फसल ख़राब करता है मीडिया मानसून

ऐसा अचानक देखने को मिल रहा है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में तेज़ी आ गई है. निःसंदेह यह चिंता की बात है. खासकर तब, जब राज्य की मुख्यमंत्री खुद एक महिला है.

पर ऐसा क्यों होता है कि एक शहर अचानक से अच्छा बन जाता है. अचानक ही कई देवता दूध पीने लगते हैं, अचानक ही एक संप्रदाय हर कोने में हिंसा और विश्वासघात करता नज़र आता है. अचानक ही होने वाली ऐसी घटनाओं की लंबी सूची है.
ये घटनाएं मीडिया के लिए मानसून की तरह आती हैं. आती हैं, छाती हैं और जमकर बरसती हैं. कुछ दिन बाद बादल छट जाते हैं और कैमरे दूसरे मानसून के आने से पहले वाले ब्रेक पर चले जाते हैं.
दरअसल, आसानी से और स्वाभाविक तरीके से कुछ आता ही नहीं है सामने. सबकुछ किशोरावस्था के अति उत्तेजना भरे यौन उद्दीपनों की तरह, जिसमें न तो कुछ परिपक्वता दिखती है और न ही किसी सूझ-समझ का संकेत होता है. बस, एक हड़बड़ी और एहसास होते हुए भी ग़लत करके की लगातार कोशिश.
यहाँ आशय किसी राज्य सरकार की क़ानून व्यवस्था में आ रही खामियों को छिपाने का कतई नहीं है. खामिया हैं और सामने आनी भी चाहिए. मीडिया के दूर तक फैले डैने अब उन घटनाओं को देख बता पाते हैं और हमारे सामने लाते हैं.
संकट यह है कि ये खामियां अचानक आती हैं और फिर गायब हो जाती हैं. जबकि समाज में ऐसी घटनाएं अपनी गति के साथ होती ही रहती हैं. कुछ प्रकट होती हुई तो अधिकतर बिना खबर बने हुए.
उत्तर प्रदेश में महिलाओं के साथ बढ़ते बलात्कार के मामलों के दौरान लगा कि जैसे राज्य में पुलिस तंत्र जैसा कुछ है ही नहीं. पर क्या इस दौरान देश के बाकी कोनों में कोई महिला किसी हमले या बलात्कार का शिकार नहीं हो रही थी. क्या बाकी राज्यों में अचानक से सभी पुरुष अच्छे और महिलाओं को सम्मान देने वाले हो गए थे. या रुक गए थे, कि चलो फिलहाल यूपी का नंबर है, हम इसके बाद सक्रिय होंगे.
हम अपराध को अपराध की तरह नहीं, एक समस्या की तरह नहीं, एक सामाजिक संकट की तरह नहीं, बल्कि मसाले की तरह दिखाते हैं. इसमें अगर राजनीति का छौंक लगा दें और मामला और भी चटपटा हो जाता है. यह मसाला लोगों तक खबर दिखाने के दायित्व की तरह नहीं, एक अभियान के नारे की तरह जाता है.
सारा मीडिया अपनी सारी शक्ति के साथ इस अभियान में कूद पड़ता है. बाकी चीज़ें गौड़… प्रधान बस अभियान. खबर में जबतक मसाला है, चटपटापन है, रंगत है, हम उसे बेचेंगे.
अपनी समझ और विचारधारा में अधिकतर मीडियाकर्मी कुछ जातियों, चमड़ियों और जेबों को जिस तरह से देखते आ रहे हैं, उसमें हमला और तेवर और भी रंग दिखाता है. यही कारण है कि शीला दीक्षित के राज्य में उत्तर प्रदेश से कई गुना अधिक महिला उत्पीड़न और अपराध के मामले होते हुए भी लोग ठहाके मायावती के नाम पर ही लगाते हैं.
खबर बिल्कुल दिखानी चाहिए पर दिखाने के धंधे की तरह नहीं, एक ज़िम्मेदारी के साथ. किसी अति उत्तेजना और पक्षपात के साथ नहीं, एक समग्रता और दायित्वबोध की तरह. वरना हम संचार का काम नहीं, अपराध कर रहे होंगे.

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