अन्ना की टीम के जन लोकपाल बिल का मसौदाः कुछ चिंताएं

निःसंदेह देश को एक मज़बूत, प्रभावी और व्यवहारिक लोकपाल बिल की ज़रूरत है जिससे भ्रष्टाचार के प्रत्यक्ष कारणों को रोकने और खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सके. हालांकि ऐसे तमाम लोगों के लिए, जो किसी दैवीय चमत्कार जैसे परिणामों की उम्मीद लिए लोकपाल बिल की ओर देख रहे हैं, मैं इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि केवल क़ानून बनाने भर से देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को ताबूत में बंद नहीं किया जा सकता है और न ही यह क़ानून मूलभूत ढांचे के साथ हो रहे खिलवाड़ और भ्रष्टाचार की जननी आर्थिक नीतियों, पूंजीवाद को घेर पाने में सक्षम है. पर फिर भी एक बेहतर क़ानून की बदौलत कुछ दूर तक लड़ाई की जा सकती है इसलिए एक बेहतर क़ानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ना ही चाहिए.

मौजूदा स्थितियों में सरकार की ओर से तैयार ड्राफ्ट तो पूरी तरह से अप्रासंगिक हो ही चुका है. दूसरे मसौदे की कोख सिविल सोसाइटी पैनल के पास है और वहीं से यह तैयार होकर कमेटी की मेज पर उतर रहा है. इस ‘जन लोकपाल बिल-2.2’ की कई दिक्कतें हैं जिनपर अगर हम अभी नहीं चेते तो क़ानून न होने से भी बदतर स्थिति में देश चला जाएगा. क़ानून के बनने के क्रम में हमेशा एक बड़े पैमाने पर चर्चा, बहस और आलोचना होनी ज़रूरी होती है वरना जल्दबाज़ी में चंद लोगों की मदद के लिए बने क़ानून की परिणति या तो देश में अबतक लागू होते आए आतंकवाद निरोधक क़ानूनों की तरह होती है और या फिर आज तक इस्तेमाल में न आ सके क़ानूनों की तरह. आतंकवाद निरोधन क़ानूनों ने चरमपंथी तो पता नहीं कितने पकड़े पर हज़ारों बेकसूरों को कश्मीर, पूर्वोत्तर और देश के बाकी हिस्सों में निगल लिया. संकट यह है कि इस क़ानून की वकालत कर रहे अधिकतर लोग न तो इस क़ानून के प्रारूप पर बड़ी जन-बहस खड़ी कर पा रहे हैं और न ही खुद इसे पढ़ने-समझने की बारीक कोशिश कर रहे हैं. बहरहाल, बहस को और बढ़ाने के बजाय मैं सीधे इस लेटेस्ट 2.2 ड्राफ्ट पर आता हूं. कुछ बिंदुओं को सामने रखना ज़रूरी है.
ताज़ा मसौदे (2.2) से पहले भी कई ड्राफ्ट आए और उनमें कुछ बदलाव के बाद नए प्रारूप सामने आते रहे पर दिक्कत यह रही कि ड्राफ्ट का मूल स्वभाव और प्रारूप वही रहा जो कि शुरुआत में था. इसलिए सबसे पहले तो यह तर्क ग़लत है कि जैसे-जैसे इस मुद्दे पर लोगों से चर्चा होती गई, इसमें कई प्रमुख बदलाव होते रहे. चर्चाओं से निकली चीज़ों को इसमें जो़ड़ा तो गया पर मूल ढांचा वही है. अब मूल ढांचा क्या है, इसपर बात कर लें. मूल ढांचे में तीन बड़ी चीज़ें हैं- हर स्तर के भ्रष्टाचार से निपटना, मिसकन्डक्ट यानी अपने दायित्वों का निर्वहन न करनेवालों से निपटना और तीसरा है जन शिकायत निवारण. यानी यह क़ानून ख़ुद सरकार जैसे एक सुपर स्ट्रक्चर की तरह खड़ा है. यह ताज़ा मसौदा एक ऐसे जिन्न की तरह प्रभावकारी है जिसका अस्तित्व और जवाबदेही जनता के प्रति नहीं है लेकिन जो सत्ता के समानान्तर क्षमताएं रखता है.
