑफ द अर्थ
बासागुड़ा के लोग न तो कायर थे और न गद्दार. वे ठीक उस संघर्ष के बीच में मौजूद थे, जो उनकी जिंदगियों को बराबरी और इंसाफ की तरफ ले जा रहा है. इज्जत और सम्मान की जिंदगी. गरीबी और अपमान से दूर, एक ऐसी जिंदगी की तरफ जो उनकी मेहनत और रचनात्मकता पर भरोसा करती थी, न कि सटोरियों और सूदखोरों की पूंजी पर.
और इसीलिए वे मार दिए गए. लेकिन उनकी शहादत को बेमानी बनाने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. पिछले एक महीने में उनको जनता के मौजूदा संघर्षों में गद्दार और कायर के रूप में पेश करनेवालों ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी है. वे तमाशबीन नहीं थे, लेकिन असली तमाशबीनों ने उनको तमाशबीन के रूप में पूरी दुनिया के सामने रखा है. और इसीलिए उनकी शहादत को उसके सही संदर्भ में रखा जाना जरूरी है और यह भी जरूरी है कि उनको एक निर्दोष और महज एक तटस्थ तमाशबीन बताए जाने की असली राजनीति को सामने लाया जाए.
एक महीना बीत गया, जब बीजापुर जिले के राजुपेंटा, सिरकेगुडम और कोत्तागुड़ा गांवों के आदिवासी इस मौसम में फसल की बुवाई को लेकर बैठक कर रहे थे. मानसून देर से आया था, कम बारिश हो रही थी और उनकी चिंता के केंद्र में फसल और आजीविका थी, जिसके लिए उनको मिल कर काम करना था. उनके पास बराबरी के आधार पर बांटे गए खेत थे, अपने बीज थे, सिंचाई के अपने बनाए गए साधन थे.
…और उनको मार दिया गया. बीच बैठक में एक किलोमीटर दूर से आई सीआरपीएफ की एक टुकड़ी ने तीनों ओर से उनको घेर कर गोलियां चलाईं. फिर कई आदिवासियों को पकड़ कर निर्ममता से पीटा गया और गांवों से धारदार हथियार खोज कर उनके गले काटे गए. फिर लाशों और जख्मियों को ट्रैक्टर में भर कर थाने पर ले जाया गया. इस दौरान हत्यारे सीआरपीएफ के जवान गांव में पहरा डाले रहे और अगले दिन तक गांव में हत्याएं करते रहे.
ऊपर दिए गए तथ्य क्या बताते हैं? जबकि एक समुदाय के रूप में किसानों के जीवन को लगभग पूरे देश में तहस-नहस किए जाने की प्रक्रिया तेज होती जा रही है, खेती-किसानी को एक व्यक्तिगत कार्रवाई में बदला जा रहा है, अलग-अलग किसानों और अलग-अलग गांवों के बीच एक अमानवीय होड़ को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो सिंचाई और दूसरे संसाधनों के उपयोग के मामलों में खून-खराबे तक पहुंच जाता है, यहां इन सबके उलट पानी की कमी और मौसम के प्रतिकूल होने की स्थिति में किसान आपस में बैठ कर फैसले कर रहे थे कि उनको अपने खेतों में क्या करना है. वे यह फैसले कर रहे थे कि उनके पास मौजूद बीजों में से कौन कहां बोए जाएंगे, कौन किसके खेत में काम करेगा और सिंचाई के लिए क्या व्यवस्था की जाएगी. यह ठीक उस सामाजिक ढांचे और राजनीतिक नीतियों को चुनौती थी, जो पूरे देश पर भूमिहीन दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी किसानों पर थोप दी गई है. जिसमें हर किसान को, हर भूमिहीन दलित को, आदिवासी को, मुसलमान को, स्त्री को, बच्चे को दूसरे से काट दिया गया है. अलग कर दिया गया है. उनकी सामुदायिकता को नष्ट कर दिया गया है.
