इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के लेखकों और कवियों ने साहित्य अकादमी से मिले पुरस्कार (और एक मामले में पद्मश्री) लौटा कर इतिहास बनाया है.
यह इसलिए और ज्यादा अहम है क्योंकि पुरस्कार लौटाने वाले लेखक किसी एक पंथ या विचारधारा के वाहक नहीं हैं, वे किसी एक भाषा में नहीं लिखते और किसी जाति अथवा धर्म विशेष से नहीं आते. इनका खानपान भी एक जैसा नहीं है. कोई सांभरप्रेमी है, कोई गोबरपट्टी का वासी है तो कोई द्रविड़ है.
ये सभी अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं. इनकी संवेदनाएं भिन्न हैं और इनकी आर्थिक पृष्ठभूमि भी भिन्न है. बावजूद इसके, ये सभी एक सूत्र से परस्पर बंधे हुए हैं. यह सूत्र वो संदेश है जो ये लेखक सामूहिक रूप से संप्रेषित करना चाहते हैं, ”मोदीजी, हम आपसे अहमत हैं, हम आपकी नाक के नीचे आपकी विचारधारा वाले लोगों द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर किए जा रहे हमलों से आहत हैं.”
कैसे सुलगी चिंगारी
इस ऐतिहासिक अध्याय की शुरुआत कन्नड़ के तर्कवादी लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या से हुई थी.
इस घटना के सिलसिले में हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक उदय प्रकाश के साथ पत्रकार और प्रगतिशील कवि अभिषेक श्रीवास्तव की बातचीत हो रही थी. कलबुर्गी और उससे पहले नरेंद्र दाभोलकर व गोविंद पानसारे की सिलसिलेवार हत्या पर दोनों एक-दूसरे से अपनी चिंताएं साझा कर रहे थे. नफ़रत और गुंडागर्दी की इन घटनाओं के खिलाफ़ दोनों एक भीषण प्रतिरोध खड़ा करने पर विचार कर रहे थे.
उदय प्रकाश इस बात से गहरे आहत थे कि साहित्य अकादमी ने कलबुर्गी की हत्या पर शोक में एक शब्द तक नहीं कहा. उनके लिए एक शोक सभा तक नहीं रखी गई. प्रकाश कहते हैं, ”आखिर अकादमी किसी ऐसे शख्स को पूरी तरह कैसे अलग-थलग छोड़ सकती है जिसे उसने कभी अपने सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाज़ा था? यह तो बेहद दर्दनाक और हताशाजनक है.”
फिर उन्होंने विरोध का आगाज़ करते हुए पुरस्कार लौटाने का फैसला लिया और अगले ही दिन इसकी घोषणा भी कर दी. इस घोषणा के बाद दिए अपने पहले साक्षात्कार में उदय ने कैच को (”नो वन हु स्पीक्स अप इज़ सेफ टुडे”, 6 सितंबर 2015) इसके कारणों के बारे में बताया था और यह भी कहा था कि दूसरे लेखकों को भी यही तरीका अपनाना चाहिए.
विरोध का विरोध
अब तक कई अन्य लेखक और कवि अपने पुरस्कार लौटा चुके हैं. बीते 20 अक्टूबर को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित लेखकों व कवियों की एक प्रतिरोध सभा ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले की कठोर निंदा की.
फिर 23 अक्टूबर को कई प्रतिष्ठित लेखकों, कवियों, पत्रकारों और फिल्मकारों की अगुवाई में एक मौन जुलूस साहित्य अकादमी तक निकाला गया और उसे एक ज्ञापन सौंपा गया.
इनका स्वागत करने के लिए वहां पहले से ही मुट्ठीभर दक्षिणपंथी लेखक, प्रकाशक और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता जमा थे जो ”पुरस्कार वापसी तथा राजनीतिक एजेंडा वाले कुछ लेखकों द्वारा अकादमी के अपमान” का विरोध कर रहे थे.
