ज़मीर के कैदियों की राजनीतिक दास्तान

यह उत्तराखण्ड पुलिस की कारस्तानी का नतीजा था कि मुझे प्रदेश की जेलों में पूरे पौने चार साल तक दुर्दान्त उग्रवादी का दर्जा हासिल हुआ. जमानत पर रिहा हुए अब 5 महीने हो चुके हैं. मगर देश के विभिन्न जेलों में उग्रवादी के रूप में कैद मेरे हजारों भाइयों और बहनों के प्रति मेरी हमदर्दी कम होने का नाम नहीं ले रही है. उनके साथ भी कमोबेश वही सब कुछ हुआ होगा जो मेरे साथ हुआ. यह सोचकर मेरे मन में वह तिरस्कार कभी नहीं उत्पन्न हो सकता जो पुलिस-तन्त्र मीडिया के अपने वफादार मित्रों के माध्यम से आम नागरिकों के बीच जगाने का प्रयास करता है. मैं उनका आदर करने के पक्ष में हूँ. क्योंकि वे इसलिए जेल में नहीं है कि उन्होंने किसी व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने या व्यक्ति विशेष को लाभ पहुँचाने की नीयत से और निजी हित से संचालित होकर कोर्इ कार्य किया. बल्कि इसलिए कि उनके राजनीतिक मत इस व्यवस्था को स्वीकार्य नहीं थे. जो लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे उन्हें मैं लोकतंत्र का सैद्धांतिक बिगुल पफूँकनेवाले, 18 वीं सदी के फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्टेयर के उन शब्दों की याद दिलाना चाहता हूँ कि – \’\’मैं तुम्हारे विचारों से सहमत हूँ या नहीं, यह दीगर बात है. मगर तुम्हें अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार मिले, इसके लिए मैं अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार हूँ. लोकतंत्र के उस बुनियादी उसूल को याद करने का यही सही समय है. इसलिए कि लोकतंत्र की ही रक्षा करने के नाम पर पिछले 4-5 सालों में सलाखों के पीछे ढकेल दिये गये बंदियों की तादाद सैकड़ों से हजारो-हजार तक पहुँच रही है.

मुझे रिहा होने का मौका मिला. इसलिए इस मौके का लाभ उठाकर मैं दुनिया के सामने ऐसे ढेरों तथ्य उजागर कर सका हूँ जो मेरे हजारों भार्इ-बहन नहीं कर पा रहे हैं. जैसे कि यह कि कैसे ऐसे ही सर्दियों के एक दिन, भरी दुपहरी में, देहरादून शहर की एक व्यस्त सड़क से खुफिया पुलिस ने मेरा अपहरण कर लिया था. कि किन-किन स्थानों पर मुझे अवैध् हिरासत के दौरान रखा गया, और 5 दिन-5 रात तक लगातार क्रूर यातनाएँ दी गयीं और बाद में कर्इ सौ किलोमीटर दूर स्थित किसी दूसरे जिले के दूरस्थ थाने में एफ.आर्इ.आर. दर्ज करायी गयी. इसी के तहत मुझे कर्इ दिन बाद गिरफ्तार किया गया, बाद में तीन अन्य व्यक्तियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और अब हम सब को एक ऐसे मुकदमे में फँसाया जा चुका है, जिसका फैसला कब होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. जमानत पर रिहा होने के बाद भी हम सालों साल अपने ज़मीर के कैदी बने रहेंगे.
