समय का पहिया चले रे साथी, समय का पहिया चले

हर साल आरा में हमलोग जसम के प्रथम महासचिव क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय की याद में नुक्कड़ काव्य-गोष्ठी का आयोजन करते रहे हैं. इस बार यह आयोजन आरा से पंद्रह-बीस किमी दूर पवना बाजार पर आयोजित था. चलते वक्त मुझे जनकवि भोला जी मिल गए, मधुमेह के कारण वे बेहद कमजोर हो गए हैं, पर जब उन्हे मालूम हुआ कि वहां जाने के लिए साधन का इंतजाम है, तो वे भी तैयार हो गए. पिछले तीस साल से देख रहा हूं. भोला जी एक छोटी सी गुमटी में पान बेचते रहे हैं और कविताएं लिखते और सुनाते रहते हैं, कई पतली-पतली पुस्तिकाएं भी उन्होंने छपवाई, जिन्हें वे भोला का गोला कहते हैं.

शहर से जब हम निकले तो वह सरस्वती पूजा के माहौल में डूबा हुआ था. पूजा भी क्या है, भौंड़े किस्म के नाच गाने हैं और बिना किसी साधना के कूल्हे मटकाना है, भोजपुरी के बल्गर गीत हैं, ऐसे गीत कि रीतिकाल के कवि भी शर्म से पानी-पानी हो जाएं, उस पर तेज म्यूजिक है, एक दूसरे से टकराते हुए, मानो एक आवाज दूसरे का गला दबा देने को आतुर हो. लगभग 100-100 मीटर पर एक जैसी सरस्वती की मूर्तियां हैं, कहीं-कहीं अगल-बगल तो कहीं आमने-सामने. जैसे कोई प्रतिस्पद्र्धा है, कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता, न कहीं कोई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी है, न कोई कलाकार, न कोई भक्त, कंज्यूमर किशोर हैं सतही मौज-मस्ती, मनोरंजन और सनसनी की चाह में मटकते-भटकते. कहीं कोई भक्ति गीत है भी तो उसके तर्ज और संगीत से भक्ति का कोई तुक तक नहीं जुड़ता प्रतीत होता. ऐसा लगता है कि सरस्वती अब ज्ञान की देवी नहीं हैं, बल्कि सतही आनंद और मनोरंजन की देवी होके रह गई हैं. 28 जनवरी से ही पूरा शहर शोर में डूबा हुआ है. भोला जी बिगड़ते हैं, अपनी मां के लिए 1 दिन भी नहीं जागेंगे और मिट्टी की मूर्ति के लिए रात-रात भर जागे हुए हैं. कल एक रिक्शावाला भी बिगड़ रहा था कि जिनको पढ़ने-लिखने से कुछ नहीं लेना देना, वही जबरन चंदा वसूल कर मूर्तियां रखते हैं और मौज-मस्ती करते हैं, सब लंपट हैं.
साथी सुनील चैधरी के यहां जुटना था हमें. युवानीति से जुड़े रंगकर्मियों का इंतजार था. सारे रंगकर्मी हाईस्कूल और कालेज के छात्र हैं. किराये की जीप आती है और हम आरा शहर से पवना बाजार के लिए चल पड़ते हैं. शहर से बाहर निकलने के बाद शोर से थोड़ी राहत मिलती है. लेकिन कुछ ही देर बाद ड्राइवर ने होली का गीत बजा दिया, बाद में मेरी निगाह विंडस्क्रीन की ओर गई तो देखा कि ड्राइवर के बगल में उपर एक स्क्रीन है, जिसमें गानों का विजुअल भी चल रहा है, बेहद अश्लील और भद्दे हाव-भाव के साथ डांस का फिल्मांकन था, शब्द तो उससे भी अधिक अश्लील, द्विअर्थी भी नहीं, सीधे एकर्थी. स्त्री मानो सिर्फ और सिर्फ भोग की वस्तु हो. एक स्त्री की पूजा करने वाले किशोर-नौजवान भी इसी तरह के गीत बजा रहे हैं. जैसे किसी नशे में डूबो दिया गया हो सबको. बिहार सरकार की कृपा से हर जगह मिलती शराब की भी इस माहौल को बनाने में अपनी भूमिका है.