साहित्य अकादमी के परिसर के भीतर जिस वक्त ये दोनों प्रदर्शन जारी थे, मौजूदा हालात पर चर्चा करने के लिए अकादमी की एक उच्चस्तरीय बैठक भी चल रही थी.
बैठक के बाद अकादमी ने एक संकल्प पारित किया जिसमें कहा गया है: ”जिन लेखकों ने पुरस्कार लौटाए हैं या खुद को अकादमी से असम्बद्ध कर लिया है, हम उनसे उनके निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करते हैं.”
और सत्ता हिल गई
जिस देश में क्षेत्रीय भाषाओं के लेखक और कवि इन पुरस्कारों से मिली राशि के सहारे थोड़े दिन भी गुज़र नहीं कर पाते, वहां ”ब्याज समेत पैसे लौटाओ” जैसी प्रतिक्रियाओं का आनाबेहद शर्मनाक हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी अनुषंगी संस्थाओं के सदस्यों और नेताओं की ओर से जिस किस्म के भड़काने वाले बयान इस मसले पर आए हैं, उसने यह साबित कर दिया है कि लेखक सरकार का ध्यान इस ओर खींचने के प्रयास में असरदार रहे हैं.
और हां, जेटलीजी, जब आप कहते हैं कि यह प्रतिरोध नकली है, तो समझिए कि आप गलत लीक पर हैं. लेखक दरअसल इससे कम और कर भी क्या सकता है. सत्ता प्रतिष्ठान के संरक्षण में जिस किस्म की बर्बरताएं की जा रही हैं, हर रोज़ जिस तरह एक न एक घटना को अंजाम दिया जा रहा है और देश का माहौल बिगाड़ा जा रहा है, यहएक अदद विरोध के लिए पर्याप्त कारण मुहैया कराता है.
अब आगे क्या?
लेखकों व कवियों के सामने फिलहाल जो सबसे अहम सवाल है, वो है कि अब आगे क्या?
यह लड़ाई सभी के लिए बराबर सम्मान बरतने वाले और बहुलता, विविधता व लोकतंत्र के मूल्यों में आस्था रखने वाले इस देश के नागरिकों तथा कट्टरपंथी गुंडों के गिरोह व उन्हें संरक्षण देने वाले सत्ता प्रतिष्ठान के बीच है.
इस प्रदर्शन ने स्पष्ट तौर पर दिखा दिया है कि लेखक बिरादरी इनसे कतई उन्नीस नहीं है, लेकिन अभी लेखकों के लिए ज्यादा अहम यह है कि वे व्यापक जनता के बीच अपनी आवाज़ को कैसे बुलंद करें. ऐसा महज पुरस्कार लौटाने से नहीं होने वाला है. यह तो फेसबुक पर ‘लाइक’ करने जैसी एक हरकत है जिससे कुछ ठोस हासिल नहीं होता.
एकाध छिटपुट उदाहरणों को छोड़ दें, तो बीते कुछ दशकों के दौरान साहित्य में कोई भी मज़बूत राजनीतिक आंदोलन देखने में नहीं आया है. कवि और लेखकों को सड़कों पर उतरे हुए और जनता का नेतृत्व किए हुए बरसों हो गए.
मुझे याद नहीं पड़ता कि पिछली बार कब इस देश के लेखकों ने किसानों की खुदकशी, दलितों के उत्पीड़न, सांप्रदायिक हिंसा और लोकतांत्रिक मूल्यों व नागरिक स्वतंत्रता पर हमलों के खिलाफ कोई आंदोलन किया था. वे बेशक ऐसे कई विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा रहे हैं, लेकिन नेतृत्वकारी भूमिका उनके हाथों में कभी नहीं रही. न ही पिछले कुछ वर्षों में कोई ऐसा महान साहित्य ही रचा गया है जिसने किसी सामाजिक सरोकार को मदद की हो.
पिछलग्गू न बनें, नेतृत्व करें
एक लेखक आखिर है कौन? वह शख्स, जो समाज के बेहतर और बदतर तत्वों की शिनाख्त करता है और उसे स्वर देता है.