आरोप है कि मेरी गिरफ्तारी से 3 माह पहले से हम जंगल में बसे कुछ गाँव के निवासियों के लिए ट्रेनिंग कैम्प चला रहे थे. कि मुझे इसी जंगल में दबोच लिया गया था, जबकि अन्य तीनों को वहाँ से भाग निकल जाने पर बाद में पकड़ा जा सका. मैंने ही पुलिस को लैपटाप, सीड़ी आदि उसी जंगल से बरामद करा दी, जिससे पता चला कि हमारे तथाकथित कैम्प में भारतीय राज्य के खिलाफ जंग छेड़ने और कानून द्वारा स्थापित सरकार का तख्ता पलटने की साजिश रची जा रही थी.  और कि यह योजना कानून द्वारा प्रतिबंधित संगठन भाकपा(माओवादी) के अधीन, उसी संगठन के केन्द्रीय सैन्य प्रशिक्षकों की रहनुमार्इ में, जो कि आज तक अज्ञात हैं, अमल में लायी जा रही थी. कि 3 माह के इस कैम्प के दौरान हमने उक्त लैपटाप से उक्त सीडी पर ऐसी फिल्में दिखायीं, जिससे कि ग्रामीणों के बीच से माओवादी समर्थक तैयार हों और उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया जा सके. यह कि वहाँ के गरीब किसानों को हम यह बताकर लामबन्द करते थे कि देश की आजादी के इतने साल बाद भी आपको कुछ नहीं मिला. न तो जीवनावश्यक सुविधाएँ मिलीं और न ही जोतने को जमीन या फिर कोर्इ रोजगार. ऐसी आजादी झूठी आजादी ही कहलाएगी. अत: हमें सच्ची आजादी के लिए संघर्ष करना होगा. जिसमें हमारी जरूरतें पूरी हों. इसीलिए इस व्यवस्था को उखाड़ फेंककर जनता के हक में नयी माओवादी व्यवस्था लागू करनी होगी. और कि हमारा इस तरह कहना और करना हमें सरकार के खिलाफ जंग छेड़ने, राजद्रोह को अंजाम देने और राष्ट्र की सम्प्रभुता को भंग करने का दोषी ठहराने के लिए काफी है. यही है लुब्बोलुबाब हम पर लगे आरोपों का ब्यौरा.
है न दिलचस्प बात? मैं खुद भी पुलिस के अफसरान की इस सृजनशीलता की दाद देता हूँ. जरा-जरा सी जो कमियाँ रह गयी हैं वो केवल इसीलिए कि यह क्षेत्र माओवादियों की गतिविधियों से अब तक अछूता रहा है. इसीलिए उनकी कार्यप्रणाली ठीक-ठीक कैसी होती है इसका ज्ञान पुलिस अफसरों को नहीं हो सकता था. महज कल्पना के ही सहारे वे इससे बेहतर कोर्इ किस्सा नहीं रच सकते थे. माओवादियों के राजनीतिक तर्कों को भी उन्होंने बड़े ही मोटे दिमाग से ग्रहण किया है. मानो जनता को सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार करना इतना सरल काम हो. जो भी हो, इसमें कोर्इ शक नहीं कि पुलिस की यह कार्यवाही अपराध्-निवारण की न होकर खुद-ब-खुद एक राजनीतिक कार्यवाही थी. जनता को लामबन्द करने की माओवादी राजनीति के खिलाफ जनता को सरकार के प्रति वपफादार बनानेवाली सत्ता-पक्ष की राजनीति. मुकदमे की प्रकृति अगर शत-प्रतिशत राजनीतिक ही है, तो क्यों नहीं मेरे साथ राजनीतिक बर्ताव किया गया? क्यों मेरे साथ वही सब कुछ किया गया जो शातिर अपराधियों के साथ पुलिस आम तौर पर करती आयी है? मसलन मुकदमे को तदबीर देने के लिए गिरफ्तारी, बरामदगी, जुर्म-इकबाली, आदि की झूठी कहानी गढ़ना और इसके लिए र्इश्वर को साक्षी मानकर भरी अदालत में शपथ लेकर झूठे बयान भी दर्ज करवाना? जिन मीडियाकर्मियों ने पुलिस की इस निरी किस्सागोर्इ को अपनी रिपोर्टों के माध्यम से वैधता प्रदान की उन्हें हम क्या समझें – लोकतंत्र के पहरेदार या राज्यतंत्र के क्रीतदास?
