आधुनिक टेक्सटाइल उद्योग में ठेका मजदूरी या बंधुआगीरी-2

(पहले भाग का शेष. इस लेख का पहला हिस्सा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें. दो भागों में समाप्त)
ठेका मजदूरी प्रथा:
जिसे खत्म होना था आज उसी का साम्राज्य है: 1970 में कांटैक्ट लेबर रेग्यूलेशन एण्ड एबॉलिशन एक्ट यानी ठेका मजदूर नियमन व उन्मूलन अधिनियम, 1970 के तहत भारत सरकार ने इस ठेका प्रथा को खत्म करने के लिए कानूनी पहलकदमी लिया. लेकिन मजदूर और औद्योगिक रिश्ते में यह प्रथा खत्म होने के बजाय बढ़ती ही गई. 1990 में उदारीकरण, नीजीकरण और वैश्वीकरण की औद्योगिक विकास की हवा का एक ही उद्देश्य था: मजदूरों का अधिकतम दोहन. एक के बाद एक श्रम आयोग बने जिसका एक ही उद्देश्य था इस एक्ट का उलघंन करने की पूरी छूट. जितनी ही बार श्रम कानूनों को लचीला बनाने की बात की गई उतनी बार मजदूरों को पूंजी का गुलाम बना देने की नीति को और अधिक उदार बना दिया गया. इस एक्ट के अनुसार ठेका मजदूरों का वहीं प्रयोग किया जा सकता है जिस काम की प्रकृति नियमित नहीं है और उसमें तीन या छह महीने से अधिक की अवधि तक का काम नहीं है. साथ ही ऐसे काम खतरनाक प्रकृति के नहीं हैं. ऐसी फैक्ट्री जहां नियमित काम करने वालों की संख्या पर्याप्त हो और काम की प्रकृति नियमित हो वहां ठेका मजदूर प्रथा लागू नहीं होगा. इस एक्ट के तहत ठेकेदार उसे माना गया जो संस्थान के लिए उत्पादन या काम को करने के लिए सुविधा उपलब्ध कराता है और उस काम को पूरा करने के लिए मजदूरों के साथ उपस्थित होता है. ऐसे ठेकेदार का पंजीकरण होना चाहिए. मजदूरों को वेतन भुगतान की जिम्मेदारी फैक्ट्री मालिक की है. साथ ही मजदूरों को कैंटीन, रेस्ट रूम व रहने की व्यवस्था, प्राथमिक चिकित्सा, पीएफ, इएसआई, पीने का पानी, शौचालय आदि की व्यवस्था करने के लिए ठेकेदार व मालिक उत्तरदायी है. मजदूरों को ठेकेदार द्वारा तय समय सीमा के भीतर मजदूरी-जो निश्चय ही तय न्यूनतम सीमा से उपर होगा और फैक्टी द्वारा दिये जाने वाली मजदूरी से तय होगा, का वितरण फैक्ट्री मालिक द्वारा तय व्यक्ति के सामने ही होगा. जाहिर सी बात है कि यह सब कुछ लागू नहीं होता है. और इसे न लागू करने के लिए सरकारी नीतियां पर्याप्त बढ़ावा देती हैं. इस एक्ट में कई सारे छेद हैं जिससे पूंजी के मालिकों के पक्ष में व्याख्या करना आसान हो जाता है. इस व्याख्या में एक्ट के सारे प्रावधान आसानी से बेकार साबित कर दिए जाते हैं.
