अतार्किक प्रतिबंध की अहमियत नहीं: यॉन मिर्डल

(स्वीडिश लेखक यॉन मिर्डल ने स्वीडन के विदेश मंत्री को एक चिट्ठी भेजी है जिसमें अपने प्रति भारत सरकार के रवैये का उन्होंने जि़क्र किया है.

बहरहाल, चिट्ठी में कुछ ऐतिहासिक संदर्भ हैं जो ज्यादा मायने रखते हैं और उन्हीं के कारण इसे पढ़ा जाना चाहिए.
इसका शब्दश: अनुवाद प्रस्तुत है, please click here to read the english version of this letter.)
———————–
श्री कार्ल बिल्टर, विदेश मंत्री
मेरा यह पत्र आपको निजी नहीं है बल्कि आपके स्वीडन का विदेश मंत्री होने के नाते है. ऐसे पत्र \\\’\\\’सूचना की स्वतंत्रता के कानून\\\’\\\’ के दायरे में नहीं आते. चूंकि इस पत्र में वही सूचना मौजूद है जो सार्वजनिक दायरे में है, या होनी चाहिए, इसलिए मैं इसे भारत में भी प्रकाशित होने दूंगा. मैं ऐसे मामलों में वही करता हूं जो गुन्नायर मिर्डल किया करते थे और बिल्कुल सीधी भाषा में लिखता हूं.
मुझे अपेक्षा है कि दिल्ली  में हमारे दूतावास को उच्च सदन में गृह राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा मेरे बारे में दिए गए भाषण की प्रति प्राप्त हो गई होगी. मुझे उसकी एक प्रति चाहिए जिससे मैं सिर्फ अखबारी आलेखों के भरोसे न रह जाऊं. मैं उम्मीद करता हूं कि दूतावास मुझे यह भेज सकता है. इसके अलावा, अखबारी रिपोर्ट के आखिरी वाक्य में जितेंद्र सिंह के हवाले से कहा गया है, \\\’\\\’सरकार करीब से हालात पर नज़र रखे हुए है. ऐसे मसले नियमित तौर पर संबद्ध देशों के साथ कूटनीतिक स्तर पर उठाए जाते हैं.\\\’\\\’ इसका मतलब यह हुआ कि भारत सरकार मेरे बारे में स्वीडन के दूतावास से पूछताछ कर चुकी है?
मैंने अपनी नई किताब (रेड स्टावर ओवर इंडिया) के भारत में लोकार्पण के लिए कॉन्फ्रेंस वीज़ा हेतु आवेदन किया था और यह मुझे मिल भी गया (जो काफी महंगा था). वीज़ा आवेदन के साथ मेरे स्वीडिश प्रकाशक (स्टॉजकहोम में लियोपर्ड) की ओर से लिखित में एक आर्थिक गारंटी तथा कोलकाता के मेरे प्रकाशक (सेतु प्रकाशन) व कोलकाता पुस्त़क मेले की ओर से आमंत्रण भी नत्थी था. कोलकाता में मेरे आगमन के बाद मेरे प्रकाशक से कहा गया कि वह मेरे रहने की जगह और भारत में सार्वजनिक उपस्थिति की जगहों की सूचना प्रशासन को देता रहे. उसने वैसा ही किया.
किताब का लोकार्पण कोलकाता, हैदराबाद, लुधियाना और दिल्ली में विभिन्न  संगठनों ने अलग-अलग बैठकों में किया. मैंने जो कुछ कहा, वह छपा और/या नेट पर आया.
आप देख सकते हैं कि गृह राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में मेरे बारे में जो कुछ कहा और 20 मई 2012 को ज़़ी न्यूंज़ के मुताबिक गृह मंत्रालय की प्रवक्ता  इरा जोशी ने जनवरी/फरवरी 2012 के मेरे भारत दौरे के बारे में बताया, वह तथ्यात्मक रूप से गलत है. दूसरे शब्दों  में कहें तो जो है ही नहीं, उसे वे \\\’\\\’राजनीतिक वजहों\\\’\\\’ से कह रहे हैं.
तो आखिर इसकी राजनीतिक वजहें क्या हैं? इन्हें समझने के लिए कोलकाता से छपने वाले टेलीग्राफ का 18 मई का अंक पढ़ा जाना चाहिए जिसमें निम्न छपा है:
"Maoist spam in PC mailbox
NISHIT DHOLABHAI
New Delhi, May 17: When faxes don’t work, blitz the home minister’s email from abroad.
P. Chidambaram’s email ID has been bombarded with messages from the West, calling for the release of an activist and an alleged Maoist sympathiser, provoking curiosity about the foreign appeal for something so \\\’local\\\’."
