चली बादलों के पार, होके डोर पे सवार…

जश्न-ए-आज़ादी के दिन दिल्ली के लालक़िले पर तिरंगा झंडा ही नहीं लहराता, बल्कि इस राष्ट्रीय त्योहार पर हज़ारों नौजवान अपनी पतंगे लहरा-लहरा कर देश की आज़ादी के जज़्बे का प्रदर्शन करते हैं. इस दिन सबकी निगाहें चांद, तारे और सूरज पर नहीं, बल्कि उन रंग-बिरंगी पतंगों पर होती है, जिसमें आज़ादी का जज़्बा भी हिलोरे ले रहा होता है.

(अफ़रोज़ आलम \\\’साहिल\\\’)

दरअसल, 15 अगस्त यानी “जश्न-ए-आज़ादी” करीब आते ही दिल्ली के सड़कों के साथ-साथ आसमानों के नज़ारे अचानक बदल जाते हैं. सारा आसमान पतंगों से पट जाता है. मानो आसमान के कैनवास पर रंग ही रंग ही बिखर गए हो. कोई कन्नी बांध रहा है, तो कोई चरखी लपेट रहा है. कहीं पतंगों को लूटने के लिए गलियों में दौड़ लगाते बच्चे… कहीं छतों पर चिलचिलाती धूप में खड़े होकर पतंग उड़ाते बड़े व बूढ़े… यानी छत, छज्जों, मैदानों, हर तरफ पतंगबाज़ों का क़ब्ज़ा.
फर्र-फर्र उड़ती पतंगे… कहीं खींच तो कहीं ढ़ील… कहीं पीछे लहराती एक लम्बी पूंछ… तो कहीं अपने पीछे ढ़ेर सारी पतंगों की कतार लिए उड़ती कागज़ की परी… कहीं तिरंगा तो कहीं चांद-तारा… कहीं तुक्कल तो कहीं लग्गू… कहीं आदमी तो कहीं चिड़िया… कहीं तो कहीं कछुआ व तितली और न जाने कितने तरह के कागज़ी हवाई-जहाज़ आसमान में अपना जलवा बिखेरते नज़र आते हैं.
दिल्ली के साथ पतंग का यह रिश्ता बेहद पुराना है. जब को लोग ‘इंद्रप्रस्थ’ के नाम से जानते थे, तब भी पतंग के किस्से सुनने को मिलते हैं. उस युग में कृष्ण कन्हैया गोपियो के संग रासलीला ही नहीं रचाते थे, बल्कि पतंग भी उड़ाते थे.
पतंगबाज़ी का इतिहास
पतंग उड़ाने की रिवाज आज से लगभग 3000 साल पहले चीन में शुरु हुआ, लेकिन पतंगबाज़ी के खलीफ़ा व उस्तादों का मानना है कि सबसे पहला पतंग ‘हकीम जालीनूस’ ने बनाई थी. कुछ ‘हकीम लुकमान’ का भी नाम लेते हैं. वो बताते हैं कि यूनान के शहज़ादे को लकवा मार गया. बादशाह के ऐलान के बाद सैकड़ों हकीमों ने अपने-अपने नुस्खे आजमाए, लेकिन कोई कामयाब न हुआ. बादशाह बहुत मायूस हो गए, और शहज़ादे के ठीक होने की उम्मीद छोड़ दी. लोगों ने शहंशाह को हकीम जालीनूस को बुलाने की सलाह दी. अंतिम उम्मीद के रुप में शहंशाह ने जालीनूस को पैग़ाम भेजा. जालीनूस ने आकर पतंग के शक़्ल की कोई चीज़ बनाई और शहज़ादे को समुद्र किनारे जाकर आसमान में उड़ाने को कहा. कई महीनों तक ऐसा करने से उसके शरीर में हरकत शुरु हुई और वो पहले की तरह स्वस्थ हो गया. शहंशाह बहुत खुश हुआ और जालीनूस को ढ़ेर सारे इनामों से नवाज़ा.
बहरहाल, कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ ‘पतंग’ भारत पहुंची. यहां इसका अपना एक अलग इतिहास है. मुग़ल-दरबार में इसका ऐसा बोलबाला और खुमार था कि राजा-रजवाड़े, जागीरदार एवं वज़ीर भी पतंगबाज़ी में खुद हिस्सा लेते थे. मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र भी पतंगबाज़ी के आशिक थे.
मुग़लिया दौर के बाद लखनऊ, रामपुर, हैदराबाद आदि शहरों के नवाबों में भी इसका खुमार चढ़ा. उन्होंने इसे एक बाज़ी की शक़्ल दे दी. उन्होंने अपनी पतंगबाज़ी को ग़रीबी दूर करने का माध्यम बनाया. वो पतंगों में अशरफ़ियां बांध कर उड़ाया करते थे और आखिर में पतंग की डोर तोड़ देते थे, ताकि गांव के लोग पतंग लूट सके.