पवना पहुंचते ही एक कामरेड की दूकान पर हमें रसगुल्ला और नमकीन का नाश्ता कराया गया. एक अच्छी चाय भी मिली. उसके बाद कार्यक्रम शुरू हुआ. आसपास के सारे मजदूर-किसान, छोटे दूकानदार जमा हो गए. उनकी शक्ल और वेशभूषा ही सरकारों के विकास के दावों की पोल खोल रही थी. लेकिन वक्त का पहिया जिसे विपरीत दिशा में घुमाने की कोशिश हो रही है, उसे आगे वही बढ़ा सकते हैं, इस यकीन के साथ ही हम उनसे संबोधित थे. संचालक अरविंद अनुराग की खुद की जिंदगी भी उनसे अलग कहां है! बार-बार महानगरों से लौटे हैं, कहीं कोई ढंग का रोजगार नहीं मिला. निजी स्कूलों में पढ़ाया. पारचुन की छोटी दूकान खोली. कुछ दिन होम्योपैथी से लोगों का इलाज भी किया. इस जद्दोजहद के बीच साहित्य-विचार का अध्ययन और लेखन उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.
राजू रंजन के नेतृत्व में युवानीति के कलाकारों द्वारा गोरख पांडेय के गीत ‘समय का पहिया चले’ से कार्यक्रम की शुरुआत हुई. उसके बाद मुझे यह बताने के लिए बुलाया गया कि गोरख कौन हैं? मैंने कहा कि शायद मेरे बताने की जरूरत नहीं है कि गोरख कौन हैं, उनके गीत ही यह बता देने के लिए काफी हैं कि वे कौन हैं. मैं भोजपुरी के उनके कुछ गीतों का नाम लेता हूं और देखता हूं कि लोगों के चेहरे पर चमक आ जाती है. ‘कानून’ कविता के हवाले से उन्हें बताता हूं कि किस तरह उनके श्रम से फल को अलग किया जा रहा है. ‘डर’ कविता का जिक्र करते हुए कहता हूं कि अभी भी तमाम दमनकारी साधनों के बावजूद शासकवर्ग आपके गुस्से और नफरत से डरता है. फिर ‘सुतल रहली सपन एक देखली’ गीत सुनाते हुए बैरी पैसे के राज को मिटाने की जरूरत पर बोलता हूं. यह पैसे का ही तो राज है जिसने संस्कृति के क्षेत्र में भी जनता को उसकी निर्माणकारी भूमिका के बजाए महज विवेकहीन उपभोक्ता की स्थिति में धकेलने का काम किया है. गांव-गांव एक नया सांस्कृतिक जागरण आए और उस तकनीक को भी अपना माध्यम बनाए जिसके जरिए तमाम किस्म की अपसंस्कृति का प्रचार किया जा रहा है. जानता हूं यह बहुत मेहनत का काम है, जहां रोजी-रोटी जुटाना ही बेहद श्रमसाध्य होता जा रहा है, वहां संस्कृति की लड़ाई तो और भी कठिन है. लेकिन जनता की जिंदगी का जो संघर्ष है, उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी तो जरूरी है. वे कब तक अपनी सृजनात्मक उर्जा भूलकर उपभोक्ता की तरह पूंजी की लंपट संस्कृति का जहर निगलते रहेंगे. गोरख पांडेय के गीतों को वे भूले नहीं है, यह एक बड़ी उम्मीद है, इस उम्मीद के साथ एक नई शुरुआत की संभावना जगती है.
संचालक अरविंद अनुराग समेत सुनील कुमार, सुधीर जी, मंगल प्रताप, रमाकांत जी, मिथिलेश मिश्रा जैसे स्थानीय कवियों की कविताओं को सुनते हुए भी उम्मीद बंधती है. वरिष्ठ कवि रमाकांत जी अपनी कविता में हल जोतते किसान की कठिन जिंदगी के प्रति संवेदित हैं, तो सुधीर एक शहीद की बेवा की चिंता करते हैं. धर्म के नाम हो रहे पाखंड पर सुधीर और मिथिलेश मिश्रा दोनों प्रहार करते हैं. मिथिलेश भी निजी स्कूलों में पढ़ाते रहे हैं. वे कहते हैं- जय सरस्वती मइया, जय लक्ष्मी मइया, जय दुर्गा मइया/ मूर्ति रखवइया, चंदा कटवइया, लफुअन के मुर्गा खिवइया, रंडी नचवइया… अरविंद अनुराग राजनीति में उभरे नए सामंती-अपराधी किस्म के तत्वों पर व्यंग्य करते हैं.
