इंसाफ़ की डगर पर खड़ा असहाय गुजरात

गुजरात दंगे को दस साल पूरे हो चुके हैं, पर दस सालों के बाद भी गुजरात के लोगों को इंसाफ का इंतज़ार है. शुरुआत साबरमती एक्सप्रेस से हुई थी. गोधरा के पास साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 डिब्बे को आग लगा दी गई. डिब्बे में अयोध्या से लौट रहे श्रद्धालु थे. 54 लोग मारे गए. ट्रेन में आग क्यों लगी, तत्काल इसका पता नहीं लग सका.

अफवाहें उड़ीं कि बोगी को दूसरे समुदाय के लोगों ने जला दिया. बस फिर क्या था. गुजरात में देखते ही देखते दंगे भड़क उठे. अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की खोज खोजकर हत्या की गई. उनके घर,दुकानें सब जला दी गईं. धर्म के नाम पर अंधे हो चुके दंगाइयों की हैवानियत महिलाओं और बच्चों पर भी टूटी. उनसे बलात्कार किया गया.
हालांकि कई शहरों में बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याएं भी हुईं. तीन दिन तक चले दंगों के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी सख्त लहजा नहीं अपनाया. लाशें गिरती रहीं लेकिन गुजरात पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. लगभग 2000 लोग मारे गए. पर ये अलग बात है कि सरकारी रिकार्ड 790 मुसलमान और 254 हिंदू बताते हैं. सैकड़ों नाम अब भी लापता लोगों की सूची में हैं.
ये कहानी याद करके गुजरात के लोग आज भी रो पड़ते हैं, और सूरत के लोगों को तो बीस साल पुराना 1992 का दंगा भी याद है, क्योंकि 1992 के दंगे में भी सूरत के कई परिवारों ने अपने 200 से अधिक लोगों को खोया हैं. हज़ारों लोगों का कारोबार तबाह व बर्बाद हो गया.
सूरत के हाजी मकसूद की आंखें बात करते-करते भर आती हैं. वो बताते हैं कि 1992 में सूरत के दंगे में 200 लोग मारे गए तब चिमन भाई पटेल मुख्यमंत्री थे. इस दंगे में मुसलमानों के बिज़नेस को काफी नुकसान हुआ. फिर वो अचानक बताते हैं कि हमें सिर्फ बूरी यादों को ही सहेज कर नहीं रखना चाहिए.
वो बताते हैं कि जब 2002 में दंगे होने वाले थे, उस दिन के एक दिन पहले ही एक दोस्त ने यह मना कर दिया कि वो अपने घर में ही रहें, घर से बाहर कहीं न जाएं.उनका ये दोस्त पुलिस में है और गैर-मुस्लिम है. फिर वह बताते हैं कि इस दंगे में मेरे एक दोस्त ने अपनी एक बहन खो दिया. वो भी पुलिस में था और मुस्लिम था.
यहां के मंसूर मियां बताते हैं कि अल्लाह का शुक्र है कि मैं दंगे से पहले दिल्ली गया था, और दंगे वाले दिन ही मेरे आने की टिकट थी, पर मेरे रिश्तेदारों से मुझे यहां आने से मना कर दिया. पर, अफसोस कई रिश्तेदार इस दंगे की भेंट चढ़ गए.
तकरीबन 55 साल के सईद ख़ान अपनी उम्र से काफी बड़े नजऱ आते हैं. आंखें मुरझाई हुई सामने के दांत टूटे हुए और चेहरे पर शिकन इस बात का सुबूत हैं कि उन्होंने काफी दर्द सहे हैं. लगभग दस साल पहले 28फरवरी की सुबह उनका जीवन सामान्य रूप से चल रहा था. लेकिन शाम के पांच बजे तक उनका सब कुछ लुट चुका था. उनके परिवार के दस लोग दंगों में मारे जा चुके थे जिनमें उनकी पत्नीए उनकी मां और उनके भाई शामिल थे. उनकी दुनिया उजड़ चुकी थी.
मो. हनीफ का कहना है कि उन दिनों जो हमारी आंखों ने देखा है, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. हालांकि सूरत में गुजरात के दूसरे शहरों के मुकाबले कत्ले-आम काफी कम हुआ, पर इसने यहां के मुस्लिमों की कमर तोड़ कर रख दी, और वैसे भी यहां मुसलमान हमेशा निशाना बनाए गए. 1993, 2008 और 2011 के बम धमाके के बाद भी निशाना मुसलमानों को ही बनाया गया. आज भी सैकड़ों मुसलमान जेलों में बंद हैं, जिनमें ज़्यादातर बेकसूर ही हैं.