वाजिद अली शाह तो पतंगबाज़ी के इतने दिवाने थे कि वो हर साल अपनी पतंगबाज़ टोली के साथ पतंगबाज़ी के मुक़ाबले में दिल्ली आते थे. धीरे-धीरे नवाबों का यह शौक़ आम लोगों के ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनता गया. नवाबों का दौर खत्म हुआ और देश में अंग्रेज़ों की हुकुमत क़ायम हुई, और फिर शाम होते ही नीले आसमान को चुमती रंग-बिरंगी पतंगें बलखाती व इठलाती हुई लखनऊ से दिल्ली तक नज़र आने लगी.
1927 में GO BACK लिखे पतंगों को आसमान में उड़ा कर साइमन कमीशन का विरोध किया गया. देश जब अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ, तब भी देशवासियों ने अपनी खुशी का इज़हार करने के लिए पतंग को भी एक माध्यम बनाया और आसमान को रंग-बिरंगी पतंगों से पाट दिया. तब से जश्न-ए-आज़ादी के साथ पतंग भी जुड़ गई.
साहित्य व फ़िल्मों में पतंग
कवियों व साहित्यकारों से लेकर फिल्म निर्देशकों तक ने इस पतंग पर अपनी कला का रंग चढ़ाया. इस पतंग पर कवियों व गीतकारों ने अनेकों कविताएं, गज़ल व फ़िल्मों के गाने लिखे. जैसे:-
न कोई उमंग है, न कोई तरंग है
मेरी ज़िंदगी है क्या, एक कटी पतंग है

तेरी-मेरी नज़र की डोरी, लड़ी जो चोरी-चोरी…. तो दिल की पतंग कट गई….
प्यार-मुहब्बत में भी पतंग का खुब इस्तेमाल किया गया. शायरों ने इसे बेवफा माशूक़ कहा. आप इसे जितना चाहें, आख़िर में यह आपको छोड़ कर चली जाएगी. इस पतंग पर अनगिनत शेर हैं:-
कटी पतंग का रुख मेरे घर के जानिब था,
मगर इसे भी लूट लिया लंबे हाथ वालों ने
साहित्यकारों ने इस पतंग पर कहानियां लिखी, तो फिल्म निर्देशकों ने ‘पतंग’ और ‘कटी पतंग’ जैसी कई फिल्में भी बना डाली. बॉलीवुड के कई कलाकारों ने फिल्मों में अपनी पतंगबाज़ी दिखाई, तो रियल लाईफ में हेमा मालिनी ने खूब पतंगबाज़ी की. बोल-चाल की भाषा में भी मुहावरे के रुप में इसका अच्छा-खासा प्रयोग हुआ है.
देश की रक्षा में पतंग
पतंगबाज़ी ने एक ऐसा दौर भी देखा है, जब इसका प्रयोग सेना के जवान किया करते थे. युद्ध के मैदानों में दुश्मन सेना के खिलाफ हमले के लिए प्रयोग में लाया जाता था.
कोरियाई फौज के कमांडर ने सैकड़ों वर्ष पहले इसे विजय पताका के रुप में उड़ाकर अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया. कोरिया के ही एक फौजी सरदार ने पतंग उड़ाकर दरिया के पाट को नापा और उस पर पुल तैयार कराया.
प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध में भी इसका प्रयोग किया गया.
पतंग में बांध कर गुप्त संदेश भेजने, ख़बर पहुंचाने व झंडा उड़ाने जैसे कार्यों में इसका भरपूर इस्तेमाल किया गया.
कई देशों में पतंग के साथ कैमरा बांध दुश्मन के ठिकानों और उसकी गतिविधियों की तस्वीरें ली गई.
विज्ञान के क्षेत्र में पतंग
पतंगों की मदद से विज्ञान के कई प्रयोग किए गए. कई वैज्ञानिकों ने हवा का रुख एवं मौसम का मिज़ाज जानने के लिए पतंगों का प्रयोग किया.
यहां तक कि राइट्स बंधुओं ने भी हवाई-जहाज़ की खोज के लिए अनेक प्रयोग पतंग पर ही किए.
वैंजामिन फ्रैंकलिन ने बरसात के दिनों में आसमान पर चमकने वाली लकीर के राज को जानने के लिए पतंगों का इस्तेमाल किया. वर्ष 1752 में फ्रैंकलिन ने इसे बिजली का नाम दिया और बताया कि इसे बाक़ायदा महसूस भी किया जा सकता है.
मार्कोनी ने तो कमाल ही कर दिया. 1814 में पतंगों के मदद से ही पहला रेडियो संदेश भेजा.
