क्या हत्यारे तय करेंगे कि चश्मदीद कितना बोलेगा

प्रतिरोध के दमन में पिछले एक साल में इस सरकार ने कीर्तिमान कायम किए हैं. विरोध के अधिकार का दमन इतनी निर्ममता से हाल में हुआ है कि प्रतिरोध की आवाज उससे कमतर रखने का कोई औचित्य नहीं है.

एक लोकतांत्रिक देश में स्वभाविक रूप से मैं इस मुद्दे पर धरना, प्रदर्शन या अनशन पर नहीं जाऊंगा कि मुझे अमिताभ बच्चन की जगह फिल्म में लिया जाए. वैसे ये पागलपन मैं कर भी सकता हूं लेकिन फिर भी ये सरकार का नागरिकों के प्रति दायित्व है नहीं तो सरकार ना भी सुने तो कोई बात नहीं. लेकिन अगर मुझसे आवास प्रमाण पत्र में पंचायत सेवक पैसे मांग रहा है या इंदिरा आवास के लिए पंचायत सचिव को पैसे चाहिए या मुझे कुछ नहीं भी चाहिए और मुझे लगता है कि मुखिया महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में हेराफेरी कर रहा है तो विरोध जताने के कितने विकल्प मेरे पास उपलब्ध हैं, यह लेख मूल रूप से इस सवाल पर ही मंथन करेगा.
शुरू करते हैं मुखिया के दफ्तर पर धरना से. मुखिया ने तो चोरी की इसलिए वो न तो मानेगा और ना मेरी बात सुनेगा. अपनी बात लेकर अब मैं प्रखंड कार्यालय जाता हूं और वहां बीडीओ साहब कहते हैं कि ये तो छोटी-मोटी बात है. मैं जांच करवाता हूं. जांच हुई और नतीजा ये निकला कि आरोप गलत मिले. अब मैं अनुमंडल कार्यालय जाऊंगा और वहां से मेरी शिकायत के साथ चिट्ठी जांच के लिए बीडीओ कार्यालय भेजी जाएगी और बीडीओ साहब एसडीओ को जवाबी डाक से बता देंगे कि ये आरोप पहले भी आए थे और जांच में कुछ नहीं निकला.
मुझे लगता है कि चोरी हो रही है और सच में हो रही है इसलिए ऐसा लग रहा है तो मैं जिला दफ्तर जाऊंगा. वहां से एक जांच अधिकारी भेजा जाएगा. अधिकारी की आवभगत होगी और रिपोर्ट में आरोप निराधार पाए जाएंगे. भ्रष्टाचार दोतरफा मामला है. एक चुराता है और दूसरा उससे फायदा पाता है. मुखिया अगर किसी के रोजगार का हक मार रहा है या बगैर काम के ही किसी के नाम पर पैसे निकाल रहा है तो वह उसे किसी से बांट भी रहा है. अपने सचिव से लेकर वार्ड सदस्य तक. जांच अधिकारी तो देखेंगे कि सूची में जो नाम हैं उनको पैसा मिला कि नहीं. मुखिया बेवकूफ तो रहा होगा नहीं कि वोटर लिस्ट में नाम पढ़े बिना पैसा उठाएगा. ग्रामीण परिवेश में मुखिया का प्रभाव देखने वाले जानते हैं कि ये मुश्किल नहीं है कि मुखिया प्रलोभन देकर या धमका कर उस आदमी से न कहवा लें कि हां, उसे पैसा मिला है. जबकि सच यही है कि उसने न काम किया और न पैसा पाया. डीएम दफ्तर से भी मेरी शिकायत का हल नहीं निकला जबकि शिकायत वाजिब है तो मैं आगे कमिश्नर, ग्रामीण विकास मंत्री, मुख्यमंत्री के दरबार से होता दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंच जाऊंगा. प्रधानमंत्री नहीं सुनेंगे या सुनेंगे तो प्रक्रिया वही होगी और शिकायत हर बार की तरह झूठा पाया जाएगा और ये मान लिया जाएगा कि मैं वह आदमी हूं जो सरकारी प्रक्रिया में बाधा खड़ा कर रहा है. शुक्र है कि सरकार ने अभी ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जिसमें शिकायत झूठी मिलने पर जेल भेज दिया जाए नहीं तो मुझे बीडीओ साहब ही जेल भेज चुके होते. और मुखिया जी मौज़ से कमाई करते रहेंगे.