मंगल प्रताप ‘स्वाधीनता’ कविता सुनाते हैं और सुनाने से अपनी तकलीफ शेयर करते हैं कि आज सब लोग अंदर से गुलाम हैं, अंदर से लोग कुछ हैं और बाहर से कुछ, समझ में नहीं आता कि आदमी को हो क्या गया है. दरअसल इस प्रश्नाकुलता और इस तरह की बेचैनी से कारणों की तलाश शुरू होती है. स्थानीय कवि सुनील एक गीत सुनाते हैं. जसम के राष्ट्रीय पार्षद कवि-आलोचक सुमन कुमार सिंह भी गीत के मूड में हैं और मौका देखकर भोजपुरी-हिंदी के चार गीत सुना देते हैं. मेरी जान बख्सें हुजूर, लिखूं हुक्काम के खत और केहू जाने न जाने मरम रात के आदि गीतों में आज किसान न ठीक से किसान रह गया है और न ही मजदूर, हुक्काम अपने सुशासन के प्रचार में यात्राएं कर रहे हैं, पर किसान नहीं चाहता कि वे गांव आएं, उसे शासकवर्ग पर कोई भरोसा नहीं रह गया है. राजदेव करथ हमेशा की तरह संकल्प और जोश से भरे हुए कहते हैं- एक कदम न रूकेंगे/ तेरे जुल्मो सितम को मिटाएंगे. सुनील चैधरी गोरख का व्यंग्य गीत ‘समाजवाद का गीत’ सुनाते हुए उसकी व्याख्या भी करते जाते हैं कि कैसे सिर्फ नाम लेने से समाजवाद नहीं आ जाता, बल्कि उसकी आड़ में लूटतंत्र कायम रहता है. जनकवि भोला जब अपना गीत सुनाने को खड़े हुए तो मानो गरीब की पीड़ा साकार हो उठी. उन्होंने सुनाया-
कवन हउवे देवी-देवता, कौन ह मलिकवा
बतावे केहु हो, आज पूछता गरीबवा
बढ़वा में डूबनी, सुखड़वा में सुखइनी
जड़वा के रतिया कलप के हम बितइनी
करी केकरा पर भरोसा, पूछी हम तरीकवा
बतावे केहू हो, आज पूछता गरीबवा
जाति धरम के हम कुछहूं न जननी
साथी करम के करनवा बतवनी
ना रोजी, ना रोटी, न रहे के मकनवा
बतावे केहू हो आज पूछता गरीबवा
माटी, पत्थर, धातु और कागज पर देखनी
दिहनी बहुते कुछुवो न पवनी
इ लोरवा, इ लहूवा से बूझल पियसवा
बतावे केहू हो आज पूछता गरीबवा.
(कौन है देवी-देवता और कौन है मालिक
कोई बताए, आज यह गरीब पूछ रहा है.
बाढ़ में डूबे, सुखाड़ में सुखाए
जाड़ों की रातें कलप के बिताए
करें किस पर भरोसा, पूछें हम तरीका
कोई बताए, आज यह गरीब पूछ रहा है.
जाति-धरम को हमने कुछ नहीं जाना
साथी कर्म के कारणों को बताए
न रोजी है, न रोटी और न रहने का मकान
कोई बताए, आज यह गरीब पूछ रहा है.
मिट्टी, पत्थर, धातु और कागज पर देखे
उसे दिए बहुत, पर कुछ भी नहीं पाए
आंसू और खून से अपनी प्यास बुझाए
कोई बताए, आज यह गरीब पूछ रहा है.)