ब्रिस्टन शहर के जॉर्ज पोकॉक ने 1825 में पतंगों की मदद से एक नया प्रयोग किया, यह प्रयोग एक गाड़ी को खींचने का था, जिसके के लिए आठ फिट लंबी पतंग का इस्तेमाल किया गया.
इनके अलावा एलेक्जेंडर ग्राहम बेल, लॉरेंस हाग्रार्ब व फ्रैंकलिन कोडी जैसे वैज्ञानिको ने भी पतंगों का प्रयोग अपने वैज्ञानिक प्रयोगों में किया.
जहां इसका प्रयोग विज्ञान के यंत्र के रुप में हुआ, वहीं कहा जाता है, प्रेमी ने अपनी प्रेमिका के पास इसी पतंग के माध्यम से संदेश भी भेजे और अपने प्यार को उसी तरह जिंदा किया था, जैसा कि आज मोबाईल फोन ने किया है.
महंगा शौक़ है पतंगबाज़ी
शौक़ के रुप में अपनाई जाने वाली पतंगबाज़ी आज प्रोफेशनल हो गई है.
यह सिर्फ दिल्ली व गुजरात ही नहीं, बल्कि देश के हर कोने उड़ाया व लड़ाया जाता है.
दिलचस्प बात तो यह है कि आज पतंगबाज़ी सबसे महंगे खेलों में शुमार किया जाता है. इस शौक़ को पूरा करने के लिए दिल्ली में लगभग 140 रजिस्टर्ड और लगभग 250 ग़ैर-रजिस्टर्ड ‘पतंग क्लब’ हैं.
ऐसे कई क्लब आगरा, बरेली, भोपाल, इलाहाबाद, बीकानेर, गुजरात, जम्मू, जयपुर, जोधपुर के अलावा अन्य बड़े शहरों में भी हैं. अन्य खेलों की तरह क्लब के सदस्यों को पुरे साल अभ्यास कराई जाती है, और इन्हें मुक़ाबले के लिए तैयार किया जाता है.
यूं तो बाज़ार में एक रुपये से लेकर 50 रुपये तक के पतंग उपलब्ध हैं लेकिन अभ्यास के दौरान आमतौर पर 5-10 रुपये के पतंगों का इस्तेमाल किया जाता है.
बाज़ार में मांझे की चरखी (पतंग उड़ाने के लिए जिस डोर का इस्तेमाल किया जाता है, उसे बोलचाल की भाषा में मांझा कहते हैं.) 200 से लेकर 1500 रुपये तक में मिल जाती है.
एक अच्छे मांझे की धार तलवार की धार से भी अधिक तेज़ होती है. इसलिए आमतौर पर पतंगबाज़ 200-700 गज़ मांझे का प्रयोग करते हैं, बाकी सादी डोर होती है. इस मांझे के लिए बरेली काफी मशहूर है.
दिल्ली में इस समय रामलीला मैदान, तुर्कमान गेट, बलीमारान, सराय काले खां मैदान, फरीदाबाद, यमूना किनारे व बुरारी मैदान में पतंगबाज़ी के मुक़ाबले होते हैं इसके अलावा आप अपने छतों से भी इन मुक़ाबलों में भाग ले सकते हैं.
पतंगबाज़ी के नियम-क़ानून
पतंगबाज़ी एक खेल है, एक आर्ट है, जिसको सीखना पड़ता है, और अभ्यास करना पड़ता है. इसके अपने नियम व शर्ते होती हैं. जैसे, 500 गज़ के ऊपर ही पेंच लड़ा सकते हैं. पतंगबाज़ी के टूर्नामेंट भी बड़े दिलचस्प होते हैं. इनमें हिस्सा लेने के लिए आपको 500-1500 रुपये करने पड़ सकते हैं. इन टूर्नामेंटों में उस्ताद भी होते हैं, जिन्हें इस अवसर पर पगड़ी भी बांधी जाती है.
विदेशों में पतंगबाज़ी
सिर्फ भारत ही नहीं, इरान, इंडोनेशिया, कोरिया, जावा, श्रीलंका, मॉरीशस, बैंकॉक, हांग-कांग, फ्रांस, इटली, मलेशिया, फिलीपींस, जापान, चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान और नेपाल सहित लगभग 50 से अधिक देशों में उड़ाई जाती है। यहां पतंगबाज़ी के मुक़ाबले विभिन्न मौसमों, त्योहारों और तारीखों में कराए जाते हैं। गुजरात का अंतर्राष्ट्रीय पतंग महोत्सव तो पूरी दुनिया के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
पतंगबाज़ी के फायदे
ऐसा माना जाता है कि पतंग उड़ाने वाला व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ता. इससे शरीर के हर अंग का एक्सरसाईज हो जाता है. इससे न सिर्फ बाज़ू मज़बूत होते हैं, बल्कि आंखों की रोशनी भी बढ़ती है. दिल व दिमाग एक साथ काम करना प्रारंभ कर देता है. शरीर की सारी थकान व टेंशन दूर हो जाते हैं.