ओरिएन्ट क्राफ्ट में सैकड़ों ऐसे मजदूर हैं जो पिछले दसियों साल से काम कर रहे हैं लेकिन नियमित नहीं हैं. इस कंपनी के बगल में जेजे वाल्या नाम की एक कंपनी है जो मजदूरों से छुटकारा पाने के लिए हर तीन साल पर नाम ही बदल देती है. ओरिएन्ट क्राफ्ट कंपनी में लाॅग बुक्स दो तरह के रखे जाते हैं. जिसका फायदा मालिक व ठेकेदार दोनों ही उठाते हैं. यहां ठेकेदार ओरिएन्ट क्राफ्ट के लिए काम करने वाले मजदूरों को उपलब्ध कराने वाले से अधिक की भूमिका निभाता है: अधिक काम करने के लिए दबाव डालना-मानसिक और कभी कभी शारीरिक, ओवर टाइम का पैसा नहीं देना, पीएफ के पैसे में हिस्सेदारी लेने या पूरा ही खा जाना, वेतन में से एक हिस्सा खाना, देय सुविधाओं को न देना, पैसे रोककर या नौकरी से निकलवा देने या नौकरी देने के नाम पर मजदूरों को अपने तरीके से काम के लिए विवश करना आदि. इसी तरह मालिक मजदूरों के प्रति किसी तरह का उत्तरदायित्व नहीं निभाता है. फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर ठेकेदार का आदमी है. नियमित मजदूरों को न रखने के पीछे मालिक की मंशा मजदूरों के प्रति किसी भी तरह के उत्तरदायित्व से बचना होता है. वह काम का लक्ष्य ठेकेदारों के सामने रखता है और इसके लिए जरूरी तैयारी-वर्कशाप आदि, ठेकेदार पर छोड़ देता है. ठेकेदार को इस काम में कोई रूचि नहीं रहती. वह मजदूरों की लगातार भर्ती-निकाल से इस काम को पूरा करता है. इसके चलते घायल होने वाले मजदूरों के प्रति न तो ठेकेदार जिम्मेदारी लेता है और न ही मालिक. मारुती सुजुकी में ऐसे ट्रेनीज का भरपूर दोहन, घायल होने या बीमार होने पर काम से निकाल देने की घटना का इतिहास पिछले दिनों काफी चर्चा का विषय बना रहा.
तीरूपुर, तमीलनाडु में टेक्सटाइल उद्योग में स्थिति और भी भयावह है. वहां ठेकेदारों ने सुमंगली या ऐसी ही योजना के तहत अविवाहित लड़कियों को काम पर रखते समय उन्हें हास्टल में रहने के लिए विवश करते हैं. काम करने वाली लड़कियों को उनके हाथ में वेतन नहीं दिया जाता है. उन्हें अपने मां-पिता के अलावा किसी से बात करने की मनाही है. साल में दो बार उनके रिश्तेदार मिल सकते हैं. उन्हें ठेकेदारों गाड़ी काम के स्थल तक ले जाती हैं और 12 घंटे काम कराकर वापस उसी हास्टल में छोड़ आती हैं. यह योजना 14 से 19 की लड़कियों का दोहन कर उन्हें तीन से पांच साल में दहेज के लिए 30 से 50 हजार रूपए देती हैं. साल में एक बार पांच दिन के लिए छुट्टी मिलती है. जाहिर है इस भुगतान में न तो न्यूनतम वेतन का कानून काम करता है और न ही काम के हालात की शर्तें. ठेकेदार, सुपरवाइजर, सुरक्षा गार्डों द्वारा इन लड़कियों का शारीरिक मानसिक शोषण की घटनाएं आमतौर पर होती हैं. जिसके चलते वहां आत्महत्या की दर आसाधारण तौर से अधिक था. ठेकेदार सुपरवाइजर और मैनेजर इस योजना के तहत यह तीन से पांच साल के जिस करार पर हस्ताक्षर कराते हैं उसे तोड़ने पर साल के अंत में जो देय होता है उसे नहीं देते हैं. ये लड़कियों के मां बाप को उलजूलूल पत्र लिखकर उन्हें उकसाते हैं कि बीच में ही करार तोड़कर लड़की को ले जाए और दूसरी ओर लड़की को ऐसे ही पत्रों अपने दबाव में काम कराते हैं. मजदूर पत्रिका के संवाददाता और मजदूर के हालात का अध्ययन कर रहे संतोष कुमार की रिपोर्ट के अनुसार तीरूपुर में 2009-2010 के बीच 1050 से ज्यादा आत्महत्याएं हुईं और ये फैक्टरी में काम करने वाले मजदूर थे. यहां जिन कंपनियों के लिए काम होता है वे हैं वाॅलमार्ट, फिला, रिबाॅक, एडीडास, डीजल आदि. कपड़ा उद्योग वाले शहर को डालर सिटी यानी निर्यात से विदेशी पैसा कमाने के शहर के रूप में भी इसे जाना जाता है. प्रतिवर्ष 12000 करोड़ रूपये के निर्यात के पीछे प्रतिदिन 20 लोगों द्वारा आत्महत्या का प्रयास और लगभग दो लोगों की आत्महत्या का स्याह पक्ष यही दिखाता है कि मुनाफे की हकीकत कितनी है और मजदूर श्रम बेचने के लिए कितना ‘स्वतंत्र’ है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जिस एसेम्बली लाइन को तीसरी दुनिया के देशों में बनाया वह मूलतः ‘कुली कैंप’ है. ‘हाॅस्टल’ सुविधा एक लेबर कैंप की तरह है जहां मजदूर को सुरक्षा गार्डों, मैनेजरों व ठेकेदारों की निगरानी में रहना होता है और फैक्टरीयों में 12 से 16 घंटे तक काम करना होता है. स्थानीय मजदूर इसे बंधुआ मजदूरी का नाम देते हैं.