चुनौती कुछ दूसरे मायनों में भी थी. जिस इलाके में वे रह रहे थे और खेती कर रहे थे, उस पूरे इलाके की जमीन को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे दिया गया है, जिसमें से कुछ जमीन का उपयोग भारत की सेना को करना था, जिसका मकसद वहां कंपनियों द्वारा संसाधनों की लूट की हिफाजत करना और जनसंघर्षों को कुचलना है. आदिवासियों ने इलाका खाली करने से मना कर दिया तो उनके गांवों को जला कर, लोगों की हत्याएं करके, महिलाओं का शारीरिक उत्पीड़न करके उनको गांव छोड़ने पर मजबूर किया गया. यह सलवा जुडूम का दौर था. पूरे छत्तीसगढ़ में 644 गांव जलाए गए, जिसमें इस गांव के 35 घर भी शामिल हैं. यह 2006 की गर्मियों की बात है. गांव के लोग आंध्र प्रदेश चले गए. लेकिन तीन साल बाद, जिन दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने यह घोषणा की कि सलवा जुडूम के राहत शिविरों में रहने के बजाए गांवों में रह रहे सारे लोग माओवादी हैं और उनके साथ वैसा ही सुलूक किया जाएगा, तो इन तीनों गांवों के आदिवासियों ने मानो अपना पक्ष चुन लिया और अपने गांव लौट आए. जिन दिनों वे अपने गांव लौटे, निर्मम हत्याओं के लिए प्रशिक्षित भारतीय गणतंत्र के अर्धसैनिक बल उन इलाकों में तैनाती के लिए अपनी बैरकों से चल चुके थे. यह तब की बात है जब सलवा जुडूम को आदिवासियों के हथियारबंद प्रतिरोध ने हराए दिया था और हताश राजसत्ता ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू करनेवाली थी.
लौट आने के बाद आजीविका का सवाल सामने था. खेती अब इन इलाकों में थोड़ी मुश्किल हो गई थी. सलवा जुडूम ने जानवरों को बड़ी संख्या में मारा था और जुताई के लिए बैलों की भारी कमी थी. लेकिन जब लोग लौटे तो इलाके में उनके पास जितने भी बैल थे, उन्होंने मिल-बांट कर उन्हीं से जुताई करने का फैसला लिया. तीन साल से यही तरीका अपनाया जा रहा था और 28 जून की रात को जिन बातों को तय किया जाना था, उनमें से एक यह बात भी थी.
वे किसान थे, लेकिन उन्होंने अपनी दुनिया के लिए सूदखोरों का दरवाजा बंद कर दिया था. उन्होंने बीजों और खाद के लिए सरकारी खैरात की याचना नहीं की थी. कर्ज के लिए न वे किसी जमींदार के पास दौड़े और न बैंकों के पास. उन्होंने रियायतें नहीं मांगीं, सहायता नहीं मांगी. गणतंत्र जब पूरे देश में जोतने वालों को जमीन देने, सिंचाई की व्यवस्था करने, अच्छे बीजों को मुहैया कराने और दूसरी सुविधाएं देने की जिम्मेदारी निभाने से इनकार कर चुका है और खेती से जुड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के एक एजेंट के रूप में काम कर रहा है तो बीजापुर और बस्तर के आदिवासी किसानों ने अपने हित में एक नए और जनवादी गणतंत्र की स्थापना की. यह गणतंत्र, जिसे वहां जनताना सरकार या जनता की सरकार कहते हैं, दूसरे अनेक मामलों के साथ खेती के मामलों का इंतजाम भी करता है. जमीन और बीज बांटने से लेकर खेत की तैयारी, फसल बुवाई, सिंचाई, खाद, कटाई और अनाज निकालने तथा उसके वितरण, भंडारण और बाजार में ले जाने तक के मामले देखता है. यह सरकार विश्व व्यापार संगठन या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जनता पर थोपी हुई सरकार नहीं है, और न ही यह विश्व बैंक के कर्ज पर पलनेवाली सरकार है.
राजुपेंटा, सिरकेगुडम और कोत्तागुड़ा गांव इस सरकार की इकाइयां हैं. और इसीलिए यह हत्याकांड एक राजनीतिक हत्याकांड है, यह एक सरकार को बेदखल करने की साजिश का हिस्सा है. यह वो साजिश है, जिसमें अमेरिकी और इस्राइली सेना से लेकर कॉरपोरेट दुनिया और भारतीय फौज लगी हुई है. इस साजिश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कांग्रेस, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से लेकर अनेक राजनीतिक दल, एनजीओ, कई शहरी बुद्धिजीवी और मीडिया प्रतिष्ठान शामिल हैं.
और उनके मुकाबले, उनकी मुखालिफत में, अपना राजनीतिक पक्ष चुन चुके राजुपेंटा, सिरकेगुडम और कोत्तागुड़ा जैसे सैकड़ों गांवों के आदिवासी हैं. दलित हैं. जो लोग इस हिंसक राजनीतिक यथार्थ को मानने से इनकार कर सकते हैं, वही यह दावा कर सकते हैं कि मार दिए गए आदिवासी निर्दोष थे.