ये तो हुई एक ग्रामीण स्तर की बात या यूं कहिए कि उस स्तर की बात जिस स्तर के अधिकारियों को लोकपाल कानून के दायरे में लाने की वकालत अन्ना हजारे कर रहे हैं. ये वो स्तर है जो सीधे आम आदमी या उस आदमी को झेलाता है जिसकी पहुंच न मंत्री तक होती है और न अधिकारियों के संतरी के पास. आम लोगों को दुखी रखे अधिकारियों की इस फौज को सरकार लोकपाल कानून से यह कहकर बचाने की कोशिश कर रही है कि इतने ज्यादा लोगों से जुड़ी शिकायतों को देखने के लिए बड़ी संख्या में भर्ती करनी होगी. करनी होगी तो कीजिए सरकार. कल्याणकारी सरकार है इस देश में. न राजशाही है और न तानाशाही है. लोगों को रोजगार भी तो मिलेगा. और, अगर एक लाख लोगों को लोकपाल में नौकरी देने से आम लोगों को कुर्सी पर बैठे चोर-लुटेरों से 50 फीसदी भी राहत मिले तो सरकार को अपनी पीठ खुद से ही थपथपानी चाहिए कि उसने कुछ पुण्य का काम किया.
अब किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बात करते हैं. एक ऐसा मु्द्दा जो निजी शिकायत से बड़ा और व्यापक आम महत्व का होता है. कोर्ट में जनहित याचिकाओं की नींव भी शायद इसी से पड़ी होगी. मसलन, इरोम शर्मिला चाहती हैं कि पूर्वोत्तर के लिए बनाया गया सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून वापस लिया जाए क्योंकि इसकी आड़ में दमन और महिलाओं पर अकथ्य अत्याचार का सिलसिला चल रहा है. अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकारी पैसों की बंदरबांट करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए कड़ा लोकपाल कानून लाया जाए.
मेरी चाहत है सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य का सरकारीकरण कर देना चाहिए और इस पूरे क्षेत्र का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेना चाहिए. अगर ऐसा हो जाए तो ये सोचिए कि कैसा देश हो जाएगा अपना. अगर आप गरीब हैं तो खुशी से नाचेंगे क्योंकि अब तक जो स्कूल आपके बच्चे की पहुंच में है और जो अस्पताल आपके बूते में है वो बहुत काम का नहीं रह गया है. सरकार इसके लिए काम तो करती है लेकिन फाइव स्टार से लेकर बिना स्टार वाले निजी स्कूलों और निजी अस्पतालों के शहर से महानगर तक पनपे कारोबार ने सरकार की दिलचस्पी, उसकी गंभीरता और उसकी जवाबदेही को खत्म सा कर दिया है. जब इलाज का कोई और विकल्प ही नहीं होगा तो सरकार पर अस्पतालों और स्कूलों को दुरुस्त रखने का दबाव बढ़ेगा.
देश के कितने फीसदी लोग गरीब हैं ये मोंटेक सिंह अहलूवालिया का योजना आयोग तय कर पाने में आपराधिक रूप से नाकाम रहा है. मोटेंक सिंह का आयोग जितना रुपया हर रोज कमाने वाले को गरीबी रेखा से ऊपर मानता है, उतने रुपए में मोंटेक सिंह के घर में एक दो कॉफी भी नहीं बन पाएगी. एक गरीब का बच्चा मैट्रिक तक की पढ़ाई जितने पैसे में हंसते-मुस्कुराते कर लेता है उतना दिल्ली के किसी औसत प्राइवेट स्कूल में एक बच्चे के महीने भर का फीस हो सकता है. कल्पना कीजिए कि अगर देश में संस्कृति, डीपीएस या बिट्स पिलानी नहीं होंगे तो क्या होगा. सोचिए कि अगर आईआईपीएम या आईएमटी नहीं होगा तो क्या होगा. सोचिए कि अगर मैक्स, फोर्टिंस, मेदांता जैसे अस्पताल भी नहीं होंगे तो क्या होगा. होगा ये कि सरकार को देश में स्नातक, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधन और दूसरे क्षेत्र के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए अपने स्कूलों और कॉलेजों को लायक बनाना होगा. पुरुलिया और दंतेवाड़ा के अस्पताल को मैक्स जैसा बनाना होगा. देश का हर बच्चा जिस स्कूल में पढ़ेगा वो सरकारी होगा और देश का हर आदमी इलाज के जिस भी अस्पताल में जाएगा वो देश के स्वास्थ्य मंत्रालय के मातहत काम करेगा.