मसौदे में प्रावधान है कि हर विभाग अपना सिटिजन चार्टर जारी करेगा जिसे एक तरह से क़ानूनी दर्जा भी हासिल होगा. राज्यों और केंद्र सरकार के हज़ारों विभागों में जब इस तरह से सिटिजन चार्टर बनेंगे और क़ानून के तौर पर लागू होंगे तो इसका मतलब यह होगा कि यह क़ानून सैकड़ों क़ानूनों को बनाने का माध्यम भी बन जाएगा. इतना ही नहीं, लोकपाल को इन सिटिजन चार्टरों में कभी भी बदलाव कराने का अधिकार भी होगा. इस तरह यह ताज़ा प्रारूप विधायिका के अस्तित्व को खारिज करते हुए काम करता है. यानी लोकपाल न केवल देखरेख कर रहा है बल्कि कई नीतिगत फैसले भी ले रहा है. वैचारिक तौर पर देखें तो यह एक सुपर-सुप्रीमकोर्ट जैसी इकाई की स्थापना जैसा होगा. सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे अधिकार हैं कि वो नीतिगत निर्देश जारी कर सके पर इसका निर्धारण विधायिका की जगह अदालत या किसी और संस्था के द्वारा होने की बात से सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा हिस्सा खुद सहमत नहीं है. इसको लेकर बहस भी चल रही है.
मौजूदा मसौदे के मुताबिक लोकपाल को किसी का भी फोन टेप करने का अधिकार होगा. किसका फोन टेप हो, यह लोकपाल ही तय करेगा. किसी के घर छापेमारी या तलाशी के लिए मजिस्ट्रेट से वारंट जारी कराने की ज़रूरत लोकपाल को नहीं होगी. वो खुद वारंट जारी कर सकेगा और उसकी मान्यता कचेहरी के वारंट जितनी ही होगी. यानी एक बहुत ही सशक्त और निरंकुश संस्था खड़ी हो जाएगी. यह तर्क सामने आ सकता है कि क्या फिर एक दंतहीन क़ानून बनाकर लोगों के सामने रख दें तो इसका जवाब यह है कि क़ानून बनाते समय उसके दुरुपयोग की स्थितियों का विश्लेषण उतना ही ज़रूरी है जितना कि किसी नाभिकीय रिएक्टर की स्थापना करते समय उसकी सुरक्षा और संभावित खतरों का. इस प्रश्न का जवाब दे पाने में वर्तमान मसौदा अक्षम है.
इतनी सारी ताकतों के साथ क़ानून के लागू होने को सुनिश्चित कैसे किया जाएगा, यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है. इसको लागू करने का काम केवल केंद्रीय लोकपाल या 11 लोकायुक्त नहीं करने वाले हैं. वे तो इसकी देखरेख के लिए हैं. हज़ारों-लाखों की तादाद में लोग इस क़ानून को लागू करने के लिए लगाए जाएंगे. जिनमें से अधिकतर लोग मौजूदा पुलिस महकमे या बाकी एजेंसियों के होंगे. कुछ नई नियुक्तियां भी होंगी. क़ानून के दायरे में इतनी सारी चीज़ें शामिल कर ली गई हैं कि इसको लागू करने के लिए बहुत बड़े कार्यदल की आवश्यकता होगी. आज हर पंचायत में लगभग 2 करोड़ रूपए पहुँच रहे हैं… तो क्या हर पंचायत में निगरानी अधिकारी की नियुक्ति की जाएगी. ब्लाक के स्तर पर 40 पंचायतें होंगी तो क्या 40 पंचायतों को एक ब्लॉक स्तरीय अधिकारी देखेगा. लोकपाल क़ानून के अनुसार निचले अधिकारी की शिकायत उसके वरिष्ठ अधिकारी से ही हो सकती है. तो क्या एक अधिकारी 40 पंचायतों के सारे लोगों की अर्जियों को देख सकेगा. अभी देशभर में सरकारी विभाग कह रहे हैं कि आरटीआई के कारण उनके सिर पर हद से ज़्यादा काम आ गया है. जबकि आरटीआई का जवाब उसी विभाग का अधिकारी दे रहा है जिस विभाग से जानकारी मांगी गई है. यहां तो अलग से एक पूरी व्यवस्था संभालनी है, जांच करनी है, कार्रवाई करनी है, मामले दर्ज करने हैं, आदेश जारी करने हैं. यानी काफी ज़्यादा काम है. इसे आप कैसे करेंगे यह व्यवहारिक तौर पर स्पष्ट नहीं होगा तो अधकचरी तैयारी वाले क़ानून के साथ आप क्या कर पाएंगे. लोग इसे छोटा मुद्दा मान सकते हैं पर यह बहुत बुनियादी और व्यवहारिक सवाल है इस क़ानून के लागू होने को लेकर. खासकर तब, जब देशभर में लोगों की इस क़ानून से बड़ी उम्मीद हो, इस क़ानून के ढांचे का मज़बूत होना और व्यवहारिक होना बहुत ज़रूरी हो जाता है पर अफसोस क़ानून का मौजूदा मसौदा इसको स्पष्ट कर पाने में अक्षम है. अगर इस अधूरेपन के साथ हम क़ानून को लागू करेंगे तो क़ानून अपने ही दबाव से दबकर मारा जाएगा.