ज़ाहिर है, भारत सरकार भारतीय मामलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रही जानकारी और दिलचस्पी से बहुत परेशान है.
पिछले साल 12 जून को मैंने और अरुंधति रॉय ने लंदन में भारतीय जनता के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की ज़रूरत पर बात की थी. हम दोनों ने भारत में खबरों को अजीबोगरीब तरीके से दबाए जाने पर बात रखी. भारत में जो बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं, वे हमारे पश्चिमी मीडिया में नहीं आ पाते. ऐसा नहीं कि यह भारत में किसी सरकारी सेंसरशिप के चलते है (जैसा द्वितीय विश्व  युद्ध के दौरान ब्रिटेन ने किया था). यह हमारे मीडिया के संपादकीय \\\’\\\’चौकीदारों\\\’\\\’ की सेंसरशिप के कारण है (और भारत में हमारे पत्रकारों की खुद पर लगाई सेंसरशिप के कारण भी).
इसमें कुछ भी नया नहीं है. हाल ही में स्वीडन में \\\’\\\’ओरिएंटल सोसायटी\\\’\\\’ के एनिवर्सरी अंक में मैंने लिखा था कि कैसे तटस्थ  स्वीडन के भीतर भारत से जुड़ी खबरें (यहां तक कि \\\’\\\’भारत छोड़ो आंदोलन\\\’\\\’, बंगाल का नरसंहारक अकाल और \\\’\\\’इंडियन नेशनल आर्मी\\\’\\\’ की खबरें भी) दबा दी गई थीं. ये आपके पैदा होने से पहले की बातें हैं, इसलिए मैंने आगामी अंक में जो लिखा है वो आपको पढ़ना चाहिए. (मैंने एडम वॉन ट्रॉट ज़ू सोल्ज़  के बारे में भी लिखा है जब वे मेरे पिता से मिलने जून 1944 में हमारे घर आए थे, तो दरवाज़ा मैंने खोला था. वह 20 जुलाई की योजना के बारे में मेरे पिता की मदद से स्वीडन में मौजूद अमेरिकी और सोवियत सुरक्षा प्रतिनिधियों को सूचित करना चाहते थे. ये सब आपके विदेश विभाग की फाइलों में दर्ज है, आप जान सकते हैं उनसे कि मित्र राष्ट्रोंव ने मदद करने से इनकार क्यों  कर दिया. आपने हालांकि ये नहीं सोचा होगा कि आखिर ब्रिटिश एमआइ6 ने एडम की \\\’\\\’सुपारी\\\’\\\’ क्यों ली थी- ठीक वैसे ही जैसे उसने सुभाष चंद्र बोस के साथ किया जब वे भारत से भाग गए थे.
सभी देशों में भारत की जनता के साथ बढ़ती एकजुटता के आंदोलन ने वहां के बारे में सूचनाओं के प्रवाह को तेज़ किया है. मैं सलाह दूंगा कि आप, या कम से कम दूतावास ही सही, नेट पर indiensolidaritet.org को फॉलो करे. इस पर भारत के बारे में खबरों की व्यापक और निष्पक्ष कवरेज होती है (और व्यापक व बहुपक्षीय नज़रिये की अंतरराष्ट्रीय ज़रूरत पर विभिन्नऔ सदस्यों के बीच ठोस मुक्त( बहस भी). इसे देख कर आपको पचास साल पहले वियतनाम के लिए एकजुटता आंदोलन की याद ताज़ा हो आएगी कि कैसे उसने पचास के दशक के अमेरिकापरस्त प्रभुत्वावादी मीडिया को बीस साल बाद ज्यादा मुक्त और उदार नीति वाले मीडिया में तब्दी्ल करने का काम किया. (याद करें कैसे बड़े अखबारों जैसे Dagens Nyheter में बदलाव आए- और ध्यान रहे कि जिस तरीके से यह सूचना तंत्र नीचे से काम करता है-  सरकारी शराब के ठेकों के बाहर बुलेटिन बेचने जैसे काम इत्यादि- इसने आखिरकार स्वीडन की विदेश नीति तक को बदल डाला)
मैं दिल्ली के दूतावास में किसी को नहीं जानता. मैं अब हालांकि उनके दादा की उम्र का भी तो हो चला हूं. लेकिन मुझे आशंका है कि वे स्वीडिश पत्रकारों के आग्रहों-दुराग्रहों को साझा करते हैं. हमारे देश के लिए यह बेहतर होगा यदि वे कहीं ज्यादा व्यापक और दीर्घकालिक नज़रिया अपनाते. भारत में सूचनाएं मौजूद हैं. यह देश तानाशाही दौर वाले चिली या सोवियत संघ जैसा नहीं है.