इसी तरह टेक्सटाइल, ऊन और साइकिल उद्योग का केंद्र लुधियाना में ठेका मजदूरों जिन्हें पंजाब में आम तौर पर ‘भइया’ या ‘बिहारी’ के नाम से बुलाया जाता है, को न्यूनतम मजदूरी के कानून की धज्जी उड़ाते हुए पिछले कई दशकों से काम कराया जाता रहा है. लगभग 20 हजार उत्पादन इकाईयों में काम कर रहे  5 लाख से अधिक ठेका मजदूरों को आठ घंटे काम और काम की न्यूनतम शर्तों को पूरा करने की लड़ाई पिछले साल पहले से कहीं अधिक संगठित रूप में उभर कर आई. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सभी फैक्टरीयों में ठेका मजदूर काम करते हैं. अलग अलग संगठनों के सामूहिक प्रयास से 144 यूनिटों के लगभग 3500 मजदूरों ने हड़ताल कर न्यूनतम मजदूरी और आठ घंटे काम की मांग को रखा. पीस रेट पर काम का मुख्य रूप होने से इस न्यूनतम मजदूरी की मांग के साथ जोड़ना एक कठिन काम है. इस आंदोलन को आंशिक सफलता ही मिल सकी. जिस समय यह आंदोलन चल रहा था फैक्टरी मालिकों ने पंजाब बनाम बाहरी का विभाजन कर दंगा भी कराया और मजदूरों को बुरी तरह पीटा गया, उनकी संपत्ति को लूटा गया.
2009 मीनाक्षी राजीव द्वारा प्रस्तुत ‘भारत में ठेका मजदूर अधिनियम: तथ्य रिपोर्ट’ में दिखाया है कि मजदूरों को तयशुदा न्यूनतम वेतन से 30 प्रतिशत कम भुगतान किया जाता है. जबकि ओवर टाइम को ठेकेदार अपने हिस्से में डाल लेता है. 66 प्रतिशत मजदूर अपना पीएफ हासिल नहीं कर पाते. ग्लोबल लेबर जर्नल के तीसरे अंक 2012 में अलेजांद्रा मेज्जाद्री का भारत गारमेंट उद्योग पर पेश किए पेपर के अनुसार 1989-90 से 1994-95 के बीच संगठित मजदूरों का प्रतिशत 27 व असंगठित 6.20 प्रतिशत था. जो 1994-95 से 1999-2000 के बीच क्रमशः 2.3 व 14.9 प्रतिशत हो गया. यह आंकड़ा सरकारी है. इस दौरान संगठित क्षेत्र में रोजगार 17.30 से घटकर 3.80 पर आ गया जबकि असंगठित क्षेत्र मंे यह 0.7 से बढ़कर 15.20 प्रतिशत हो गया. नोएडा में किए गए सर्वे के अनुसार 80 प्रतिशत मजदूर अनियमित थे. 2005 में मास्टर व कटर आठ से दस हजार तक पा रहे थे पर हेल्पर या अनस्किल्ड मजदूर लगभग 2000 पा रहे थे.
गुड़गांव में और ओरिएन्ट क्राफ्ट में मजदूरों की भर्ती करने वाले ठेकेदारों में अधिक संख्या स्थानीय है पंजाब राज्य के हैं. कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं. थोड़ी संख्या बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश से है. मूलतः मजदूरों के इलाका, धर्म, भाषा, रिश्तेदार आदि से जुड़े ठेकेदारों की संख्या कम है. यह अंग्रेजों के समय अपनाए गए ठेका प्रथा -जाबर प्रथा से यह इस मायने में भिन्न है. मजदूर व ठेकेदार में इलाकाई, भाषा, संस्कृति आदि का काफी फर्क होता है और आम तौर पर ठेकेदार भर्ती केंद्र खोलकर मजदूरों को काम उपलब्ध कराता है. हालांकि आज इस प्रथा को जिस तरह से प्रयोग में लाया जा रहा है उससे जाॅबर प्रथा के पीछे के उद्देश्य उतनी ही आसानी से पूरा हो रहे हैं. निश्चय ही इस बदलाव का अध्ययन करना चाहिए. ओरिएन्ट क्राफ्ट में ठेकेदार ने जब नसीम पर हमला कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया उस समय इस कंपनी के प्रबंधकों ने तुरंत नसीम व अन्य मजदूरों के साथ वार्ता शुरू कर दिया. देर रात तक नसीम के परिवार, रिश्तेदार व इलाके से लगभग 150 से उपर लोग इकठ्ठा हो गए. मजदूरों के बीच काम कर रहे और इस कंपनी के मजदूरों के साथ जुड़े हुए सक्रिय कार्यकर्ता ने बताया कि मसला मालिक और इन लोगों के बीच तय हो गया और शायद(!) कुछ हर्जाने के साथ मामले को रफादफा कर लिया गया. इस फैक्ट्री के अन्य मजदूर इस प्रक्रिया से बाहर रहे.