यह झूठ है और बेईमानी भी. क्योंकि निर्दोषिता भी, वर्गों में बंटे हुए समाज में वर्गीय आधारों पर ही काम करती है. एक वर्ग समाज में निर्दोष होने का मतलब है मौजूदा सत्ता के पक्ष में होना, मौजूदा मूल्यों और परंपराओं के पूरे तानेबाने को बिना किसी सवाल के अपना लेना. निर्दोष होना सीधे-सीधे राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होने से जुड़ा हुआ है. आप उत्पीड़न और शोषण पर, नाइंसाफी और अपमान पर टिकी इस दुनिया को ज्यों का त्यों कबूल कर लेते हैं तो आप निर्दोष हैं. अगर आपने इस बदसूरत निजाम के खिलाफ सोचने, बोलने और उठ खड़े होने से मना कर दिया है, तो आप बेशक निर्दोष हैं. लेकिन तब यह निर्दोषिता या तो कायरता पर टिकी हुई होगी या जनता से गद्दारी पर. यह एक हिंसक निर्दोषिता होगी, अन्याय और जुल्म पर आधारित निर्दोषिता.
राजुपेंटा, सिरकेगुडम और कोत्तागुड़ा के लोगों ने इनमें से कुछ भी तो नहीं किया. उनकी एक-एक कार्रवाई जुल्म और नाइंसाफी पर टिके मौजूदा निजाम के खिलाफ एक अवज्ञा थी, एक चुनौती थी. उन्होंने झुकने से भी इनकार किया और टूट जाने से भी. इसीलिए वे सलवा जुडूम का निशाना बने. इसीलिए वे सरकारी हत्यारी सैनिक टुकड़ियों के फायरिंग दस्ते की गोलियों का निशाना बने. सीआरपीएफ ने उनकी शारीरिक हत्या की. उनकी राजनीतिक पक्षधरता को देखने और स्वीकार करने से मना करते हुए उनको निर्दोष बताया जाना उनकी राजनीतिक हत्या होगी. और यह हो रही है. हमारी आंखों के सामने. और हम इसे कबूल कर रहे हैं, क्यों?
क्योंकि निर्दोष बताए जाने के अपने राजनीतिक मायने हैं. यह लोगों को एक संदेश दिए जाने जैसा है कि हालात जितने गंभीर होते जा रहे हैं, उनमें निष्क्रिय बने रहना, राजनीतिक पक्षधरता से खुद को अलग रखना, कार्रवाइयों और आंदोलनों से दूरी बना लेना समझदारी है, सामूहिक हत्याकांडों से बचने का तरीका है. निर्दोष बने रहने का तरीका है. चुप्पी चाहिए इस निजाम को. घर में बैठ जाना और किसी सपने का होना. यह जनता को बदलाव की राजनीतिक कार्रवाइयों से काट देने की एक राजनीतिक कार्रवाई है, और इसे समझे जाने की जरूरत है. यह उत्पीड़नकारी यथास्थिति के पक्ष में गद्दारी और चालाकी से भरी हुई दलील है, जिसे खारिज किए जाने की जरूरत है.
क्रांति और प्रतिक्रांति के बीच यह उत्पीड़ित दलित-आदिवासी जनता द्वारा अपना राजनीतिक पक्ष खुद चुनने के अधिकार पर हमला है. उनके संघर्षों से बाहर के लोग जब यह तय करने लगते हैं कि उनकी कौन सी कार्रवाई निर्दोष है और कौन सी दोषपूर्ण तब वे वास्तव में उनके राजनीतिक अधिकारों को खारिज कर रहे होते हैं. जब वे यह तय कर रहे होते हैं कि भूमिहीन दलित, मुसलिम और आदिवासी कौन सी राजनीति मानें और कौन सी नहीं, या फिर वे राजनीति को मानें ही नहीं तो वे यह बता रहे होते हैं कि अपने आप में ये समुदाय राजनीति के काबिल नहीं है. यह ब्राह्मणवादी तौर तरीका है, जिसमें राजनीति का जिम्मा भी समाज पर हावी, ताकतवर और संपन्न समुदाय के जिम्मे छोड़ दिया जाना चाहिए और मेहनत करने वाली सारी आबादी को सिर्फ मेहनत करना चाहिए.