जो कुछ मेरे साथ हुआ वह कोर्इ अपवादस्वरूप वाकया होता तो यह अकेले मेरे ही लड़ार्इ बनकर रह जाती. अपने इस उत्तराखण्ड के बाहर निकलकर पता करने लगता हूँ तो एक-एक कर मुझे कर्इ सारे एक-जैसे मामले दिखायी देते हैं. निकटवर्ती उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही मामले हैं. इनमें से एक है मेरी हम-पेशा सीमा आजाद और उसके पति विश्वविजय का मामला. दो साल से ये दोनों नैनी सेण्ट्रल जेल में कैद हैं. अचानक इन्हें इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर तब दबोच लिया गया था, जब सीमा दिल्ली से \’विश्व पुस्तक मेले से खरीददारी करके लौट रही थीं और विश्वविजय उन्हें अपनी मोपेड से घर ले जाने आये थे. उनको उठाये जाने की खबर शहर में तुरन्त फैल गयी थी, इसलिए पुलिस को कोर्इ लम्बी-चौडी कहानी गढ़ने का अवसर नहीं मिल पाया. फिर भी अपने आरोपों को तदबीर देने के लिए पुलिस ने उनके किराये के कमरे से जब्त हुए वैध् समानों के साथ ऐसे कागजात और दस्तावेज भी बरामद दिखाये जिनसे उनके तार प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) के कथित नेताओं से जुड़े दिखाये जा सकते हों. सीमा के पिता, जो कि सेवानिवृत्त श्रम-आयुक्त हैं, यह कहते हैं कि एक पन्ने की जिस फर्द पर पुलिस ने सीमा-विश्वविजय के कमरे से बरामद वैध् सामानों की सूची दर्ज कर गवाह के तौर पर उनके दस्तखत करवा लिये, उसके आगे, बाद में 6 और पन्ने जोड़े गये, जिस पर उन दस्तावेजों और कागजात की सूची दर्ज की गयी जिनकी बरामदगी फर्जी तौर पर दिखायी गयी है. चूँकि यह दूसरी बरामदगी फर्जी थी, अत: बरामदगी की फर्द के पहले 6 पन्नों पर किसी गवाह के दस्तखत नहीं हैं. जबकि वास्तव में बरामद किये गये समानों की सूची के नीचे गवाहों के दस्तखत मौजूद हैं. पुलिस ने चालाकी से इस एक पन्ने पर पृष्ठ संख्या 1 के बजाय पृष्ठ संख्या 7 लिख दिया है. सीमा का सम्बन्ध् माओवादियों के साथ दर्शाने वाली सामग्री का उल्लेख जिन 6 पन्नों पर है उन्हें अदालत यदि फर्जी मान लेगी, तो आरोप कहीं नहीं टिक पायेंगे. मजे की बात यह है कि जिन 2-3 माओवादी नेताओं के साथ सीमा के सम्पर्क बताये जा रहे हैं, वे सभी फिलहाल विचाराधीन बन्दी के रूप में जेलों में हैं. चूँकि इन नेताओं पर कोर्इ जुर्म अभी साबित नहीं हुआ है, अत: इन्हें माओवादी माना जाना कानून की निगाह में सही नहीं होगा. इस तरह सीमा-विश्वविजय का कोर्इ जुर्म साबित हो सकता है, ऐसी कोर्इ सम्भावना कानूनी विशेषज्ञों को नजर  नहीं आ रही है.
शायद यही वजह थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने सीमा को जमानत देना जरुरी न समझ सत्र न्यायालय को मुकदमे की सुनवायी 2011 के अन्त तक पूरी कर त्वरित फैसला देने का आदेश जारी किया. इस लेख के छपने के एक-आध हफ्ते के भीतर ही दोनों बाइज्जत बरी हो सकते हैं, इस बात की प्रबल सम्भावना व्यक्त की जा रही है.