मेरे खिलाफ भारत सरकार की मौजूदा प्रतिक्रिया सामान्य लेकिन अतार्किक है- यह वैसी ही प्रतिक्रिया है जैसी अन्य देश करते हैं जब उनके खिलाफ सही सूचनाओं पर आधारित अंतरराष्ट्रीय राय पैदा होती है. हालांकि भारत सरकार के इस सनक भरे व्यावहार की एक और वजह है. मुझे उम्मीद है कि दूतावास इस पर निश्चित ही ध्यान दे रहा होगा. यदि आप तीस साल पहले मेरे लिखे को देखें तो पाएंगे कि उसके मुकाबले हालात अब बदल रहे हैं. उस वक्त् नक्सतलबाड़ी से प्रेरित राजीतिक आंदोलन, वाम, तेलंगाना के संघर्ष और अन्य  जनप्रिय उभार आपस में गहरे बंटे हुए थे और बाद में इन आंदोलनों में और बंटवारे हुए. (इसकी ठोस वजहें थीं, मैंने इस पर लिखा भी है) आज हालात जुदा हैं. मुख्य  माओवादी पार्टी और समूहों ने मिल कर अखिल भारतीय पार्टी सीपीआई(माओवादी) बना ली है. इतना ही नहीं, विभिन्नी विचारधारात्मक अंतर्विरोधों के बावजूद अन्य समूह भी आज भारतीय जनता के समक्ष खड़े बड़े सवालों पर सहमत हो रहे हैं. सामाजिक अंतर्विरोध भी ऐसे हैं कि छात्रों का एक बड़ा तबका और \\\’\\\’मध्यवर्ग\\\’\\\’ लोकतांत्रिक व सामाजिक बदलाव चाह रहा है.
एक ठोस उदाहरण लें. हैदराबाद में मैं 1980 के दौर के अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला. उस दौर में जब हम भूमिगत होकर आंध्र प्रदेश में सशस्त्र  दलों से मिलने गए थे, तो \\\’\\\’प्रतिबंधित इलाकों\\\’\\\’ में स्थित उनके घरों में रुके थे. अब वे प्रतिबंधित नहीं, कानूनी हैं. वे चुनाव में हिस्सा लेते हैं. इस तरह उनके और सीपीआई(माओवादी) के बीच काफी गहरे विचारधारात्म क और राजनीतिक मतभेद हैं. उनमें गर्म बहसें होती हैं, लेकिन वे दुश्मन नहीं हैं. जनरल सेक्रेटरी गणपति के साथ साक्षात्कार में आप देख सकते हैं कि उन्होंने कैसे इन सब चीज़ों पर बात की (ये बात, कि मैंने अपने भारतीय मित्रों को इस बारे में कुछ \\\’\\\’सुझाव\\\’\\\’ दिए, इतना मूर्खतापूर्ण है कि उस पर हंसी भी नहीं आएगी).
(यही तस्वीर आपको  सीपीआई के भी बड़े हिस्से में देखने को मिलेगी. यह अनायास नहीं है कि भारत पर मेरे काम और मेरी पुस्तक के बारे में सबसे ज्यादा यदि यूरोप के किसी अखबार ने लिखा है तो वो है "Neues Deutschland", आखिर क्यों? सोवियत संघ के आखिरी वर्षों में मैं उस अखबार से जुड़ा हुआ था. अब यूरोप की तस्वीर बदल चुकी है और फिलहाल जर्मनी के "Linke" के- जो कि "Neues Deutschland" के काफी करीब है- सीपीआई के साथ पार्टीगत रिश्ते हैं.)
भारत सरकार ने मुझे \\\’\\\’प्रतिबंधित\\\’\\\’ कर दिया है, यह बहुत अहमियत नहीं रखता. पहले भी मुझे कई सरकारों ने प्रतिबंधित किया है (याद करिए मॉस्को मुझे किस नाम से पुकारता था). मेरी फाइलों को देखिएगा तो पता चलेगा कि 1944 (मैंने वाईसीएल की कांग्रेस पर बोला था जिसके बाद मुझे प्रवेश नहीं करने दिया गया था) के बाद से अमेरिका ने बार-बार मुझे प्रतिबंधित किया है और बाद में खुद आधिकारिक स्तर पर न्योता भी दिया. अब मैं 85 का हो चुका हूं, लिहाज़ा ऐसा देखने के लिए मेरे पास उम्र बची नहीं, हालांकि यह बात कोई बहुत मायने नहीं रखती.
ज़रूरी बात यह है कि स्वींडन के राष्ट्रीय हित में आपको यह सुनिश्चित करना है कि दक्षिण एशिया के विदेश कार्यालयों में काम कर रहे आपके अफसर स्वीडिश मीडिया की मौजूदा तंग सोच को छोड़ कर एक व्यापक नज़रिया अपनाएं.
आपका
यॉन मिर्डल
20 मई 2012