लेकिन अगर आप मध्यम वर्ग या इससे ऊपर के हैं तो कहेंगे कि कबाड़ा हो जाएगा देश का. लेकिन देश की बड़ी आबादी को कबाड़ की तरह मानने वाले लोग अपने बच्चों को इंजीनियर बनाने के लिए सरकारी आईआईटी, मैनेजर बनाने के लिए आईआईएम, डॉक्टर बनाने के लिए एम्स में ही पढ़ाना चाहते हैं. फैशन डिजाइनर बनाने के लिए निफ्ट में ही दाखिला चाहते हैं. क्यों, अगर सरकारी चीजें कचड़ा होती हैं या हो जाती हैं तो इन लोगों को इन संस्थानों को स्वघोषित रूप से देश के गरीबों के लिए छोड़ देना चाहिए कि कचड़े लोग, कचड़े में पढ़ें. मध्यम वर्ग या संपन्न वर्ग भी इलाज के लिए एम्स ही आना चाहता है. ये भी तो सरकारी है. इसे भी देश के गरीब लोगों के लिए छोड़ दीजिए.
देश के 70 फीसदी गरीब जो वोट भी सबसे ज्यादा करते हैं उसकी चुनी हुई सरकार की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी कैंसर का इलाज एम्स में नहीं करातीं, राजीव गांधी कैंसर संस्थान में भी नहीं करातीं, अमेरिका में कराती हैं. अमर सिंह नाम के एक सांसद इलाज सिंगापुर में कराते हैं. किसी के इलाज की जगह चुनने के अधिकार पर सवाल नहीं है लेकिन सवाल ये है कि अगर सोनिया गांधी का इलाज देश में नहीं हो सकता है, अगर उनका ऑपरेशन देश के अंदर कोई अस्पताल और खास तौर पर सरकारी अस्पताल नहीं कर सकता तो राहुल गांधी के भाषण से चर्चित हुईं कलावती को अगर इसी बीमारी का इलाज कराना हो तो वो कहां जाएगी. उसे अमेरिका कौन ले जाएगा. अमर सिंह का रोग देश के दूसरे लोगों को भी होगा. गरीब एक बार भी सिंगापुर जा पाएगा क्या और नहीं जाएगा तो यहीं मर जाएगा या उसके इलाज के लिए कोई अस्पताल बनेगा.
तो मैं अपनी चाहत के व्यापक राष्ट्रीय प्रभाव के मद्देनजर सरकार को चिठ्ठी लिखता हूं. स्वास्थ्य मंत्री को, स्वास्थ्य सचिव को, स्वास्थ्य मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति के सभी सदस्यों को, योजना आयोग के उपाध्यक्ष को और इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री को भी. आपकी क्या अपेक्षा है, जवाब आएगा या नहीं. आएगा तो जवाब में क्या होगा. मैं 100 फीसदी दावे से कहता हूं कि ज्यादातर का जवाब नहीं आएगा. किसी संवेदनशील दफ्तर की चिठ्ठी आ भी गई तो लिखा होगा कि आपके सुझाव को संबंधित मंत्रालय या विभाग या अधिकारी के पास भेजा गया है और इस पर विचार चल रहा है. समय सीमा नहीं कि विचार कब खत्म होगा. छह महीने बाद फिर इन सबको को चिट्ठी भेजूंगा. ज्यादातर जगहों से जवाब नहीं आएंगे और कहीं से आ गया तो पहले जैसी बात होगी. फिर मैं तय करता हूं कि अब तो बहुत हो गया. अब धरना देना ही होगा और धरना देने के लिए मैं जंतर-मंतर पहुंच जाता हूं. वहां पहले से ही देश भर से अलग-अलग मांगों के साथ कई दर्जन लोग धरना देते मिलेंगे. कई महीनों से जमे हुए हैं. शायद प्रधानमंत्री को पता भी नहीं होगा कि कोई उनसे कुछ मांगने के लिए घर-परिवार छोड़कर यहां बैठा है.