यह आम चर्चा का विषय है कि सीमा-विश्वविजय को इसलिए फँसाया गया कि उन्होंने अपनी \’दस्तक पत्रिका के मार्फत कर्इ ऐसे मुददे उठाये थे जिनसे सत्ताधरियों की असुविधा बढ़ चली थी. एक तरफ तो उन्होंने \’आपरेशन ग्रीनहण्ट के नाम से माओवादी आन्दोलन को बन्दूक के दम पर कुचलने के सरकारी प्रयासों की मुखालफत जारी रखी हुर्इ थी, तो दूसरी तरफ स्थानीय रेता माफिया का भण्डाफोड़ करते हुए ऐसे कर्इ तथ्य उजागर किये थे जो पुलिस के साथ मिलीभगत की ओर इशारा कर रहे थे. माओवाद-विरोधी  इस मुकदमे की राजनीतिक मंशाओं के बारे में फिलहाल इतना कहना ही काफी है.
उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश से हटकर यदि हम सीधे-सीधे माओवादी सशस्त्र संघर्ष की रणभूमि – बिहार-झारखण्ड-छत्तीसगढ़-उड़ीसा-बंगाल-तेलंगाना-विदर्भ की बात करें, तो इस तरह के अनगिनत फर्जी मुकदमों और मनगढ़न्त आरोपों का खुलासा किया जा सकता है. यहाँ एक ऐसे मुकदमे की चर्चा करना सबसे ज्यादा मुनासिब होगा जिसके राजनीतिक निहितार्थों का खुलासा स्वयं न्यायपालिका के फैसलों से ही हो जाता है. बात है लोक कलाकार जीतन मराण्डी समेत 4 झारखंडियों को फाँसी की सजा सुनाये जाने और फिर चन्द महीनों के अन्दर उन्हें बाइज्जत बरी किये जाने के परस्पर-विरोधी अदालती फैसलों की.
अप्रैल 2008 में राँची में किसी अन्य मुकदमे में गिरफ्तार किये गये झारखण्ड के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी जनसंस्कृति के आदिवासी वाहक जीतन मराण्डी को 6 महीने पहले के गिरीडीह के चिलखारी गाँव के एक माओवादी सैन्य हमले में आरोपी बना दिया गया. जबकि दुनिया जानती है कि जीतन माओवादी राजनीति के खुले प्रचारक अवश्य हैं, पर सैन्य कार्रवाइयों में कभी शरीक नहीं होते. जिस दिन चिलखारी का हमला हुआ उस दिन भी वे अपने एक लोकप्रिय विडियो एल्बम की शूटिंग में अन्यत्र व्यस्त थे. पुलिस ने उनके राजनीतिक विश्वासों के ही चलते उन्हें और उनके समर्थकों को सबक सिखाने के इरादे से इस हमले का मुख्य आरोपी बना डाला. फिर क्या था, मुकदमे में साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग हुआ. 23 जून 2011 को अपर सत्र न्यायाधीश इन्द्रदेव मिश्र ने पुलिस की झूठी कहानी को सच बताकर जीतन समेत 4 व्यक्तियों को वह कठोरतम सजा सुना दी जो क्रुरतम अपराधों के लिए सुरक्षित रखी जाती है. जीतन के जीवन और कार्यों से परिचित लोग हक्का-बक्का रह गये. स्थानीय पैमाने पर तो प्रशासन की इतनी दहशत थी कि जीतन की पत्नी अर्पणा और इक्का-दुक्का निकटतम दोस्तों के अलावा उनके पक्ष में खुलकर कोर्इ बोलने को ही तैयार नहीं था. अन्तत: नवम्बर मध्य में जब देश भर से आये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने \’जन कलाकार जीतन मराण्डी रिहार्इ मंच के बैनर तले राँची में डेरा डाला, तब कहीं यह सन्नाटा टूट सका. उसके बाद जो हुआ वह किसी चमत्कार से कम नहीं था. आये हुए कार्यकर्ताओं ने अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए राँची के राजनीतिक एवं बौद्धिक जगत में जीतन की रिहार्इ के पक्ष में जोरदार अभियान चलाया. अभियान के पीछे यह स्पष्ट समझदारी थी कि गृह-युद्ध से ग्रस्त झारखण्ड में प्रशासन की कठपुतली बनी न्यायपालिका के स्वतंत्र विवेक को जागृत करने के लिए सड़कों पर धरना-प्रदर्शन आदि से लोकतांत्रिक प्रतिरोध खड़ा करना जरूरी होगा. एक महीने के अन्दर अपेक्षित परिणाम सामने आया. दो-सदस्यीय उच्च न्यायालय की पीठ ने 15 दिसम्बर 2011 को जो फैसला सुनाया वह निचली अदालत के विवेक पर एक करारा प्रहार था. न्यायमूर्तिद्वय आर. के. मेराठिया और डी.