Recent Posts

  • Featured

What Makes The Indian Women’s Cricket World Cup Win Epochal

For fans and followers of women’s cricket, November 2 – the day the ICC World Cup finals were held in…

2 hours ago
  • Featured

Dealing With Discrimination In India’s Pvt Unis

Caste-based reservation is back on India’s political landscape. Some national political parties are clamouring for quotas for students seeking entry…

4 hours ago
  • Featured

‘PM Modi Wants Youth Busy Making Reels, Not Asking Questions’

In an election rally in Bihar's Aurangabad on November 4, Congress leader Rahul Gandhi launched a blistering assault on Prime…

21 hours ago
  • Featured

How Warming Temperature & Humidity Expand Dengue’s Reach

Dengue is no longer confined to tropical climates and is expanding to other regions. Latest research shows that as global…

1 day ago
  • Featured

India’s Tryst With Strategic Experimentation

On Monday, Prime Minister Narendra Modi launched a Rs 1 lakh crore (US $1.13 billion) Research, Development and Innovation fund…

1 day ago
  • Featured

‘Umar Khalid Is Completely Innocent, Victim Of Grave Injustice’

In a bold Facebook post that has ignited nationwide debate, senior Congress leader and former Madhya Pradesh Chief Minister Digvijaya…

2 days ago

This website uses cookies.