अध्यक्षीय वक्तव्य में जितेंद्र कुमार ने गरीबों के प्रति शासकवर्ग की उपेक्षा के तथ्यों से जनता को अवगत कराया. उन्होंने बताया कि कारपोरेट कंपनियां और उनके इशारे पर चलने वाली सरकारें इस देश में किसान-मजदूरों को तबाह करने में लगी हुई हैं. प्रधानमंत्री ने खेतिहर मजदूरों के लिए तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मनरेगा में देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो सरकार पर 1072 करोड़ का भार आ जाएगा, जबकि कारपोरेट को 4500 करोड़ छूट देने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं हुई. उन्होंने नीतीश बाबू के सुशासन में फैलते भ्रष्टाचार की भी चर्चा की. स्कूलों में फर्जी नामांकनों के जरिए जनता के खजाने की लूट का जिक्र किया और सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री आखिर किनके प्रतिनिधि हैं. जितेंद्र कुमार ने कारपारेट की मदद से जयपुर लिटेररी फेस्टिवल किए जाने और उसमें अंग्रेजी को महत्व दिए जाने की वजहों से भी अवगत कराया और कहा कि किसान का बेटा राहुल गांधी से भी अच्छी अंग्रेजी या सोनिया गांधी से भी अच्छी इटैलियन बोले, यह कौन नहीं चाहेगा, लेकिन अपनी भाषाओं की कीमत पर अगर वह ऐसा करेगा, तो वह अपने ही समाज और लोगों के साथ नहीं रह पाएगा. उन्होंने कहा कि सरकारों को बेरोजगारी दूर करने की कोई चिंता नहीं है, बल्कि 30-40 साल पहले जो पद सृजित किए गए थे, उन्हें भी लगातार खत्म किया जा रहा है. शिक्षकों की संख्या लगातार कम होती जा रही है, ऐसे में मजदूर-किसानों के बेटे कहां से अच्छी शिक्षा पा सकेंगे. खुद सरकारी आंकड़े के अनुसार देश की 72 प्रतिशत जनता 20 रुपये से कम दैनिक आय पर जीवन गुजारने को विवश है और सरकार आधार प्रमाण पत्र बनाने में लगी हुई है और उसमें भी कमाई के लिए मार हो रही है. उन्होंने यह बताया कि आधार प्रमाण बनाने के लिए योजना आयोग और चिंदबरम के बीच क्यों टकराव हुआ और किस तरह दोनों के बीच बंदरबांट हो गई कि आधा-आधा कार्ड दोनों बनाएंगे. उन्होंने सरकारों के लूट और झूठ के तथ्यों का खुलासा करते हुए कहा कि जो लोग समग्र विकास और सच्चा समाजवाद चाहते हैं उनके संघर्षों में गोरख के गीत आज भी बेहद मददगार हैं. गोरख पांडेय के गीतों में गरीबों और भूमिहीन मेहनतकश किसानों के सपनों को अभिव्यक्ति मिलती है, उनकी लड़ाइयों के लिए वे एक मजबूत औजार की तरह हैं.
इस मौके पर युवानीति के रतन देवा, चैतन्य कुमार, कुमद पटेल, सूर्याप्रकाश, अमित मेहता, राजेश कुमार, साहेब, मु. फिरोज खान एवं राजू रंजन ने ग्रामीण दर्शकों की भारी मौजूदगी के बीच अपने नवीनतम नाटक ‘नौकर’ की प्रस्तुति की, जिसका दर्शकों ने काफी लुफ्त लिया. हास्य-व्यंग्य से भरा यह नाटक गरीबों को शिक्षित बनाने का संदेश देता लगा. भ्रष्टाचार, मुफ्तखोरी, महंगाई, बेरोजगारी की स्थिति को लेकर इसमें कटाक्ष भी किया गया है. नाटक में जब नौकर यह कहता है कि बताइए, क्या गरीबी और महंगाई के लिए हम दोषी हैं, तो लोग वाह, वाह कर उठे, क्योंकि यह तो उन्हीं के मन की बात थी. नौकर ने जब मुखिया के आदमी से इंदिरा आवास योजना के तहत घर के लिए आग्रह किया, तो उसने कहा कि वह गरीबों के लिए नहीं है, बल्कि मुखिया के आदमियों के लिए है और उनके लिए है जो पहले से ही सुविधा-संपन्न हैं, इस कटाक्ष से भी दर्शक बहुत खुश हुए. रमता जी के गीत ‘हमनी देशवा के नया रचवइया हईं जा/ हमनी साथी हईं आपस में भइया हईं जा’ के युवानीति के कलाकारों द्वारा गायन से कार्यक्रम का समापन हुआ.