पतंग से संबंधित कुछ और रोमांचक बातें
· मिर्ज़ा ग़ालिब को भी पतंगबाज़ी का शौक़ था और तुलसीदास को भी. ग़ालिब ने पतंग पर ग़ज़ल कही तो तुलसीदास भी खुद को दोहे कहने से न रोक पाए.
· जयपुर के राजा स्वामी राम सिंह को भी पतंगबाज़ी से काफी प्रेम था. 16वीं शताब्दी में अपने लिए पतंग बनाने हेतु ‘पतंग खाना’ को भी स्थापित कराया.
· पेंच लड़ाने की परंपरा भारत से ही शुरु हुई है.
· मुग़लिया दौर में ईद के मौक़े पर भी पतंगें उड़ाई जाती थी.
· लाहौर में मकानों की छतों पर पतंगें उड़ाने वाले तो शौक़िया पेंच लड़ाते हैं, लेकिन मीनार पाकिस्तान के पास ऐतिहासिक ‘गुड्डी ग्राउंड’ पतंगबाज़ों का खास स्टेडियम है, जहां पेंच लड़ाना या उड़ाना एक इज़्ज़त की बात समझी जाती है.
आईए अब मिलते हैं भाई मियां से
राजधानी के कुछ उस्तादों ने पतंगबाज़ी में देश का नाम ऊंचा किया है। इनमें से एक सैय्यद मोहिउद्दीन उर्फ भाई मियां भी हैं, जो न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी अपनी कला का सिक्का जमा चुके हैं। पुरानी दिल्ली की मटिया महल इलाक़े के दुजाना हाउस में रहने वाले ये जनाब ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने एक ही डोर से 1184 पतंगें उड़ाई हैं। यह कारनामा उन्होंने लगभग 10 साल पहले नोएडा के एक पतंग समारोह में दिखाया था। इससे पहले वह 1995 में दुबई के एक समारोह में भी यह कारनामा अंजाम दे चुके हैं। 84 वर्षीय ‘भाई मियां’ ने 1980 से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में ट्रेड फेयर ऑथोरिटी के लिए पतंगबाज़ी किया है।
जब भारत को आज़ादी मिली, तभी से उन्हें पतंग उड़ाने का शौक़ पैदा हुआ। बचपन से ही पतंगों के साथ नए-नए प्रयोग करते रहे। उनका कहना है कि दुनिया की सबसे बड़ी पतंग (जिसका आकार 400 वर्ग फुट था) उन्होंने उड़ाई है। यह अलग बात है कि उनके इस रिकॉर्ड पर लिमका या गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड वालों की नज़र नहीं गई।
भाई मियां भारत व दुबई के अलावा रसिया, बांग्लादेश, बहरीन और पाकिस्तान में भी अपनी पतंगबाज़ी से लोगों का दिल जीत चुके हैं। दुबई का एक शैख़ तो इतना प्रभावित हुआ कि इन्हें दुबई रुकने की दावत तक दे डाली, लेकिन वतन की मुहब्बत ने इन्हें वहां से लौटने को मजबूर कर दिया।
दिल्ली की गलियों में फिल्माई गई आमिर खान की फिल्म ‘अर्थ 1947’ की शूटिंग के दौरान फिल्म निर्देशक ने भाई मियां से पतंग उड़ाने के दृश्यों में काफी मदद ली थी। भाई मियां का मानना है कि आसमान में बल खाती, ऊंची उड़ती पतंग हम में आज़ादी की भावना जगाती है। शायद यही कारण है कि 15 अगस्त को पतंग उड़ाने का स्वाभाविक चलन पूरे देश में फैल गया है।
भाई मियां दिल्ली की ‘काइट फ्लाइंग एसोसिएशन’ के संस्थापक व सरपरस्त हैं। स्वयं कई छोटे-बड़े पतंगबाज़ी के मुक़ाबले आयोजित कर चुके हैं। जिनमें सोनिया गांधी, अटल बिहारी से लेकर कई नामी-गरामी हस्तियां शिरकत कर चुके हैं।
बहरहाल, आज गुमनामी के दौर में जी रहे भाई मियां की दिली ख्वाहिश है कि पतंगबाज़ी को ओलंपिक जैसे खेलों में शामिल किया जाए। वह कहते हैं कि पतंगबाज़ी भारत की संस्कृति है। सरकार को इसे बढ़ावा देने की आवश्यकता है। खैर, उनके बेटे जमालुद्दीन भी कम कलाकार नहीं हैं। इन्होंने दुनिया की सबसे छोटी पतंग बनाई है, जिसका आकार एक सेंटीमीटर है.

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