प्रस्तावित 11 लोकायुक्तों के चयन के लिए एक चयन कमेटी का प्रावधान है. इसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के दो जूनियर जज, हाईकोर्ट के दो सीनियर जज, राज्यसभा और लोकसभा के अध्यक्ष होंगे. अब इन लोगों की उपलब्धता को देखिए, ये लोग अति व्यस्त लोगों में हैं. इसलिए क़ानून में प्रावधान है कि इन व्यस्त लोगों की मदद के लिए एक सर्च कमेटी बनाई जाएगी जिसमें आधे लोग सिविल सोसाइटी के होंगे. इनको कोई रिटायर्ड जज चयनित करेगा. सर्च कमेटी लोगों के नाम शार्टलिस्ट करने का काम करेगी. कौन लोग चुने जा सकते हैं उससे लंबी नियमावली इसके लिए है कि कौन से लोग नहीं चुने जा सकते हैं. कुछ नियम बहुत अव्यवहारिक हैं. फिर जो केंद्रीय लोकपाल बनेगा भी, उसका कोई प्रशासनिक कामकाज का अनुभव नहीं होने की वजह से उसकी मूल ज़िम्मेदारियों में भी अड़चन आएगी. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह मसौदा लोकपाल को इस क़ानून के मूल काम से मुक्त करके मुख्य रूप से इस संस्था के प्रशासनिक कार्यों में लगाने का निर्देश देता है.
व्यवहारिकता का दूसरा सवाल यह है कि इस क़ानून के तहत आवेदन इन 11 लोकायुक्तों के पास नहीं होगा, यह निचले स्तर पर ही होगा और वहां से केवल ऐसे मामले उच्च स्तर तक आएंगे जिनमें कोई सांसद, हाईकोर्ट का जज या ज्वाइंट सेक्रेटरी शामिल हो. यानी बाकी बड़े से बड़े घोटाले अगर इन तीन लोगों से संबंधित नहीं हैं तो वे ऊपर तक नहीं आएंगे और अगर आएंगे भी तो कैसे, यह कहीं स्पष्ट नहीं है. अब, ऐसी स्थिति में उदाहरण के तौर पर लाखों, करो़ड़ों के राशन घोटाले को आप निचले स्तर पर ही उठाने के लिए बाध्य होंगे. स्कूलों, चिकित्सालयों आदि के स्तर पर हो रहे बड़े घोटालों के मामलों में निचले स्तर पर ही हल तलाशना होगा और वहां सुनवाई उतनी ही भंवर में है जितनी की आज के बाकी मौजूदा क़ानूनों के तहत है. एक संकट यह भी है कि मान लीजिए मैं किसी विजिलेंस अधिकारी के पास आवेदन करूं और वो उसे खारिज कर दे तो मैं इस आवेदन को किसी वरिष्ठ अधिकारी के पास नहीं ले जा सकता हूं. मैं खारिज करने वाले अधिकारी की शिकायत तो कर सकता हूं पर मेरे मूल आवेदन का क्या होगा, इसे यह क़ानून स्पष्ट नहीं कर पा रहा है.
