अन्ना का संडास भी लाइव दिखाइए न

गुरुवार को जैसे-तैसे सदन में लोकपाल के मुद्दे पर मसौदे के पेश किए जाने के बाद बहस शुरू हुई. चर्चा के दौरान सारे सास-बहु एपिसोड्स को काट रहे चैनलों ने आस्था और निष्ठापूर्वक लोकसभा टीवी का सीधा प्रसारण प्रारंभ कर दिया. उनका योगदान केवल टिकर का था कि किस पार्टी के किस सांसद की क्या टिप्पणी थी.

कई लोगों को लगा कि देखो, मीडिया कितना ज़िम्मेदार है. कितनी तत्परता से संसद की कार्यवाही को प्रसारित कर रहा है ताकि पूरा देश देखे कि सदन में लोकपाल को लेकर क्या चल रहा है.
इस चर्चा के ठीक बाद सांसदों द्वारा अन्य मुद्दों और सवालों पर वक्तव्य आने थे. लोकपाल की चर्चा खत्म हुई तो स्पीकर ने वामपंथी नेता वासुदेव आचार्य का नाम पुकारा. वासुदेव आचार्य अपनी सीट से खड़े हुए और उनके मुंह से पहला शब्द निकलने तक कुछ सांसद अपनी सीटों से उठकर जाने लगे.
दरअसल, वासुदेव आचार्य किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर अपना वक्तव्य दे रहे थे. वो बता रहे थे कि पिछले कुछ सालों में ढाई लाख किसान इस देश में आत्महत्या कर चुका है. यह कितना गंभीर और शर्मनाक है देश के लिए.
पर किसान का सवाल अन्ना से नहीं जुड़ा है. सारे टीवी चैनल अपना स्विच चेंज कर चुके थे. सबके लिए संसद में केवल एक काम हो रहा है और वो है लोकपाल. सबके लिए देश में केवल एक मुद्दा है और वो है लोकपाल, सबके लिए देश में केवल एक ही तरह के कार्यक्रम और ख़बरें दिखाई जानी चाहिए और वो है लोकपाल, सबके लिए लोकतंत्र में केवल एक ही प्रश्न सुरसा बनकर खड़ा है और वो है लोकपाल. किसान मरे या सरगै जाए. किसी को क्या. किसी के काम में न इतने सालों में जूं रेंगी है और न अब रेंगती नज़र आएगी.
चैनलों को सुबह से यह सुध तो रही कि अन्ना दिन के पहले हिस्से का सीधा प्रसारण इसलिए नहीं देख पा रहे हैं क्योंकि उनके गांव में टीवी नहीं है. सदन में हंगामे के बाद कार्यवाही स्थगित हुई तो चैनलों ने लोगों को पकड़-पकड़कर बिल पर प्रतिक्रियाएं चलाना शुरू कर दिया. कोई संसद के बाहर मंच सजाए था तो कोई अनोखी शो-रूम का कीमती टॉप पहनकर स्टूडियो में अतिथियों के साथ लकदक बैठी थीं. हर तरफ तेरा जलवा… लोकपाल के अलावा और कुछ नहीं. इसके बाद की चर्चा इस बात प्रसारित होती रही कि अन्ना कैसे अनशन की तैयारी कर रहे हैं. कैसे योग और कपालभाती करते हैं, कैसे सांस फुलाते हैं और टहलने जाते हैं. बाकी मुद्दे गायब.
सदन में चर्चा रुकी तो मीडिया के लिए सदन के बाकी सवाल वैसे ही गौण हो गए जैसे कि सब दिन रहते हैं. पर क्या इस तरह देश में बाकी सवालों से मुंह मोड़ा जा सकता है. इसी संसद में शिकायत निवारण की व्यवस्था को तैयार करने के लिए भी मसौदा पेश किया गया था. इसी सत्र में शिक्षा के क्षेत्र में एफडीआई को अनुमति से संबंधित प्रश्न पूछा गया, इसी सत्र में मध्याहम भोजन के मुद्दे पर सवाल उठे, इसी सत्र में जापान के फुकुसिमा में परमाणुक आपदा के बाद दुनियाभर में रिएक्टरों की सुरक्षा को लेकर प्रधानमंत्री से प्रश्न पूछा गया. इसी सत्र में मजदूरों की स्थिति और दुर्दशा पर प्रश्न किए गए पर उनपर क्या एक भी रिपोर्ट और करवेज, लाइव आपको कहीं किसी चैनल पर दिखा क्या.
सनी लियोन और सास बहु से समय निकालकर, माल्या के कलेंडर से कैमरा हटाकर, कभी अपराधी रहे और अब भगवा पहन चुके बाबाओं से शनि और गुरु की दशा समझना छोड़कर चैनलों ने थोड़ा सा समय सदन के लिए निकाला. वैसे, सदन को सत्र के दौरान तमाशे के तौर पर चैनल दिखाने से पीछे नहीं रहते पर क्या सदन केवल तमाशा है जिसे दिखाया जाए और फिर वापस अपने एजेंडे पर लौटा जाए.
इन कोट-टाई वाले एंकरों, संपादकों से कोई पूछे कि क्या अन्ना के लिए जो करुणा और क्रांति एकसाथ उनके चश्मों में उतर आती है, उन्हें किसानों, मजदूरों, बच्चों, नाभिकीय रिएक्टरों से जुड़े प्रश्न और चर्चाएं सदन में होते दिखाई नहीं देते. इसी अन्नाभक्त मीडिया की पीठ पर बैठकर मनमोहन सिंह के पालतू अर्थशास्त्री और पत्रकार खाद्य सुरक्षा बिल के खिलाफ क्या क्या नहीं लिख रहे हैं. रोटी के बंटवारे की ज़िम्मेदारी से कब्जियत होती मालूम देती है. जनता से जुड़े किसी भी मुद्दे पर आवाज़ एकदम बंद. जो कुछ है सब अन्ना का है, अन्ना ही महाभारत के पार्थ हैं और सारी कथा इन्हीं के दिग्दर्शन के इर्द-गिर्द होगी.
कॉर्परेट के टुकड़ों पर दुम हिलाने वाली इस टीवी पत्रकारिता का क्या कीजिएगा. ये देश में क्रेन लगाकर क्रांति लाएंगे. पर इस सच को समझते चलिए कि रंग दे बसंती बनाना और रंग दे बसंती होना दो अलग-अलग बातें हैं. एक बाज़ार के प्रति प्रतिबद्ध है और एक बदलाव के प्रति. अन्ना भाजपा और कॉर्पोरेट के तानसेन हैं और यह पूरा मीडिया उनका चारण-भाट. वीरगाथा काल में आपका स्वागत है.

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