एन. उपाध्याय ने अपने फैसले में राज्य और अभियोजन पक्ष पर यह सख्त टिप्पणी की कि अगर चिलखारी का कथित हमला एक क्रूर कृत्य था तो उस मामले में जीतन सहित 4 व्यक्तियों को झूठा फँसाना भी क्रूर कृत्य ही था. पुलिस के आरोपों को सिरे से नकारने वाले इस सराहनीय न्यायिक आदेश को माओवादी गतिविधियों की रणभूमि के तीखे राजनीतिक द्वन्द्व से काटकर नहीं देखा जा सकता. यह जमीनी स्तर पर संघर्षरत लोकतंत्र के पहरेदारों की एक बहुमूल्य जीत है.
इसी तरह की एक जीत नये साल में विदर्भ, महाराष्ट्र में दर्ज की गयी जब माओवाद-समर्थक एक बुद्धिजीवी अरूण फरेरा प्रशासन के तमाम हथकण्डों के पर्दापफाश के क्रम में जेल से रिहा होकर सुरक्षित घर पहुँचे और 11 जनवरी को मुम्बर्इ में मीडिया से मुखातिब हो सके.
फिर भी इस तरह के राजनीतिक मुकदमों की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि न्याय कि वेदी से मिली इन जीतों पर जश्न मनाने की बात किसी को नहीं सूझ रही है. झारखण्ड के ही प्राय: हर जिला कारागार में 100 से 200 तक ऐसे बंदी हैं जिन पर वैसी ही धाराएँ लगी हैं जो कथित माओवादियों पर लगती हैं. यानि कि \’विधि-विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (अंग्रेजी में यू.ए.पी.ए.) या आर्इ.पी.सी. की धारा 124 ए (राजद्रोह) या धारा 121 (सरकार के खिलाफ जंग छेड़ना), धारा 121ए (सरकार के खिलाफ आपराधिक साजिश रचना), आदि राज्य-विरोधी संगीन धाराएँ या फिर आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम जैसे पुरातन दण्ड-विधान की धारा 17 सरीखा कोर्इ प्रावधन. जीतन मराण्डी की पैरवी में लगे उनके मित्रों के समूह का मोटा अनुमान है कि इस तरह के राजनीतिक बंदियों की कुल तादाद झारखण्ड में 3000 से अधिक होगी. इससे भी बुरा हाल छत्तीसगढ़ का बताया जाता है. हाल में बस्तर की जेलों का जायजा लेने पहुँचे \’जन अधिवक्ताओं के भारतीय संघ (आर्इ.ए.पी.एल.) से जुडे ए. दशरथ ने लौटकर बताया कि वहाँ का राजनीतिक बंदियों का आँकड़ा 5000 से कम नहीं होगा. कुछ जेलों में आदिवासी बंदियों को इस कदर ठूँस दिया गया है कि बैरकों में पाँव रखने तक की जगह नहीं है. रायपुर स्थित अधिवक्ता सुधा भारद्वाज से पता चला कि हजारों बन्दी ऐसे हैं जिनके मुकदमों की सुनवार्इ होना तो दूर, उन्हें यह भी नहीं पता कि उन पर क्या आरोप हैं. सुदूरवर्ती गाँवों से परिजन जेल में आकर मुलाकात कैसे कर पायेंगे और अपनी बेइन्तहाँ गरीबी की स्थिति में कानूनी पैरवी कैसे करायेंगे? इस तरह के सवालों को सुनने वाला भी कोर्इ नहीं है. यह वही प्रदेश है जिसमें बिनायक सेन जैसा कोर्इ डाक्टर मानवतावाद के चलते आदिवासी पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज उठाये या उनके किसी रहनुमा को जेल में जाकर इलाज करे तो उसे उम्र कैद की सजा सुना दी जाती है. यह वही प्रदेश है जहाँ पत्राकार लिंगाराम कोडोपी को झूठा फँसाये जाने का विरोध करने वाली स्कूल अध्यापिका सोनी सोरी को भी आरोपी बनाकर सलाखों के पीछे ढकेल दिया जाता है, जहाँ सबक सिखाने के लिए क्रूरता की हदें पार की जाती हैं.