मंसूर मियां जैसे सूरत के कई लोग आगे बताते हैं कि अब भी गुजरात के लोगों को इंसाफ का इंतजार है, जो आज नहीं कल जरूर मिलेगा. आगे वो यह  भी बताते हैं कि भले मोदी पीएम बनने का सपना देख रहे हों, पर अब सीएम बनना थोड़ा मुश्किल होगा.गुजरात की जनता उनकी सच्चाई को जान चुकी है. वो जान चुकी है कि वो हमारे एकता में नफरत की बीज बोना चाहते हैं, जो अब मुश्किल है.  
मोदी के विकास थ्योरी को भी यहां के लोग अब समझ चुके हैं. मोदी की सबसे खास बात तो यह है कि इन्होंने 176 कारपोरेट्स को गुजरात में लाखों एकड़ ज़मीन दे दी हैं.इन्हें टैक्स में भी छुट दी है. प्रदुषण कितना भी करो, कोई रोकने वाला नहीं है. कोई मजदूर अगर आवाज़ उठाए तो गुजरात पुलिस उनको जेलों में डालने के लिए तैयार बैठी है. कोई मजदूर आंदोलन वहां चलने नहीं दिया जाता. अब जब बंगाल से टाटा को भगाया तो गुजरात ने उसका स्वागत किया. मोदी ने कहा- हमारे यहां आ जाईए. मैं आपको बता दूं कि वहां नैनो कार बनाने के लिए टाटा को जो ज़मीन दी गई है, वो एक चलती हुई युनिवर्सिटी को बंद करके दिया गया है. गांव की जमीन जबरदस्ती लोगों से लेकर दे दी गई. गांव को लोग रो रहे हैं. इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी  रो रहे हैं.कितनी दिलचस्प बात है कि आपको युनिवर्सिटी नहीं चाहिए, आपको कार बनाने का कारखाना ज़रूर चाहिए. तो इस तरीक़े से गुजरात तो अमीरों का स्वर्ग और गरीबों के लिए नरक बन गया है.
खैर, दंगों को कभी भी और किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता, चाहे वो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बंटवारे के समय हुए हों, या नौआखली में हुआ हिंदुआ का कत्लेआम हो, या 1984 में सिखों का कत्लेआम. हमेशा से भारत में साम्प्रदायिक दंगे होते रहे और उन पर राजनीति भी……लीपापोती हुई और सब समाप्त……..!चलते-चलते आपको यह भी बताता चलूं कि इस देश में इंसाफ की उम्मीद ज़्यादा मत कीजिएगा, क्योंकि सूचना के अधिकार से मिले कागज़ के टुकड़े बताते हैं कि हमारे देश में 432 सांप्रदायिक दंगों के मामले 1993 से लेकर 2009 तक राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में दर्ज हुए हैं, पर ज़्यादातर मामलों में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग कुछ भी नहीं कर पाया है.
मानवाधिकार आयोग से सूचना का अधिकार क़ानून के तहत ली गई जानकारी के मुताबिक अक्टूबर, 1993 से लेकर फरवरी, 2009 तक सांप्रदायिक दंगों और जातीय हिंसा के कुल 432 मामले दर्ज हुए.
इन मामलों का ब्यौरा इस प्रकार है-
आंध्र प्रदेश       07
असम       03
बिहार       12
गुजरात       68 (दूसरा सर्वाधिक)
हरियाणा       04
हिमाचल प्रदेश 01
जम्मू-कश्मीर 02
कर्नाटक       11
मध्य प्रदेश 08
महाराष्ट्र       20
मेघालय       01
मिज़ोरम       01
ओडिशा       25
पंजाब       01
राजस्थान       05
तमिलनाडु 186 (सर्वाधिक मामले)
उत्तर प्रदेश 61 (तीसरा सर्वाधिक)
पश्चिम बंगाल 02
चंडीगढ़       01
दिल्ली       04
झारखंड       05
उत्तराखंड       03

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