कबीर (शाहिद कपूर) हुक-अप करने एक लड़की के घर पहुँचता है। लड़की बीच में आगे बढ़ने से मना कर देती है। फिर कबीर चाकू निकालकर लड़की को जबरन कपड़े उतारने पर मजबूर करता है। यह रेप नहीं है क्या? कमाल की बात है कि इस सीन को फिल्म में ‘कॉमेडी रिलीफ’ की तरह पेश किया गया है और थिएटर में लोग हँस रहे थे।
कबीर सिंह को ‘एंगर मैनेजमेंट’ की इशू है लेकिन है वो बेहतरीन मेडिकल स्टूडेंट। तो हमें यह यकीन दिलवाया जाता है कि वो जो भी स्क्रीन पर कर रहे हैं उसे माफ कर दिया जाए। जब फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट प्रीति कॉलेज आती है तो थर्ड ईयर के स्टूडेंट कबीर पूरी क्लास के सामने जाकर प्रीति को ‘यह आज से मेरी बन्दी है’ कह आते हैं। असल में इसे जिस लहजे में कहा गया है वह ‘आज से यह मेरा माल है’ सुनाई देता है। प्रीति की ज़िंदगी मे कबीर कब्जा जमा लेते हैं। उसे हर तरह से परेशान करते हैं। क्लास बंक करवाकर उसे सुनसान जगहों पर ले जाते हैं। वो डरी और सहमी हुई है और बैकग्राउंड में रूमानी गाने बज रहे हैं।
लड़की हाथ न आये तो मैं शराब पियूँगा, ड्रग्स का सेवन करूँगा, अपनी ज़िंदगी बर्बाद करूँगा, और यह सब स्क्रिप्ट में मौजूद बाकी पात्रों से हमदर्दी भी दिलवाएगी क्योंकि, भाई, मुझे वो लड़की नहीं मिली जिसे मैंने कॉलेज में जमकर उत्पीड़ित किया था।
मैं सोच रहा था कि यह हो क्या रहा है। 19वीं सदी का ‘देवदास’, 2003 के ‘तेरे नाम’ का राधे, और अब 2017 की तेलुगु फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ की यह रीमेक आज भी पुरुषों की ऐसी तस्वीर का त्योहार मनाने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं? देवदास में भी ठुकराए जाने और न सुनने की ताकत नहीं थी लेकिन वो चंद्रमुखी की इज्जत तो कर पा रहा था।
इस कबीर सिंह से तो किसी की इज़्ज़त नहीं हो रही। पूरी फिल्म ऐसे नारी-द्वेषी भाव से पटी पड़ी है कि हर सीन की चीर-फाड़ करने बैठिए तो एक पूरी किताब मुकम्मल हो जाए। अधिक दुखद है कि हम इस व्यवहार को raw masculinity के नाम पर तरजीह दे रहे हैं। अगर हीरोइन ने जबरन शारीरिक होने की बात से मना कर दिया तो हीरो तुरंत उसे थप्पड़ मारकर उसकी औकात दिखा सकता है। हम 21वीं सदी के भारत में जी रहे हैं।
कल एक मित्र जो शाहिद कपूर की बड़ी फैन हैं यह फिल्म दिखाने ले गईं। आधे घण्टे बाद मुझे थिएटर से बाहर निकल जाने का दिल होने लगा था लेकिन समाज विज्ञान का विद्यार्थी अंत तक बैठा रहा। जब मैंने अपनी आपत्ति जाहिर की तो कहा गया, ‘फिल्म है, यार। इतना सीरियस क्यों हो रहा है।’
तो भाई, अगर फिल्म और आर्ट के नाम पर आप हर तरह के व्यक्तित्व को स्क्रीन पर लाना चाहते हैं तो फिर फाटक पूरी तरह खोल दीजिये। पश्चिम में होलोकॉस्ट पर सैकड़ों फिल्में बनी, आप विभाजन पर बना लीजिए न। हिन्दू-मुस्लिम दंगों को दिखाइए, अपनी बेटी-भगिनि को उत्पीड़ित करने वाले मर्दो को भी दिखाइए, जातीय उत्पीड़न को दिखाइए, बलात्कारियों की मानसिकता में जो गहरी अंधेरी गुफाएं हैं उन्हें भी टटोलिये।
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