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और खत्म हो गया दलितों का सामाजिक बहिष्कार

Mar 2, 2012 | अविनाश कुमार चंचल

पूरे पांच माह बीस दिन बड़ा महुआ गांव के दलित परिवारों ने सामाजिक बहिष्कार झेला, हम जब उस गांव पहुंचे तब तक पांच महीने और 16 दिन बीत चुके थे तथा ग्रामीण जिला कलक्टर से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगा चुके थे, मगर कहीं भी सुनवार्इ नहीं हुर्इ.

 
दलित व मानव अधिकार संगठनों की टोली के बड़ा महुआ पहुंचकर पीडि़त परिवारों से मिलने और स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मामले को उच्च स्तर पर उठाने और आंदोलन की चेतावनी दिए जाने के बाद जिला प्रशासन हरकत में आया.
 
हमने जिला कलक्टर को दिए ज्ञापन में साफ शब्दों में बता दिया था कि एक हफ्ते में मामला नहीं सुलझने पर हम प्रचंड जन आंदोलन करेंगे. हमने सामाजिक बहिष्कार की इस शर्मनाक घटना पर एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट भी जारी की, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा राय, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कौंसिल के सदस्य निखिल डे, केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भंवर जितेंद्र सिंह तथा राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी ज्ञापन भेजकर पूरे घटनाक्रम से अवगत करवा कर हस्तक्षेप की मांग की.
 
सोशल साइटस पर भी इस बारे में लेख छपे, समाचार-पत्रों ने भी हमारे बड़ा महुआ पहुंचने को बड़ा समाचार बनाया. इन सब बातों का नतीजा सुखद रहा, 28 फरवरी 2011 की रात, अतिरिक्त जिला कलक्टर, पुलिस अधीक्षक, उपखंड अधिकारी, तहसीलदार इत्यादि को लेकर बड़ा महुआ पहुंचे तथा ग्रामीणों के साथ एक रात्रि चौपाल की, जिसमें दोनों पक्ष के लोग मौजूद रहे, दलित संगठनों के कार्यकर्ता भी स्थिति पर नजर रखने के लिए वहां पर उपस्थित थे. 
 
कुछ सांप्रदायिक संगठन के पदाधिकारी भी श्रेय लेने के लिए पहुंचे तथा मध्यस्थता करने का नाटक किया, जिस पर स्थानीय दलितों ने सवाल उठाया कि वे इतने दिन तक चुप क्यों रहे? पहले क्यों मध्यस्थता करने नहीं आए? अब जब दलित संगठनों की मांग और जिला प्रशासन की पहल पर ग्रामीणों के बीच सुलह हो रही है तो वे कहां से आ टपके? 
 
खैर, जिला कलक्टर ओंकार सिंह और कार्यवाहक पुलिस अधीक्षक राजेंद्र सिंह की मौजूदगी में दोनों पक्ष एक साथ बैठे, दोनों पक्षों ने गिले-शिकवे दूर किए, मन की गांठें खुली, सवर्णो को अपनी भूल का अहसास हुआ कि उन्होंने दलितों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, आपसी विवाद से गांव का विकास संभव नहीं है, मिल-जुलकर रहने में ही फायदा है, यह समझ जब बनी और संवाद हुआ, तो आपसी सहमति से सुलह हो गर्इ तथा दलितों का बहिष्कार स्वत: ही समाप्त हो गया.
 
सुलह के बिंदू सम्मानजनक ही कहे जा सकते है, दोनों पक्षों के छह-छह लोगों की कमेटी ने तय किया कि वे भविष्य में इस गांव से किसी भी व्यक्ति के बहिष्कार की कोर्इ शिकायत नहीं आएगी.
 
इतना ही नहीं जिला प्रशासन ने निर्देश दिए कि सुलह के बाद भी तीन दिन तक नायब तहसीलदार गांव में रहेंगे तथा समझौते के लागू होने पर निगरानी रखेंगे. इसके बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुर्इ अथवा किसी व्यक्ति ने सामाजिक बहिष्कार जारी रखा तो जिला प्रशासन की ओर से मुकदमे दर्ज होंगे.
 