मेरा धरना भी शुरू होता है. एक दिन का धरना. फिर बेमियादी धरना. सरकार अनसुनी करती ही जा रही है. फिर अनशन की बारी आती है. एक दिन का अनशन. उसके बाद आमरण अनशन. हर आमरण अनशनकारी अन्ना हजारे जैसा सौभाग्यशाली तो होता नहीं कि समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर उतर आएं और सरकार के मंत्री सुबह से शाम तक रास्ते निकालते रहें कि कैसे अन्ना अनशन तोड़ें. छोटे-मोटे लोगों को पुलिस अनशन के दूसरे-तीसरे दिन उठाकर अस्पताल पहुंचा देती है. उठाने वाला तो कमजोरी की हालत में बोलने लायक नहीं रहता और अस्पताल में डॉक्टर अनशन तुड़वा देते हैं. हर कोई इरोम शर्मिला भी नहीं हो सकता कि अड़ ही जाए, जेल में रखो, अस्पताल में रखो या नजरबंद रखो, अनशन नहीं तोड़ूंगी.
मेरा कहना है कि अगर सरकार अनशन पर बैठे आदमी की मांग को न मंजूर करे और न ठुकराए तो उसे अनशन से उठाने का काम भी नहीं करना चाहिए. उसकी मौत को खुदकुशी नहीं बल्कि हत्या का मामला मानकर आरोप उस मंत्री या अधिकारी पर लगाना चाहिए जिसके नाम का ज्ञापन लेकर वो अनशन पर बैठा. लेकिन सरकार तय करती है कि मांग का तरीका क्या होगा, दायरा क्या होगा, उसकी सीमा क्या होगी. ये आईपीसी की धाराओं से निर्धारित होगा. मतलब, आप मांग करिए लेकिन जान न दीजिए. किसी राज्य में लोग रेलवे पटरी उखाड़ते हैं तो मांग पूरी करने के लिए सरकार घुटनों पर बैठ जाती है. कानून वहां भी टूटता है. आईपीसी की धाराओं का उल्लंघन वहां भी होता है पर उन्हें बाद में आम माफी दी जाती है या मुकदमों में बहुत गिरफ्तारी नहीं होती. हमें इस मामले में अन्ना हजारे का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने सिखाया कि मांग मनवाने का तरीका सिर्फ हिंसक ही नहीं, अहिंसक भी हो सकता है.
अगर सरकार आमरण अनशन के बाद भी स्वास्थ्य क्षेत्र और शिक्षा क्षेत्र के सरकारीकरण का फैसला नहीं लेती है तो मैं इसके बाद क्या करूंगा. जंतर-मंतर से खाली हाथ खुद ही अनशन तोड़कर आ जाऊं या फिर पुलिस द्वारा उठाने से पहले आत्मदाह कर लूं. और मैं चाहता हूं कि अगर मेरी मौत ऐसे अनशन के दौरान हो या ऐसे मु्द्दे पर आत्मदाह में हो तो पुलिस को मुझ पर खुदकुशी की बजाय प्रधानमंत्री पर हत्या का मुकदमा दर्ज करना चाहिए. अगर ऐसा होगा तभी सरकार जंतर-मंतर पहुंचने वाले हर दुखियारे का दर्द सुनेगी और समझेगी. नहीं तो इस देश में फिलहाल जंतर-मंतर प्रतिरोध की आखिरी सीमा है. न सुनवाई होना भी तो नामंजूरी ही है, ये बात दर्जनों मुद्दों को लेकर जंतर-मंतर पर हफ्तों-महीनों से बैठे लोगों को अब तक समझ में नहीं आई है.

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