इस प्रकार विभिन्न राज्यों से जुटाये गये अनुमानों के आधर पर यह कहा जा सकता है कि फिलहाल देश में माओवादी गतिविधियों के दायरे में रखे जानेवाले बंदियों की तादाद 12000 के आसापास होगी. मगर राजनीतिक कारणों से बन्दी बनाये जाने वाले कथित उग्रवादी सिर्फ इसी दायरे के नहीं है.
दिल्ली विश्वविधालय के कश्मीरी प्रोपफेसर एस.ए.आर. गिलानी अपनी कौम की पीड़ा सुनाते-सुनाते भावुक हो उठते हैं. कश्मीरी युवकों पर लादे जाने वाले फर्जी मुकदमों की फेहरिस्त उठाकर वे कहते हैं कि \’\’मैं समझता हूँ कि इस सिलसिले से हिन्दोस्तान की असीमता की नींव ही खोदी जा रही है. अखबारों में पुलिस का यह दावा तुरन्त छा जाता है कि फलां शहर से कश्मीर का फलां निवासी फलां उग्रवादी संगठन के लिए पाकिस्तान के इशारे पर कार्य करता हुआ दबोच लिया गया. आरोप चाहे झूठा ही क्यों न हो, अपने वतन से दूर कहीं अपनी शिक्षा या रोजी-रोटी की तलाश में आये ऐसे युवा का करिअर हमेशा-हमेशा के लिए चौपट कर दिया जाता है. यहीं से शुरू हो जाती है अनगिनत परिवारों के आर्थिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक हालात के साथ खिलवाड़ करने की मुहिम. इस पर भी सुरक्षा एजेंसियां बर्ड़ी सफार्इ से मुकदमों की पैरोकारी में एक के बाद एक पेंच फँसाते जाते हैं जिससे कि कश्मीरी बन्दी एक बार कैद हुआ तो वहीं का होकर रहे. जेल के भीतर \’हार्इ-रिस्क कैदी का तमगा देकर एकान्तवास में डाला जाता है. जिससे मानसिक तौर पर व्यक्ति टूटता चला जाय. फिर दूर से जब कोर्इ परिजन जेल मुलाकात करने चला आये, तो कर्इ बार तरह-तरह के अडंगे लगाकर उसे मिलने का मौका दिये बिना ही वापस भेज दिया जाता है. गुजरात में बशीर अहमद नामक ऐसा ही एक युवक है जिसके मुकदमे की सुनवार्इ दो साल बीतने पर भी शुरू नहीं हो पायी है. बंगलुरू में तो ऐसे भी युवक हैं जिनकी सुनवार्इ 6-6 साल से रुकी पड़ी है.