उसके बाद स्थानीय आयोजको ने स्वादिष्ट लिट्टियों का भोज कराया. लौटते वक्त अंधेरा हो चुका था. इस बार ड्राइवर का वीडियो बंद था. युवानीति के कलाकार गाए जा रहे थे- महंगइया ए भइया बढ़ल जाता, अइसन गांव बना दे जहवां अत्याचार ना रहे/ जहां सपनो ंमें जालिम जमींदार ना रहे, साथिया रात सपने में आके तून मुझको बहुत है सताया. कोई जगजीत सिंह की गायी हुई गजल को गा रहा है तो उसके बाद कोई मुक्तिबोध को गा रहा है- ऐ मेरे आदर्शवादी मन, ऐ मेरे सिद्धांतवादी मन, अब तक क्या किया, जीवन क्या जीया…. हमारी समवेत आवाजें रात के सन्नाटे को चीर रही हैं. शहर पहुंचते ही फिर से शोरगुल से सामना होता है. भोला जी को उनके घर पहुंचाता हूं. जीवन भर वे किराये के घर में रहे हैं. बताते हैं कि छोटा बेटा बैनर वगैरह लिखने का काम करने लगा है, जिससे घर का किराया दे पाना संभव हो पा रहा है. दर्जनों मूर्तियों और बल्गर गानों और तेज म्यूजिक से होते हुए वापस कमरे पर लौटता हूं.
दरभंगा से समकालीन चुनौती के संपादक सुरेंद्र प्रसाद सुमन का फोन आता है, उत्साह और बढ़ जाता है. दरभंगा, मधुबनी, बेगूसराय और समस्तीपुर में भी आज गोरख की याद में आयोजन हुए हैं. दरभंगा में लोहिया-चरण सिंह कालेज में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता पृथ्वीचद्र यादव और रामअवतार यादव ने की और मुख्य वक्तव्य खुद सुरेद्र प्रसाद सुमन ने दिया. नवल किशोर सिंह, विनोद विनीत, डॉ गजेंद्र प्रसाद यादव, प्रो. अवधेश कुमार, उमाशंकर यादव और आइसा नेता संतोष कुमार ने भी अपने विचार रखे.
मधुबनी जिले के चकदह में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. चंद्रमोहन झा ने की तथा संचालन कल्याण भारती ने किया. गोरख पांडेय के साथ जेएनयू में रह चुके प्रो. मुनेश्वर यादव ने उनसे जुड़ी यादों को साझा किया. यहां जनसंस्कृति के प्रति गोरख की अवधारणा पर विचार-विमर्श हुआ. प्रभात खबर के ब्यूरो चीफ अमिताभ झा ने भी अपने विचार व्यक्त किए. नवगठित टीम के संयोजक अशोक कुमार पासवान के नेतृत्व में कलाकारों ने गोरख पांडेय, अदम गोंडवी, सफदर हाशमी के जनगीतों का गायन किया. धन्यवाद ज्ञापन का. जटाधर झा ने किया.
समस्तीपुर में गोरख पांडेय स्मृति समारोह में वरिष्ठ कवि और आलोचक डा. सुरेद्र प्रसाद, रामचंद्र राय आरसी, वंदना सिन्हा, इनौस नेता सुरेद्र प्रसाद सिंह, आइसा नेता मिथिलेश कुमार, खेमस नेता उमेश कुमार और उपेंद्र राय तथा माले के जिला सचिव जितेंद्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए. गीतों और नाटकों की प्रस्तुति भी हुई.
बेगूसराय में जसम की नाट्य संस्था ‘रंगनायक’ ने नाटक ‘छियो राम’ की प्रस्तुति की और गोरख की याद में कवि गोष्ठी आयोजित हुई, जिसकी अध्यक्षता मैथिली कथाकार प्रदीप बिहारी ने की. संचालन दीपक सिन्हा ने किया. इस मौके पर मनोज कुमार, विजय कृष्ण, दीनाथ सौमित्र, कुंवर कन्हैया, अभिजीत, प्रदीप बिहारी ने अपनी कविताओं का पाठ किया. धन्यवाद ज्ञापन अरविंद कुमार सिन्हा ने किया.

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