अंग्रेज़ों के दौर के क़ानूनों का औचित्य क्या है

वैसे तो कानून की जरुरत एक आम आदमी को सबसे ज्यादा पड़ती है. समाज में आम आदमी को सबसे ज्यादा कमजोर भी माना जाता है और कहा जाता है कि कानून उसके लिए वह ताकत है जिससे वह अपने साथ समाज में होने वाले अपराध, अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता है. इन सब बातों के बीच एक कटु सच्चाई ये भी है कि आम आदमी को यही कानुन तब असहाय और बेबस कर देता है जब पुलिस कानून का दुरुपयोग करती है.

मै इसी तरह के एक कानून की बात कर रहा हूं जो पुलिसिया दुरुपयोग के भेंट चढ़ रहा है. ये कानून दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 की तहत बना हुआ कानून हैं. अगर हम इस एक्ट की बात करें तो सेवानिवृत जस्टिस होसबेट सुरेश के अनुसार पुलिस कभी भी किसी नागरिक को असमाजिक कार्यो या अपराध की आशंका से 24 घंटे के लिए हिरासत में रख सकती है. आमतौर पर होता ऐसे है कि अगर किसी नजदीकी पुलिस के एसएचओ को यह लगता है कि कोई भी नागरिक यदि आपराधिक गतिविधियों मे शामिल है या भविष्य में ऐसी गतिविधियां कर सकता है तो पुलिस 24 घंटे के लिए उसको हिरासत में ले सकती है.
इन 24 घंटे के दौरान आप के साथ कुछ भी हो सकता है. जैसे आप पुलिस के यातना के शिकार हो सकते है या आपके हाथ-पैर में फ्रेक्चर हो सकता है या आप को अपनी जान गवानी पड़ सकती है. लेकिन इसे कोर्ट में साबित करना मुश्किल है क्योंकि पुरा पुलिस महकमा इसे महज हादसा बताने की कोशिश करेंगा. मैं यहां पुलिस द्वारा इस कानून के उल्लंघन करने की ऐसी घटना उदाहरण देना चाहुंगा. ये घटना नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ की है.
छत्तीसगढ़ की रहने वाली सोनी सोरी पर आरोप था कि छत्तीसगढ़ की नक्सली घटना में लिप्त है. पुलिस ने 24 घंटे उसे हिरासत में रखने के बाद घायल अवस्था में छोड़ा और इस घटना को महज एक हादसा बताने की कोशिश की गई. सोनी सोरी के साथ की गई पुलिस की इस करतूत को उसके पिता और भांजे लिंगाराम कोडोपी ने छत्तीसगढ़ मीडिया के सामने रखा जिसके सफाई मे छत्तीसगढ़ पुलिस इसे महज बॉथरुम मे फिसलने जैसी घटना साबित करने कोशिश की.
सोनी ने दिल्ली के न्यायलय में अपील की, लेकिन उसे न्याय नही मिला. और वह लगातार पुलिस की यातनाओं का शिकार होती रही. फिलहाल सोनी सोरी के भांजा लिंगाराम खुद नक्सलवाद के आरोप में जेल मे बंद है.
नक्सली गतिविधियों को रोकने के लिए बहुत कठोर कानून सरकार ने बनाए है. कभी कभी इनमें बेकसूर भी फंस जाता है. ऐसे बहुत से कानून अमानवीय है. कश्मीर मे भी इस तरह के कानून का दुरुपयोग हो रहा है जिसके फांस में अक्सर बेगुनाह ही लोग आते है. कश्मीर की मानव अधिकार रिपोर्ट के अनुसार हर साल लापता लोगों को शुमार लोगों की लिस्ट में अक्सर ऐसे लोग होते है जिन्हें पुलिस या फौज पुछताछ के बहाने ही ले जाती है. बाद जिनका पता अक्सर नही चलता. कश्मीरी लापता लोगो के तलाश मे बनी ऐपीडीपी संस्था ने इसपर इल्जाम फौज और वहां के पुलिस पर लगाती है.
ऐसे कई कानून हैं जिनको कठघरे में खड़ा करने के लिए एक दो सवाल नहीं बल्कि सवालों के पहाड़ हैं. इस कठघरे में पुलिस को मुजरिम ठहराने के पुलिसिया बर्बरता के काफी सबूत है लेकिन मेरा उद्देश्य सेक्शन 167 की भयावहता को उजागर करना है.
यदि पुलिस के पास कोई सबूत न हो तो भी पुलिस आपको महज शक के आधार पर 24 घंटे तक पुलिस रिमांड मे रख सकती है. पुलिस को इसका अधिकार है 24 घंटे मे छोड़ने के बाद दोबारा आपको हिरासत मे ले सकती है. आन्ध्र प्रदेश की कवियत्री वर्षा राय को इनकी क्रान्तीकारी कविता और साहित्य के कारण 15 बार हिरासत में लेकर रिहा किया गया.
इसके अलावा अरुण फरेरा को 4 साल तक जेल मे बिताना पड़ा लेकिन जब वह रिहा हुए तो सेक्शन 167 के तहत तुरंत रिमांड मे ले लिया गया था. पुलिस के अन्याय पूर्ण व्यवहार के खिलाफ जब उनके वकील ने आवाज उठाई तो उनको भी सरेआम पीटा गया. वकील सुरेश लिंग का इस बारे मे कहना है कि  अगर शक के आधार पर आरोपित को बार बार रिमांड पर लिया जाए तो यह सरासर कानून का उल्लंघन है.
ऐसे कानून आम जनता को याद दिलाते है कि भारत कभी अग्रेजों का गुलाम था. आजादी के आंदोलन को दबाने के लिए कानून का सहारा लिया था और इसी कानून के सहारे उस वक्त के देश की जनता पर काफी जुल्म किया. अंग्रेज़ तो चले गये और देश भी आजाद हो गया लेकिन हमारी शासन व्यवस्था में और कानून में उनकी छाप रह गई जो सेक्शन167 में साफ नजर आती है.

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