एक बड़ी संवैधानिक अड़चन यह है कि आपने यहां पर भ्रष्टाचार को मिसकन्डक्ट से जोड़ दिया है. मसौदा कहता है कि एक साल के अंदर किसी भी मामले की जाँच पूरी करनी होगी. आप कोर्ट पर इसे लागू कर रहे हैं. ऐसे नियम हर जगह हैं पर लागू नहीं हो सके. होना आसान भी नहीं है. इस क़ानून के तहत अदालत को भी साल भर की समय सीमा में फैसला देना ही होगा. शिकायत निवारण और भ्रष्टाचार के मामलों के लिए आ रहे आवेदनों पर काम और अदालतों में फैसला अगर एक साल के अंदर नहीं होता है तो इसे मिसकन्डक्ट माना जाएगा. तो क्या किसी जज को या अधिकारी को इसलिए भी सज़ा हो सकती है या उसके खिलाफ़ इसलिए भी कार्रवाई हो सकती है कि उसके पास इतना काम था जो सालभर में पूरा नहीं हो सकता था.
यह कहने के लिए जन लोकपाल बिल है पर जनता इस क़ानून से एकदम बाहर है. लोकपाल और उनके कामकाज के तरीके में जनता की भागीदारी से लेकर क़ानून के लागू करने के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों तक किसी की भी जवाबदेही जनता के पास नहीं है. जनता केवल आवेदन दे सकती है या केस दर्ज करा सकती है. इसके बाद जनता बाहर. कुछ स्तर पर पारदर्शिता रखने की बात मौजूदा ड्राफ्ट में कही गई है लेकिन उसे भी दोबारा देखने की ज़रूरत है. मौजूदा क़ानून की मूल भावना है एक अतिशक्तिशाली केंद्रीकृत क़ानून और हम इसे इस उम्मीद के साथ लागू करेंगे कि ये कुछ चुने हुए अच्छे लोग इसे अच्छे से लागू करेंगे और देश को सुधारेंगे. चुने हुए अच्छे लोग… जनता से नहीं, चुनाव से नहीं, किसी और लोकतांत्रिक तरीके से नहीं बल्कि एक चयन प्रक्रिया से. यानी इतनी सशक्त संस्था के लिए हम लोकतांत्रिक तरीकों को और जनता को पूरी तरह से बाईपास करके आगे जाना चाहते हैं. इसके पीछे की सोच को समझिए… यह सोच जंतर-मंतर पर अन्ना के प्रदर्शनों से लेकर मध्यवर्ग के ड्राइंग रूम तक पसरी है जिसमें लोग राजनीतिक लोगों को, राजनीति को गाली देते रहते हैं और उन्हें सिरे से खारिज करके देश को विशेषज्ञों के हाथ में सौंपने की बात करते हैं. यानी आप डेमोक्रेसी को चलाने के लिए एक तरह की टेक्नोक्रेसी खड़ी कर रहे हैं. हमें लगता है कि विशेषज्ञ देश को चलाएंगे और सुधारेंगे. हम न भूलें कि राजनीतिक संघर्ष और प्रयासों से ही चीज़ें हासिल होती हैं और बनती हैं. विशेषज्ञता मददगार तो हो सकती है पर लोकतंत्र की नियंता नहीं.
मौजूदा प्रारूप में कई बातें अनुत्तरित और अधूरी भी हैं. सबसे पहले तो यह कि इस क़ानून के तहत निचले स्तर तक हज़ारों लोगों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, तनख्वाहें, व्यवस्था, जवाबदेही और उनका संवाद-संपर्क आदि क्या और कैसे होंगे, इस बारे में यह मसौदा कुछ स्पष्ट नहीं कहता. जब हम कहते हैं कि मौजूदा ढांचे और तरीके बेकार और अप्रभावी साबित हुए हैं तो आप विकल्प भी तो स्पष्ट करेंगे कि आप क्या और कैसे बेहतर देने जा रहे हैं. इस बारे में ये मसौदा दो बातें बताता है. पहली, कि इसे राजनीतिक दखल से बाहर रखेंगे और दूसरा कि किसी भी व्यक्ति की किसी भी अधिकतम तनख्वाह पर नियुक्ति का अधिकार लोकपाल के पास होगा. ऐसी बातें जैसे ही लागू होंगीं, बाकी के विभाग और व्यवस्था इस एक्सक्लूसिव क्लब कल्चर के खिलाफ खड़े होंगे. अन्य विभागों में काम कर रहे ईमानदार या बेईमान, सभी तरह के अधिकारी सवाल उठाएंगे कि हमें इतने पैसे और सहूलियतें क्यों नहीं.