जम्मू-कश्मीर की ही तरह उत्तर-पूर्व के राज्यों मणिपुर, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, असम, आदि में क्षेत्रीय जनमुद्दों के साथ ही आत्मनिर्णय के अधिकारों से संबंधित मांगें उठती रही हैं, जिनमें भारतीय संघ से अलग होने की मांग भी शामिल है. लम्बे समय तक इन मांगों का समुचित राजनीतिक समाधान न हो पाने के कारण कहीं-कहीं सशस्त्र संघर्ष की राह पकड़ने वाले संगठनों एवं पार्टियों का निर्माण हो चुका है. अनुभव यह बताता है कि चरमपन्थ, चाहे क्षेत्रीय राजनीतिक आकांक्षाओं से प्रेरित हो या वर्गीय, जैसा कि माओवादी राजनीति है, इसे महज राज्य की कानून व्यवस्था का सवाल मानकर निपटने की कोशिश अक्सर उल्टा असर डालती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अन्धाधुंध गिरफ्तारी और सैन्य कार्रवार्इ के उपाय कामयाब हो पायेंगे? उत्तर-पूर्वी और कश्मीरी उग्रवाद के नाम पर कार्यकर्ताओं और समर्थकों को पकड़कर न सिर्फ जेलों में डाल दिया जाता है, बल्कि कइयों को तो सरकारी फौज के कैम्पों में ही बन्दी बनाये रखे जाने की खबरें हैं. अनुमानत: इस तरह के कुल 3000 राजनीतिक बन्दी होंगे. माओवादी दायरे के बंदियों को साथ जोड़कर देखा जाय, तो कुल संख्या 15000 हो जाती है.
अब गौर करें हमारे देश के सबसे बड़े धर्मिक अल्पसंख्यक जन समुदाय के बीच के राजनीतिक बंदियों पर. साम्प्रदायिक दंगे हों या सार्वजनिक स्थानों पर बम विस्फोट, क्या वजह है कि गिरफ्तार किये जाने वाले लोग अक्सर मुसलमान ही होते हैं? भगवा आतंकवादियों का हाथ हाल में कर्इ सारी वारदातों में पाया जाने लगा है. फिर भी एक ही कौम को झूठा फँसाने की राजनीति मुसलसल जारी है. इनमें कुछ तो बाइज्जत बरी भी किये जा चुके हैं. जैसे हैदराबाद के मक्का मस्जिद विस्फोट के बीसियों युवक, लखनऊ कचहरी बम विस्फोट के अजीजुर्रहमान, कानपुर बम काण्ड के गुलजार अहमद वानी आदि. लेकिन अभी कम से कम 1000 ऐसे युवक होंगे जो इस्लामी उग्रवाद के नाम पर विभिन्न जेलों में हैं. उपरोक्त गुलजार अहमद, जो कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में अरब साहित्य के बड़े सम्भावनाशील शोध् छात्र रह चुके हैं, 11 साल तक विभिन्न जेलों में पड़े रह गये हैं. एक मुदकमे से बरी किये जाने पर इन पर तुरन्त किसी दूसरे मुकदमे का आरोप लगा दिया जाता है. बड़ा जोखिम उठाकर ऐसे ही मुकदमों की पैरवी करने वाले लखनऊ के समाजवादी अधिवक्ता मोहम्मद शोएब का मानना कुछ इस तरह है – भारतीय राज्य को संचालित करने वाली अन्धराष्ट्रवादी शक्तियों ने पहले दंगों की राजनीति को उपयुक्त मान मुसलमानों को पाकिस्तान का पक्षधर बताकर उन पर कहर बरपाया. जहाँ यह तरकीब पुरानी पड़ने लगी वहीं अब प्रच्छन्न हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने मुसलमानों को देश की राजनीति के हाशिये पर डालने के लिए बम विस्फोटों का प्रायोजन शुरू कर दिया. कहा जा रहा है कि इन्हीं शक्तियों की सहायता कर रही हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने हाल फिलहाल इन अमानवीय हरकतों का ठीकरा इस्लामपंथियों के मत्थे फोड़ने के लिए \’सिमी के नये अवतार के रूप में \’इंडियन मुजाहिद्दीन नामक नयी तनजीम की ओर से र्इमेल जारी करना शुरू कर दिया है.
