तुसलीदास पर्दे के पीछे छिपा रहे रघुबीर

मानस के पाठ की आज की कड़ी में पाठक भक्तजनों का स्वागत है. आज की कथा पर्दे पर है. कथा को आगे बढ़ाने से पहले आप सभी से अनुरोध है कि अपने-अपने विनायकों को प्रदर्शन-वातायन-वीथिकाओं और सभाग्र-शोभित-मंडपों से निकालकर किसी पर्दे के पीछे कर दें वरना आपको बसपा समर्थक मान लिया जाएगा.

हाँ तो हे स्वजनों, कथा तब की है जब रामचरितमानस के रचइता गोस्वामी तुलसीदास को काशी के पंडितों-पंडों-आचार्यों ने विधिवत डंडों और लातों से तुलसीघाट पर पूज दिया था. आपत्ति यह थी कि एक अवधी का ग्रंथ पूरे संस्कृत-निष्ठ वांग्मय को निगल सकता है. एक तरह का प्रतीक और प्रतिमान समाज पर राज कर रहा है. उसके सापेक्ष दूसरे को कैसे स्वीकार कर लें. सो पिटना तो था ही और तुलसी विधिवत पिटे. पिटने के बाद रोते-बिलखते तुलसी की पास की एक वाटिका में गवाक्ष तले आंख लग गई. नींद में एक स्वप्न आया. सपने में था लखनऊ, गोद में था मानस और सामने था आयोग.
आयोग के आचार्य बृहस्पति बोले, खबरदार जो इस किताब को सरेआम लेकर निकले तो. इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना जाएगा. तुमपर निषेधाज्ञा लागू की जाएगी. तुम्हें और तुम्हारे ग्रंथों को दर्शनार्थ रहने नहीं दिया जाएगा.
तुलसी सपने में घबरा गए. सपना टूट गया. देखा, मानस की किताब गोद से छटककर बाहर गिरी पड़ी है. सामने कुछ पंडितों के बच्चे उनकी झोली की ओर ताक रहे हैं. तुलसी ने अंचरा खींचकर देह से अलग किया और मानस पर लपेटने लगे. तिलकधारी राम और लक्ष्मण इन्क्लूडिंग सीता फ्रेम से बाहर. तुलसी पार्क के अंदर. नथिंग ऑन एअर.
तुलसीदास जिस पार्क में थे, वो पार्क स्ट्रीट का इलाका था. पास में हजरतगंज चौराहा था. वहाँ एक लंगोटीवाले की मूर्ति लगी है. मुर्ति के नीचे कुछ गांधीवादी (कथित) प्रदर्शन कर रहे थे कि इतने जाड़े में पर्दे, चादर, कंबल केवल हाथी के लिए क्यों और केवल मायावती के लिए क्यों. बापू को भी कुछ दो न. देखो न, कितनी ठंड है. कुछ पंडितों-पुरोहितों का जुलूस भी पास से गुज़र रहा था. वे सरकारी खर्चे पर शालिग्राम के ठाकुर के लिए कंबल, कपड़ा मांग रहे थे. कमल के फूल के कारोबार पर कोहरे की मार झेल रहे व्यापारी प्रदर्शन कर रहे थे कि तालाबों को भी कवर करवाने की व्यवस्था हो ताकि खेती पर असर न पड़े. लोगों के कपड़ों की होली जलाकर आग ताप रहे हाथ भी अपने लिए सरकारी दस्तानों की मांग कर रहे थे. साइकिल वाले तो कार और हाथी की तरह की साइकिल कवर के लिए उग्र होने की स्थिति तक सड़कों पर उतर आए थे.
दरअसल, चुनाव आयोग का यह आदेश कि राज्य भर के हाथियों को ढक दो, मायावती को कवर करो, से कुछ सधनेवाला नहीं है. यह भी सही है कि यह फैसला आज का नहीं है. कई मीडियाकर्मी इस आदेश के बारे में भूल गए हैं. आदेश 2009 का है. चुनाव अब है तो आदेश फिर से मैनाक पर्वत बनकर सामने आ गया है. पर यहाँ सवाल आयोग की भूमिका, आदेश के औचित्य और प्रभाव से जुड़ा हुआ है.
मायावती की मूर्तियों और पार्कों में खड़े प्रस्तर हाथियों पर पर्दे लगाने से सरकारी धन के दुरुपयोग की लकीर छोटी नहीं, और लंबी होगी. दुरुपयोग की कथा को केवल एक पार्टी से जोड़कर देखना और बाकी सदाबर्त दुरुपयोगियों को बक्श देना भी असमानता से ग्रस्त सोच और मानसिकता है.
इस ताज़ा आदेश से मायावती को छिपाया नहीं जा सकता. न ही अनदेखा करवाया जा सकता है. पर्दे के पीछे की चीज़ें पर्दे के बाहर की चीज़ों से ज़्यादा कौतुहल पैदा करती हैं. इस जिज्ञासा के मेले से मायावती को लाभ ही होगा, नुकसान नहीं. पर्दा लगेगा तो पर्दे की बातें होंगी, पर्दे के पीछे की चीज़ों को देखने का पर्यटन विकसित होगा और पर्दा अकारण ही माया महान महिमा महान का गौरवगान बनेगा.
बुर्का पहन लेने से चेहरा नहीं बदलता और वही बात सूबे की राजनीति पर भी लागू होती है. अगर रोकना है तो अपराधी तत्वों, दंगाइयों, चोरों, भ्रष्टों, दलालों, माफिया, बलात्कारियों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. अगर रोकना है तो पैसे के प्रवाह में बिकते-बहते वोटों, टिकटों और झंडों को रोकना चाहिए. अगर वाकई चुनाव की निष्पक्षता और माहौल की निरपेक्षता तय करनी है तो लोगों के भीतर क़ानून-व्यवस्था के ईमानदार और ज़िम्मेदार होने का विश्वास दिलाइए.
जिस देश में चुनाव संहिता ही ध्वस्त हो चुकी हो, वहाँ चुनाव की आचार संहिता का प्रलाप सांप के इर्द-गिर्द लाठी पीटने जैसा है. टिकटों की बंदरबांट और अपराधियों के बोलबाले को बच्चा-बच्चा करीब से देख-समझ सकता है. यह आयोग को भी दिखे, इसपर कुछ सख्त कार्रवाई हो और सुधारा जा सके तो बात बने.
नोट- फेसबुक पर साथी सुंदरम की टिप्पणी यहाँ काबिल-ए-ग़ौर है.- आइए, एक नयी पार्टी शुरू करें और उसका चिन्ह इंसान रखें. तब कम-से-कम चुनाव आयोग की कृपा से सब आदमियों को कपड़ा तो नसीब हो जाएगा

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