यह इतिहास के बनने में वर्ग संघर्ष की भूमिका से भी इनकार है. वह वर्ग संघर्ष, जिसमें वंचित और शोषित जनता शोषणकारी समृद्धों और अत्याचारी ताकतवरों का तख्तापलट देती है और इतिहास को आगे की दिशा देती है. मौजूदा समय में जब वर्ग संघर्ष देश के एक विशाल इलाके पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है और सत्ता की बुनियाद तक इसकी धमक पहुंचने लगी है, तो इस संघर्ष को आगे बढ़ाने वाले दलित, मुसलिम और आदिवासी समुदायों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे निर्दोष बने रहें. यथास्थिति के पक्ष में आज्ञाकारिता और निर्दोषिता की इस दलील में कितनी हिंसा है, इसे आप पूरे देश की 80 प्रतिशत से अधिक की आबादी की बदतर स्थितियों, भुखमरी, कंगाली, निर्धनता, कर्ज के दलदल, इलाज के अभाव में मौतों, जनसंहारों, विस्थापन और किसानों की आत्महत्याओं को याद करके लगा सकते हैं.
अगर हम अब भी नहीं समझ पाए हैं कि जमीन और बीज का बांटा जाना, अपने बूते सिंचाई करना और फसलें उगाना वास्तव में एक निर्दोष कार्रवाई नहीं है, तो शायद हमारे समझने तक बहुत देर हो चुकी होगी. एक तरफ जब खेती में सामंती जकड़न वित्त पूंजी के प्रवाह के साथ कायम है और कॉरपोरेटों के साथ मिल कर सूदखोर भू-स्वामी यह तय कर रहे हैं, किसानों का जमा हो कर आपस में बुवाई के बारे में सामुदायिक रूप से तय करना ठीक-ठीक एक राजनीतिक कार्रवाई है. यह जमीन की लूट और कॉरपोरेट कब्जे के खिलाफ सबसे गंभीर राजनीतिक कार्रवाई है. जो लोग यह नहीं समझ पाते, दरअसल ये ही वे लोग हैं, जो क्रांतिकारी आंदोलनों को महज उसकी हिंसात्मक कार्रवाइयों से जानते हैं और उसकी राजनीतिक गतिविधियों को देख और समझ पाने से इनकार करते हैं.
जाहिर है कि ज्यों-ज्यों अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी का संकट गहराता जा रहा है, त्यों-त्यों संसाधनों की गलाकाट मांग बढ़ती जा रही है. पूरी दुनिया में कुल मिला कर उत्पादन घट रहा है, पूंजी के लिए उत्पादक गतिविधियों में निवेश के मौके घट रहे हैं और आवारा पूंजी अधिक मुनाफे की तलाश में सस्ते कच्चे माल और सस्ते श्रम की तलाश में पूरी दुनिया की खाक छान रही है. ऐसे में भारत एक अहम देश है, जहां अपने भविष्य को लेकर साम्राज्यवाद की उम्मीदें टिकी हुई हैं. हम एक ऐसी जमीन पर और एक ऐसे समय में रह रहे हैं, जहां साम्राज्यवाद का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और हमारी अपनी जनता और उसके सपनों का भी. इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर भूमिहीन दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी आज्ञाकारी, निर्दोष, निष्क्रिय और अराजनीतिक होने का खतरा नहीं उठा सकते. वे बस इसे अफोर्ड नहीं कर सकते.
इसलिए संघर्षरत जनता डरेगी नहीं, वह मध्यवर्गीय शहरी बुद्धिजीवियों और व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी राजनीतिक पार्टियों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, वह निर्दोष नहीं बनी रहेगी. वह लड़ेगी और जीतेगी. ऐसी सामूहिक हत्याएं जनता को डरा नहीं सकतीं. उसकी चेतना को कुंद नहीं कर सकतीं. फैनन के शब्दों में, ‘दमन राष्ट्रीय चेतना को आगे बढ़ने से रोकना तो दूर इसके हौसले बढ़ाता है. उपनिवेशों में चेतना के शुरुआती विकास की एक तयशुदा मंजिल में होने वाली सामूहिक हत्याएं इस चेतना को और उन्नत ही करती हैं, क्योंकि ये कुरबानियां इसकी संकेत होती हैं कि उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों के बीच सारी चीजें बलपूर्वक ही तय की जा सकती हैं.

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