उपरोक्त के अलावा तमिल चरमपन्थ और पंजाब के सिख चरमपन्थ के कथित समर्थक भी खासी तादाद में हमारी जेलों में सालों साल कैद हैं. इस प्रकार देशभर के राजनीतिक बंदियों का आँकड़ा 18000 के स्तर को छूता दिखायी देता है. प्रश्न यहाँ यह है कि हजारों की तादाद में इन बंदियों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए? संबंधित आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों का समाधन राजनीतिक संवाद को बढ़ावा देने की र्इमानदारी से पहल कर सभी बंदियों की मुक्ति का रास्ता खोलना ही उचित होगा. हमारे इस विशाल देश के जटिल राजनीतिक परिदृश्य में वोल्टेयर की लोकतांत्रिक विरासत की बुनियाद मजबूत करने का यही फौरी नुस्खा हो सकता है.
इन्हीं बंदियों के नेतृत्व में पिछले दिनों नागपुर, कानुपर, कोलकाता, आदि जेलों में वहाँ की दुर्दशा के विरुद्ध अनेक भूख हड़तालें हुर्इ हैं. इन हड़तालों के दौरान उठी जायज मांगों की तत्काल पूर्ति की जानी चाहिए. राजनीतिक बन्दी का दर्जा दिया जाना ऐसी ही एक ज्वलन्त मांग है. राजनीतिक बन्दी की परिभाषा क्या हो, इस पर मानवाधिकार संगठनों में कोर्इ एक राय नहीं है. कुछ का मानना है कि जहाँ कहीं भी हिंसा के प्रयोग का आरोप हो, उस मुकदमे से संबंधित बन्दी को राजनीतिक नहीं माना जा सकता. इस मत के प्रबल पक्षधरों में सेवा-निवृत्त न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर भी शामिल हैं. दूसरी और राजनीतिक बन्दी रिहार्इ कमेटी के महासचिव प्रोफेसर अमित भट्टाचार्य बताते हैं कि पश्चिम बंगाल के मानवाधिकार आन्दोलन के दबाव में इस सवाल को काफी पहले हल किया जा चुका है. कारागारों को सुधार गृह में तब्दील करने की मंशा से 1992 में पारित हुए वहाँ के \’करेक्शनल सर्विसेस एक्ट में आम बन्दी और राजनीतिक बन्दी में फर्क किया गया है. तदअनुसार आम बंदियों का कथित अपराध् उनके निजी हितों या स्वार्थों से संबंधित होता है. जबकि राजनीतिक बन्दी की खास पहचान ही यह है कि आरोप उसके निजी हित से संबंधित न होकर देश या समाज के किसी तबके के हित से या विचारधारा विशेष से प्रेरित होकर किये जाने वाले अपराध से संबंधित होता है. आरोप किस कानून की किस धरा के अन्तर्गत दर्ज है और हिंसक वारदात का कोर्इ आरोप शामिल है या नहीं, इस बात का राजनीतिक बन्दी के दर्जे से कानूनन कोर्इ सम्बन्ध् नहीं हो सकता.
देश के सभी जेलों में इसी तरह की व्यवस्था लागू करना हमारे देश के हजारों राजनीतिक बंदियों को सम्मानजनक दर्जा दिलाने के साथ-साथ उन्हें पठन-पाठन, भोजन, आदि की समुचित मानवीय सुविधा मुहैया कराने के लिए नितान्त आवश्यक है. जब तक यह मांग पूरी नहीं होती, तब तक अपने समाज में विरोधी राजनीतिक विचारों का सम्मान करते हुए तर्क-वितर्क की संस्कृति विकसित कर पाने की आकांक्षा कभी न पूरा होने वाला सपना ही बना रहेगा.

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