एक अहम सवाल उठ रहा है और वह है कि- हू विल वॉच द वॉचमैन. फिर यहाँ तो वॉचमैन तीनों प्रमुख लोकतांत्रिक ढांचों के संतुलन को तोड़कर एक अतिरिक्त और अधिक शक्तिशाली संस्था के तौर पर खड़ा है. एक प्रावधान बनाया गया है कि लोकपाल की शिकायत सुप्रीम कोर्ट में की जा सकेगी और इसके लिए तीन सदस्यी बेंच गठित की जाएगी. पर क्या देशभर में सैकड़ों-हज़ारों असंतुष्ट लोगों की शिकायतें तीन सदस्यी बेंच के ज़रिए निस्तारित हो सकेंगी. और फ़र्ज़ कीजिए कि लोकपाल के खिलाफ 4-5 मामलों में जांच का काम शुरू हो जाए तो उसका कामकाज तो रोक दिया जाएगा. इस स्थिति में यह पूरी संस्था कैसे काम करेगी, इसपर कोई स्पष्ट खाका फिलहाल क़ानून में नहीं है.
विसिल ब्लोवर्स के लिए इस क़ानून में नियम है कि केंद्रीय लोकपाल 24 घंटे के अंदर किसी भी विसिल ब्लोवर की शिकायत को सुनेगा और उसे सुरक्षा प्रदान करवाएगा. इसको कैसे किया जाएगा, इस बारे में क़ानून स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं बता पाता क्योंकि एक तो यह, कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठा रहा और उसे सामने लाने की कोशिश कर रहा हर व्यक्ति विसिल ब्लोवर है. आप हज़ारों-लाखों लोगों को सुरक्षा और 24 घंटे के भीतर सुनवाई केवल एक व्यक्ति के सहारे कैसे देंगे, यह समझ से परे है. दूसरा यह कि शिकायत करने का चैनल क्या होगा. कैसे होगा क्योंकि दिल्ली में बैठे विसिल ब्लोवर के लिए तो 24 घंटे वाली बात समझ में आती है पर सुदूर ग्रामीण भारत में बैठा विसिल ब्लोवर आपको कैसे एप्रोच करेगा, यह समझाना क़ानून के लिए अतिआवश्यक है पर ऐसा किया नहीं गया है. विसिल ब्लोवर्स पर पिछले कुछ सालों में जो हिंसा या हमले हुए हैं उसको देखते हुए यह 24 घंटे वाला नियम बहुत आवश्यक तो है पर इसे लागू करने की कोई तैयारी और व्यवहारिक प्रक्रिया इस मसौदे में नहीं दिखती.