एक कवि होने का मतलब क्या है? वह शख्स, जो ऐसे अहसास, भावनाओं और अभिव्यक्तियों को इस तरह ज़ाहिर कर सके कि जिसकी अनुगूंज वृहत्तर मानवता में हो.
मेरे प्रिय लेखक, आप ही हमारी आवाज़ हैं, हमारी कलम भी, हमारा काग़ज़ और हमारी अभिव्यक्ति भी. वक्त आ गया है कि आप आगे बढ़कर चीज़ों को अपने हाथ में लें.
अब आपको जनता के बीच निकलना होगा और उसे संबोधित करना ही होगा, फिर चाहे वह कहीं भी हो- स्कूलों और विश्वविद्यालयों में, सार्वजनिक स्थलों पर, बाज़ार के बीच, नुक्कड़ की चाय की दुकान पर, राजनीतिक हलकों में, समाज के विभिन्न तबकों के बीच और अलग-अलग सांस्कृतिक कोनों में.
और बेशक उन मोर्चों पर भी जहां जनता अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है- दिल्ली की झुग्गियों से लेकर कुडनकुलम तक और जैतापुर से लेकर उन सुदूर गांवों तक, जहां ज़मीन की मुसलसल लूट जारी है.
आपको उन ग्रामीण इलाकों में जाना होगा जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसाधनों को लूट रही हैं: उन राजधानियों व महानगरों में जाइए, जहां कॉरपोरेट ताकतों ने कानूनों और नीतियों को अपना बंधक बना रखा है और करोड़ों लोगों की आजीविका से खिलवाड़ कर रही हैं; कश्मीर और उत्तर-पूर्व को मत भूलिएगा जहां जम्हूरियत संगीन की नोक पर है. इस देश के लोगों को आपकी ज़रूरत है.
सबसे कमज़ोर कड़ी
इन लोगों के संघर्षों को महज़ अपनी कहानियों और कविताओं में जगह देने से बात नहीं बनने वाली, न ही आपका पुरस्कार लौटाना जनता की अभिव्यक्ति की आज़ादी को बहाल कर पाएगा. अगर आप ऐसा वाकई चाहते हैं, तो आपको इसे जीवन-मरण का सवाल बनाना पड़ेगा. आपको नवजागरण का स्वर बनना पड़ेगा.
ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि सरकार अब इस सिलसिले की सबसे कमज़ोर कडि़यों को निशाना बनाने की कोशिश में जुट गई है. उर्दू के शायर मुनव्वर राणा, जिन्होंने टीवी पर एक बहस के दौरान नाटकीय ढंग से अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था, कह रहे हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया था और अगले कुछ दिनों में उन्हें मोदी से मिलने के लिए बुलाया गया है.
राणा एक ऐसे लोकप्रिय शायर हैं जिन्होंने सियासी मौकापरस्ती की फसल काटने में अकसर कोई चूक नहीं की है. उनके जैसी कमज़ोर कड़ी का इस्तेमाल कर के सरकार लेखकों की सामूहिक कार्रवाई को ध्वस्त कर सकती है.
ऐसा न होने पाए, इसका इकलौता तरीका यही है कि जनता का समर्थन हासिल किया जाए. लेखक और कवि आज यदि जनता के बीच नहीं गया, तो टीवी की बहसें और उनमें नुमाया लिजलिजे चेहरे एजेंडे पर कब्ज़ा जमा लेंगे.
जनता का समर्थन हासिल करने, अपना सिर ऊंचा उठाए रखने, इस लड़ाई को आगे ले जाने और पुरस्कार वापसी की कार्रवाई को सार्थकता प्रदान करने के लिए हरकत में आने का सही वक्त यही है. मेरे लेखकों और कवियों, बात बस इतनी सी है कि अभी नहीं तो कभी नहीं. किसका इंतज़ार है और कब तक? जनता को तुम्हारी ज़रूरत है!
(साभार: कैच न्यूज़, अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव)
(मूल स्टोरी का लिंक:http://www.catchnews.com/pov/returning-awards-symbolic-writers-must-take-lead-gain-mass-support-1445614209.html)
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