भारत में जिस समय ठेका मजदूर प्रथा को नियमित व खत्म करने का अधिनियम लाया गया उस समय विश्व आर्थिक संकट से गुजर रहा था. अमेरीका और पूरा यूरोप महामंदी की मार से पीडि़त था. भारत पर इसका असर खूब था. यह वह समय था जब गांवों में मजदूर व गरीब किसानों ने बंधुआ मजदूरी-गुलामी की व्यवस्था के खिलाफ नक्सलबाड़ी का उद्घोष किया. इस समय तक नीजी क्षेत्र काफी हद तक विकसित हो चुका था और पब्लिक सेक्टर की भूमिका काफी हद तक पूरी हो चुकी थी. छोटे मोटे उद्यमों से प्राथमिक पूंजी जुटाने और शहरी समुदाय को एक छोटी में जीवन गुजारने की व्यवस्था की जरूरत उपरोक्त दोनांे क्षेत्रों के लिए नहीं रह गई थी. इस एक्ट के छेद से विशाल पब्लिक सेक्टर व नीजी क्षेत्र की हाथियों को लगातार आसानी से गुजर जाने दिया गया लेकिन छोटे उद्यमियों को छापेमारी कर तबाह करने का सिलसिला जारी हुआ. ‘आपात्काल’ व ‘इंदिरा राष्ट्रीयकृत समाजवाद’ ने 1980 तक एक ऐसा माहौल बना चुका था जिसमें फासीवादी ताकतें बड़े पैमाने पर छोटे उद्यमों को नष्ट-तबाह करती रहीं.
1977 में ही अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन ने कारपोरेट, साम्राज्यवादी देशों की सरकार व इनकी दलाल ट्रेड यूनियनों के बीच वार्ता से श्रम नीति में एक महत्वपूर्ण किया जिसके तहत दुनिया के स्तर पर कमोबेश ठेका मजदूरी प्रथा को खत्म करने के लिए प्रस्ताव लाया गया. वस्तुतः यह प्रस्ताव बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने लेबल पर काम करने वाले तीसरी दुनिया के देशों के लिए था. इन्होंने लेबल अपने पास रखा और श्रम को तीसरी दुनिया से आउटसोर्स किया. पूरा दक्षिण एशिया एसेम्बली लाइन बन गया जिसका अंत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लेबल और उनके रिटेल पर खत्म होता था. इस अकूत लूट के बल पर साम्राज्यवादी देश अपने यहां के श्रमिकों व मध्यवर्ग को कूपन काट कर पैसा बांट रहे थे और उन्हें संपन्नता में डुबा रहे थे. 1980 के दशक में विश्वबैंक व मुद्राकोष ने इन देशों का संरचनागत बदलाव के लिए बाध्य किया और इसका अगला चरण वैश्वीकरण, उदारीकरण, नीजीकरण के तहत पूरा किया गया.
अफ्रीका, एशिया और लाटिन देशों में श्रम को नियंत्रित करने के लिए इस कानून को लाया गया जबकि इन देशों में इस व्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा के लिए तैयारी हो चुकी थी. नीजी व पब्लिक क्षेत्र अपने हित को तेजी से पूरा करने के लिए देशों की सरकारों द्वारा इसे स्वीकार किया जा चुका था. यह अकारण नहीं है कि अमेरीका को मोदी फासिस्ट ने बिजनेस मैन दिखाई दे रहा है जहां रिलायंस कपड़ा उद्योग में मजदूरों की तनख्वाह में पिछले दस सालों में 1000 रूपए की वृद्धि हुई, यह 5500 से बढ़कर 6500 किया गया. 1980 तक इस तबाही ने इतना काम कर दिया था कि रिलांयस का टेक्सटाइल उद्योग खड़ा हो सके. और मुम्बई मुकेश अंबानी का हो सके. 1984-85 तक तबाह बुनकरों, कारीगरों आदि से नया टेक्सटाइल उद्योग खड़ा हुआ. 1990 के बाद तो सरकार जितनी ही लचीली हुई तबाहियों के मंजर पर उतने ही नए उद्योग खड़े होते गए. 1970 में भी कोयला खदानों में बच्चे काम करते थे. ठेका प्रथा इन कोयला खदानों से लेकर एयर इंडिया के उड़ानों तक में बना रहा. आज भी कर्नाटक से लेकर झारखंड व छत्तीसगढ़ में इस सिलसिले को देखा जा सकता हैं. आज असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की कुल मजदूरों की संख्या 90 प्रतिशत से उपर है. और जिन्हें संगठित क्षेत्र का मजदूर माना जा रहा है वह भी कितना संगठित है, इसका अध्ययन करने की जरूरत है.