गांव की उपरोक्त संयुक्त कमेटी सभी दलितों के नरेगा में काम हेतु प्रपत्र 6 भरवाएगी जिससे 29 फरवरी से ही नरेगा में काम मिलने लगेगा. जिन दलितों के नरेगा में काम का भुगतान बकाया है, उनका भी शीघ्र ही भुगतान होगा. पीडि़त दलित रेगर समाज का सर्वे करवाकर एसडीएम तुरंत बीपीएल कार्ड बनवाएंगे. 
 
मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना का लाभ दलितों को मिलेगा. नरेगा के मेट राधेश्याम को उसके पास रखे दलित परिवारों के जाब कार्ड भी तुरंत बांटने का निर्देश दिया गया. सार्वजनिक परिवहन में आ रही दिक्कत के मद्देनजर एक ट्रांसपोर्ट इंस्पेक्टर गांव में दूसरे दिन भी मौजूद रहा, जिसने दलितों का आटो व टैंपों में बैठना सुनिशिचत किया, नाइयों ने बाल काटने की हामी भरी तो होटल व रेस्टोरेंट संचालकों ने चाय, दूध व अन्य खाध पदार्थ देने का वादा किया, अनाज की पिसार्इ, प्रतिदिन जलापूर्ति आदि के लिए भी दलितों को आश्वस्त किया गया.
 
प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में यह भी तय हुआ कि ग्रामीणों की संयुक्त कमेटी अगर उचित मानेगी और लिखकर देगी तो दोनों पक्षों द्वारा दर्ज करवाए गए मुकदमे भी उठा लिए जाएंगे. इस प्रकार की सहमति के बाद जिला कलेक्टर औंकार सिंह दलित युवा जगदीश रेगर से गले मिले तथा बंशीलाल रेगर के घर पूरे सरकारी लवाजमे के साथ एक घंटे तक रूके, चाय पी तथा हर प्रकार की सहायता के लिए आश्वस्त किया.
 
बड़ा महुआ के दलित परिवारों ने इस फैसले पर प्रसन्नता जतार्इ है तथा उन्होंने इस बात के लिए भी संतोष जाहिर किया कि दलित संगठनों के प्रयास तथा जिला कलक्टर व प्रशासन के अन्य अधिकारियों द्वारा की गर्इ कार्यवाही से उन्हें न्याय मिल पाया है, हालांकि वरिष्ठ पत्रकार राजेश रवि ने अपनी त्वरित टिप्पणी में यह सवाल भी उठाया कि- \’\’बड़ा महुआ में पांच माह 20 दिन से चल रहा दलितों का बहिष्कार कलक्टर ने दो घंटे की बातचीत के बाद निबटा दिया. सवाल यह उठता है कि अगर यह दो घंटे का काम था तो इसको करने में इतना समय क्यों लगा?
 
निशिचत रूप से इस सवाल से हमारी पूरी सहमति है मगर फिर भी यह मानना होगा कि जिला कलेक्टर के इस प्रकार के प्रयास रंग ला रहे है जैसा कि इससे पूर्व उन्होंने आसींद क्षेत्र के करणगढ़ गांव के दलितों के सामाजिक बहिष्कार को खत्म करने में भी रात्रि चौपाल कर साहसिक कदम उठाया था. 
 
हां, यह बात भी सही है कि अभी भी भीलवाड़ा जिले में कर्इ स्थान है जहां पर दलित इंसाफ के लिए संघर्षरत है, कहीं पर दलित महिलाएं डायन घोषित की जा रही है तो कहीं पर दलितों को गांव छोड़ने को मजबूर किया जा रहा है, मारपीट और जातिगत अपमान तो आम बात है ही, पुलिस द्वारा कार्यवाही में उदासीनता भी बड़ा मुददा है, लेकिन जो हुआ है, जहां भी न्याय मिला है, उसकी भी सराहना की जानी चाहिए. 
 
बड़ा महुआ के 31 दलित परिवारों को मिले इंसाफ ने साबित किया है कि अगर प्रशासन की इच्छाशक्ति हो तो कोर्इ भी गरीब, कोर्इ भी दलित न्याय से वंचित नहीं रह सकता है, आवश्यकता बड़ा महुआ तथा करनगढ़ की तरह ही बड़े प्रशासनिक प्रयासों की है.
 
(लेखक डायमंड इंडिया के संपादक है और दलित, आदिवासी एवं घुमंतु समुदायों के प्रश्नों पर राजस्थान में कार्यरत है, उनसे 09460325948 अथवा bhanwarmeghwanshi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

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