आखिरी सवाल यह है कि क्या इतनी बड़ी, अतिशक्तिशाली और केंद्रीय व्यवस्था को बनाना चाहिए जिसको आप अष्टभुजा की तरह खड़ा कर रहे हैं. एक सीधा सा तर्क है कि जिसको जितनी ज़्यादा ताकत दीजिए, उसकी जवाबदेही भी उतनी ज़्यादा होनी चाहिए. मौजूदा मसौदे का लोकपाल जवाबदेह कम और शक्तिशाली ज़्यादा है. लोकपाल इसलिए बन रहा है क्योंकि किसी विभाग के भ्रष्टाचार की शिकायत उसी विभाग में करने से मिलीभगत और जाँच में पक्षपात का खतरा होता है. पर जैसे किसी और विभाग का परिवार है, वैसे ही यहाँ लोकपाल का परिवार खड़ा हो जाएगा. उनकी शिकायत उन्हीं से. यानी जिस व्यवस्था के खिलाफ आप लोकपाल को खड़ा कर रहे हैं, उसी की प्रतिकृति की तरह लोकपाल तैयार हो रहा है. फिर इसके लिए काम करने वाले लोग भी इन्हीं वर्गों से, मानसिकताओं और सोच से, प्रशासनिक प्रवृत्तियों से आएंगे, जिसमें वो फिलहाल काम कर रहे हैं. निचले स्तर पर भी उनकी ताकत से लोग कतराएंगे और ये लोग जेनेटिक मोडिफाइड लोग तो हैं नहीं जिनके भ्रष्ट न होने की गारंटी दी जा सके, इसलिए ताकत का दुरुपयोग भी होगा ही. ऐसे में एक खतरा यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए खड़ी हुई संस्था कहीं भ्रष्टाचार का अड्डा न बन जाए. इसलिए जवाबदेही को मज़बूत करने की सख्त आवश्यकता है. अफसोस यह कि इस जवाबदेही की चाबी यह मसौदा आम आदमी को देता ही नहीं है.
मानवाधिकारों, लोकतांत्रिक अधिकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए तो यह क़ानून एक और बड़ी चिंता है क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि लोकपाल की कुर्सी पर बैठा आदमी सत्ता और राजनीतिक दलों या कॉर्पोरेट जगत से सारे संपर्क तोड़ लेगा या उनसे मिलना बंद कर देगा. ऐसे में अगर इनके बीच कोई साठ-गांठ बन गई तो यह सबसे बर्बर क़ानून साबित हो सकता है. देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग अगर थोड़ा-सा भी तानाशाही प्रवृत्ति के हुए और लोकपाल का एक धड़ा वो अपने विश्वास में लेकर एक एजेंडे के तहत काम करना शुरू कर दें तो इस देश में दूसरे राजनीतिक मोर्चों को सिरे से कुचलने का काम भी इस क़ानून के ज़रिए किए जाने का खतरा है. इस एक शक्तिशाली संस्था के दुरुपयोग से हम एक तानाशाही, फासीवादी व्यवस्था की चपेट में आ सकते हैं. दूसरा यह, कि ये अति शक्तिशाली संस्था दूसरे क़ानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित कराने का काम करेगी. अब एसईज़ेड एक्ट को ही ले लें तो अगर किसी एसईजेड में किसी कॉर्पोरेट लॉबी को काम करने में अड़चन आ रही है तो वो भी लोकपाल के पास जाकर क़ानून के अनुपालन की दुहाई दे सकती है. लोकपाल उसकी मदद में भी आएगा और आना ही पड़ेगा क्योंकि यह उसका दायित्व है. इसलिए भी जनता के प्रति जवाबदेही और भागीदारी का होना इस क़ानून में अति आवश्यक है.
भ्रष्टाचार से लड़ाई कोई आसान लड़ाई नहीं है. और यह लड़ाई तभी संभव है जब देश का बहुमत समुदाय एक राजनीतिक नेतृत्व के साथ भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खड़ा है. किसी क़ानून भर से यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती क्योंकि आप जिससे लड़ रहे हैं वो बहुत ज़्यादा शक्तिशाली है और वो केवल एक योजना में पैसे नहीं खाता, वो अमरीका के एजेंडे से लेकर कॉर्पोरेट लॉबी, अपराधियों और बाज़ार तक पैर पसारे हुए है. यह क़ानून और इसकी संस्था खड़ी हो पर वो बहुत सारी चीज़ों में न उलझकर ऐसे लोगों को फोकस करता जो अभी तक क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखते रहे हैं तो ज़्यादा प्रभावी और कारगर हथियार के साथ हम आगे बढ़ते.
आप लोकतंत्र की एक अहम लड़ाई को सिर के बल खड़ा करके देखने की कोशिश कर रहे हैं. आप क़ानून की मदद से क्रांति लाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि क्रांति किसी क़ानून से नहीं, लोगों के संघर्ष से आती है. संघर्ष में जीतने के बाद पैदा हुई व्यवस्था के प्रवाह को तय करने के लिए क़ानून बनते हैं. देश को क़ानून से ज़्यादा क्रांति की ज़रूरत है.

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