मजदूर संगठन की चुनौतियां:
मजदूर आंदोलन पर काम कर रहे मेरे दो मित्र सेक्टर 58 के उस साइट पर जाना चाह रहे थे जहां से गिरकर एक मजदूर की मौत हो गई थी और इससे गुस्साये मजदूरों ने पुलिस की गाड़ी फूंक दी और साइट आॅफिस पर हमला कर तोड़फोड़ किया. जाने के समय वे रास्ता भटक गए. वे रास्ते में आने वाले रियल स्टेट के विभिन्न साइटों पर पूछते हुए जा रहे थे कि क्या यहां कोई मजदूर गिरकर मरा है? उन्होंने बताया कि हर एक निर्माणाधीन साइट पर ऐसी घटना हुई है. मानेसर से लेकर गे्रटर नोएडा तक लगभग 150 किमी के ऐसे निर्माणाधीन स्थलों पर हो रही मौतों की आप यदि कल्पना करें तो एक भयावह दृश्य खड़ा हो जाएगा. लाखों मजदूरों ठेकेदारी प्रथा के तहत काम कर रहा है और यहां टेक्सटाइल उद्योग से कहीं अधिक गुलामी है. ओरिएन्ट क्राफ्ट में काम कर रहे मजदूरों से बातचीत के दौरान एक मजदूर न चुनौती रखा: ‘आप मजदूरों को एक कर दीजिए. जिस दिन से वे एक हो जाएंगे उस दिन से फैक्ट्री में ठेकेदारों की नहीं चलेगी.’
एक होने का सिलसिला कैसे शुरू हो, यह एक कठिन चुनौती है. मजदूरों के अपने अपने ठेकेदार हैं और उससे उपजे अलग अलग हित. इसी तरह काम की विशिष्टता के आधार पर विभाजन है. सांस्कृतिक व क्षेत्रीय विभाजन है. एक फैक्ट्री के भीतर ठेकेदारी प्रथा यानी नौकरी की अनिश्चितता के चलते मजदूर द्वारा पहलकदमी लेने की समस्या है. ठेकेदारों व मालिकों के गुंडों और स्थाीनय स्तर के रोजमर्रा के दबाव अलग से नकारात्मक काम करते हैं. इस हालात में मजदूरों की एकजुटता का मसला फैक्ट्री के बाहर व भीतर दोनों ही स्तर पर है. इससे भी बड़ा मसला सरकार व प्रशासन द्वारा अपनाई जा रही नीतियां हैं. आवास, सामाजिक सुरक्षा और न्यूनतम वेतन व ठेका प्रथा से मुक्ति जैसा मसला फैक्ट्री के भीतर व बाहर दोनों का ही है.
मजदूर आंदोलन एक व्यापक पहलकदमी की मांग कर रहा है. जिसका एक तार गांव से जुड़ा हुआ है तो दूसरा शहर से. यह बहुत से समुदायों के लिए जीवन मरण के प्रश्न के तौर पर खड़ा है. चंद दिनों पहले मालेगांव पर आए एक रिपोर्ट के अनुसार वहां जी रहा मुस्लिम समुदाय जीवन और मौत के बीच खड़ा है. इसी तरह सूरत, बड़ोदरा जैसे शहरों में उडि़सा के कई आदिवासी समुदाय के लिए चंद रोटी के जुगाड़ का माध्यम है. उनके मूल रिहाइश को नई आर्थिक नीति ने खा लिया है. मजदूरों की बड़ी संख्या जाति, इलाका, समुदाय, धर्म, राष्ट्रीयता आदि के साथ जुड़ा हुआ है और इस आधार पर वह विभाजित भी है. मजदूरों का यह बना हुआ सामुदायिकरण जिस व्यापक एकता की मांग कर रहा है और उसके लिए जिस व्यापक पहलकदमी की जरूरत है वह निश्चय प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों की व्यापक एकजुटता से ही संभव है. मजदूर संगठन इन चुनौतियों के मद्देनजर ही बन सकता हैं.

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