दोषी पुलिसकर्मियों पर हो कार्रवाई

आतंक विरोधी क़ानूनों का बड़े पैमाने पर एक ख़ास समुदाय के ख़िलाफ़ दुरुपयोग हो रहा है और इसे रोकने के लिए पुलिस एजेंसियों को ज़िम्मेदार बनाना होगा. देश में मानवाधिकार संगठनों की ज़िम्मेदारी है कि वो फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियों को नए सिरे से देखे. अब तक मानवाधिकार संगठनों में मुआवजा की बात ही अहम रहती है लेकिन अब ज़रूरत है कि दोषी पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की वो मांग करे. पीयूसीएल के राष्ट्रीय महासचिव डॉक्टर वी सुरेश ने ये बातें कहीं. भारतीय विधि संस्थान में वो दूसरे प्रोफ़ेसर इक़बाल अंसारी स्मृति व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि आतंक विरोधी क़ानूनों के तहत गिरफ़्तार होने वाले लोगों के प्रति न्यायालय भी पूर्वाग्रही हो जाता है. निचले स्तर की अदालतों में यह मानसिकता कहीं ज़्यादा पसरी हुई है. न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि एक साथ एक अभियुक्त को कोई कोर्ट दोषी मानता और कोई कोर्ट यह फ़ैसला सुनाता है कि मामले में एक भी सबूत ऐसा नहीं है जिससे अभियुक्त को दोषी माना जाय. दिल्ली स्पेशल सेल द्वारा की गई ऐसी फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियों पर जामिया टीचर्स सोलिडैरिटी एसोसिएशन की हाल ही में जारी रिपोर्ट ‘आरोपित, अभिशप्त और बरी’ को उन्होंने महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि ऐसी रिपोर्ट राज्य और सरकार को आईना दिखाती है.
डॉक्टर सुरेश ने कहा कि भारत में असुरक्षा का माहौल तैयार कर मानवाधिकार के दायरे को कसने की तैयारी चल रही है. मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के 1948 के घोषणापत्र का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि  मानवाधिकार की ज़रूरत सामान्य परिस्थितियों से कहीं ज़्यादा आपातकालीन माहौल में होता है. व्याख्यान में उन्होंने कहा, “राज्य यह बताने की कोशिश करता है कि युद्ध की स्थितियों में मानवाधिकार की बात नहीं होनी चाहिए, जबकि यूरोप में युद्ध में हुए जनसंहारों पर ज़ोर देकर मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र ने घोषणापत्र जारी की थी.”
उन्होंने मानवाधिकार संगठनों से एक होकर ऐसे मामलों को उठाने की बात कही. उन्होंने कहा कि दोषी पुलिसकर्मियों को सज़ा दिलाने की ज़रूरत है ताकि लगातार घटने वाली ऐसी घटना पर लगाम कसी जाए. कई-कई साल जेल काटने के बाद यदि किसी व्यक्ति को बेगुनाह करार दिया जाता है तो यह न सिर्फ निजी तौर पर उसके लिए बल्कि परिवार और पूरे समुदाय के लिए तकलीफ़देह होता है. ऐसी प्रवृति किसी भी लोकतंत्र के लिए एक गंभीर ख़तरा है.
उन्होंने कहा कि राज्य ने आकंत विरोधी क़ानून की आड़ में संवैधानिक और नागरिक अधिकारों की खुले-आम धज्जियां उड़ाई हैं. इसकी मिसाल देते हुए वी सुरेश ने कहा कि जब नरसिंहा राव सरकार में टाडा की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी तो पांच जजों की खंडपीठ में दो-दो लोग इसके पक्ष और विपक्ष में थे. जिस तीसरे जज ने अपने वोट से इसे वैधानिकता दी उनको पदमुक्त होने के तत्काल बाद तीसरे वेतन आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. डॉक्टर सुरेश ने कहा कि यह एक नियोजित डील थी.
डॉक्टर सुरेश ने कहा कि हर सरकार देश में कड़े क़ानून लाने का समर्थक रही है. उन्होंने बताया कि जिस यूपीए सरकार ने पोटा को अवैधानिक करार दिया उसी ने उससे भी कड़े प्रावधानों वाले यूएपीए को लागू किया.
व्याख्यान में लंदन विश्वविद्यालय के शोधार्थी मयूर सुरेश ने देशद्रोह और देशप्रेम की अवधारणा को रोचक तरीके से समझाया. उन्होंने कहा कि क़ानूनी भाषा में देशद्रोह का मतलब सरकार के ख़िलाफ़ विद्वेष फ़ैलाना होता है. इसका यह मतलब है कि सरकार चाहती है कि उसके नागरिक उससे प्यार करे, जबकि प्यार करने, न करने की आज़ादी नागरिक अपने मुताबिक़ तय करते हैं. उन्होंने कहा कि सरकार यदि प्यार करने लायक नहीं होगी तो नागरिकों को ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
सभा की अध्यक्षता करते हुए तहलका के पूर्व संपादक अजित साही ने कहा, “अनुभव बताते हैं कि टाडा से ज़्यादा ख़तरनाक क़ानून पोटो और पोटा थे जबकि इनसे भी ज़्यादा दमनकारी क़ानून यूएपीए है. हमने टाडा और पोटा के ख़िलाफ़ लड़ाई जीती है और नागरिक अधिकारों के संघर्ष से हम यूएपीए जैसे दमनकारी क़ानूनों को भी ख़त्म करेंगे.”
मानवाधिकार कार्यकर्ता महताब आलम ने व्याख्यान का संचालन किया. इसका आयोजन मानवाधिकार कार्यकर्ता, प्रोफेसर इक़बाल अंसारी के साथियों और उनके विद्यार्थियों ने किया.

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