केक और कॉस्टीट्यूशन क्लब

एक किस्सा सभी ने सुना है लगभग कि रोटी के लिए लड़ते लोगों को किस तरह एक रानी सलाह देती है कि भूखे हो और रोटी नहीं है तो केक खा लो.

इस केक की कहानी आजकल कॉस्टीट्यूशन क्लब में चल रही है. रानी की सरकार है. सरकार के हुक्म है कि कम्बख्तों, रोटी के लिए रोने आते हो तो केक खाया करो.
हुआ दरअसल यूं कि पिछले दिनों शिकायत निवारण के मुद्दे पर एक खुले मंच का आयोजन दिल्ली के कॉस्टीट्यूशन क्लब में किया गया. इस मौके पर दिल्ली की झुग्गी बस्तियों से और देश के अन्य राज्यों से ग्रामीण भारतीय कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंचे.
हॉल की गुंजाइश कुल 120 लोगों की थी. इसलिए दिन के मध्य से शुरू हो रहे कार्यक्रम से पहले ज़रूरी था कि अलग-अलग जगहों से आए हुए लोगों के लिए भोजन की भी कुछ व्यवस्था की जाए.
पुरानी परंपरा को ध्यान में रखते हुए खाने के कुछ 120 पैकेट तैयार करवाए और उनको दो बड़े और सुरक्षित डिब्बों में डालकर वहाँ लाए ताकि लोग भोजन कर सकें. यह भोजन (पांच पूड़ी और आलू की सब्जी) दिल्ली के हिसाब से न्यूनतम संभव दाम पर तैयार हुआ था क्योंक अभियान के पास पैसे नहीं थे और सब लोग पैसे दे पाने में सक्षम भी नहीं थे. खाना लेकर जैसे ही क्लब के भवन की पहली सीढ़ी पर पैर रखा, गार्ड्स और स्टाफ एक छत्ते की तरह टूट पड़ा. यह क्या ले आए. नो..नो.. नॉट अलाउड. टेक इट अवे. तुरंत बाहर ले जाइए. यहाँ नहीं खा सकते. आप लोग गंदगी फैलाएंगे. कुछ खाना ही है तो क्लब के कैफेटेरिया में खा लीजिए. आउटसाइड फूड नॉट अलाउड एट ऑल. नो वन कैन ईट इन द हॉल्स ऑर इनसाइड बिल्डिंग एक्सेप्ट कैफेटेरिया.
रातभर की यात्राएं करके दूसरे राज्यों से आए लोग अवाक. अभी तो सुबह का पहला नेवाला मिलने वाला था और अभी खाने से पहले ही जीभ कट गई हो जैसे. कहाँ ले जाएं… क्या करें. खैर, खाने को लेकर मावलंकर हॉल के पीछे छिपकर खड़े हुए और वहीं बारी बारी लोगों को भेजकर खाना खाया.
यह कहानी संविधान के नाम पर बने एक भवन की है. क्लब का नाम था. मकसद था कि एक जगह होगी जहाँ कुछ हॉलों में लोगों को लोकतंत्र से जुड़े सवालों पर चर्चा करने के लिए मौका मिलता रहेगा. संसद सदस्य और राजनीतिक दल वहाँ चर्चाएं करेंगे. संविधान सभा ने जिस संविधान को देश चलाने के लिए तैयार किया, उसके संवर्धन के लिए, संशोधन के लिए, अनुपालन के लिए और लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के लिए यह भवन बना था. ऐसा होता भी रहा. लंबे समय तक एक संभव किराए पर यहां हॉल मिल जाते थे. सस्ता खाना, नाश्ता और काफी होती थी. टोस्ट और कुछ बिस्कुट वगैरह भी मिल जाते थे. काम चल जाता था. जैसे-तैसे जुगाड़ कर जन संगठन भी अपना खर्चा निपटा लेते थे.
अब सूरत एकदम बदल चुकी है. कांच के केबिनों में रंगीन पत्थरों पर खरगोश कुलाचें भरते हैं. ऊपर स्पा है और जिम है जिसमें केवल संसद सदस्य जा सकते हैं. एक फाइव स्टार कैंटीन है जिसमें केक मिलता है, पेस्ट्री मिलती है. खाने की प्लेटों पर सैकड़ों सरक जाते हैं. पूरा भवन किसी पाँच सितारा होटल से कम नहीं लगता. कहीं भी बैनर या पोस्टर की अनुमति नहीं है. तीन घंटे के लिए 16,000 और 5 घंटे के लिए 19,000, ये सबसे छोटे हॉल का किराया है. बाकी हॉलों के किराए के बारे में सोचना भी ग़लत है. सुना है कि मावलंकर हॉल 55 हज़ार रूपए में मिलता है दिनभर के लिए. पर्दे और कुर्सियां बदली हुई हैं. ऑटोमैटिक खुलने-बंद होने वाले दरवाज़े हैं और मूछ वाले दरबान भी.
कॉन्टीट्यूशन क्लब को कुछ बरस पहले तक देखता था तो बड़ा अपना सा लगता था. अपने लोगों के जैसे घरों, भवनों जैसा. खादी के पर्दे, नारों के लिए आवाज़ देती दीवारें, समाज के बहुमत को सहज लगता एक परिसर. अब वही कॉस्टीट्यूशन क्लब कान काट रहा है हैबिटेट और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के. अब जो जाता हूं तो लगता है कि न तो संविधान अपना रहा और न संविधान के नाम पर बना यह क्लब, परिसर और यह संवैधानिक गुंजाइश अपनी रही.
सचमुच लोकतंत्र में राजनीति का चरित्र जिस तरह बदला है उसने ऐसी छोटी-छोटी लेकिन निहायत ज़रूरी जगहों को भी बदलकर रख दिया है. रोटी खाने के लिए फुटपाथ पर जाइए और केक खाना हो तो अंदर आइए… यही है नए कॉस्टीट्यूशन क्लब का संदेश.
बार-बार धूमिल कौंध जाते हैं दिमाग में. सोचता हूं किसी उग्र युवा की तरह जाकर इस क्लब की दीवारों पर लिख दूं धूमिल की ये पंक्तियां-
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है,
जो न रोटी खाता है, न बेलता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं…
‘यह तीसरा आदमी कौन है’
मेरे देश की संसद मौन है.

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