बाबा नागार्जुन, लिटरेचर लाइव में जाओगे क्या…?

ये लीजिए… एक और पेशकश. शहर में दूसरी बार. शामियाना लाइव, सैलिब्रिटी लाइव, राइटर्स लाइव, पोएट्स लाइव, दि माइंडब्लोइंग परफ़ोरमेंसेज लाइव… एवरीथिंग गौना लाइव एंड वंडरफुल. एन यू नो वॉट. दिस ऑल फॉर लिट्रेचर. थैंक्यु टाटा… गुड जॉब.
साहित्य का मेला, प्रायोजक टाटा समूह और एस्सार जैसे भामाशाह. कनाडा और यूरोप की प्रस्तुतियां. शशि थरूर और अंग्रेज़ी के टेढ़े-मेढ़े नामों वाले साहित्यकार, लेखक, कवि. कुछ अपार्चुनिस्ट बलॉगर्स, रीडर्स क्लब वाले, पेज थ्री और कॉफी टेबल क्लास के चेहरे… ब्लाह…ब्लाह… सब के सब एकसाथ. आयोजन का नाम टाटा लिटरेचर लाइव. मुंबई में तीन से छह नवंबर के दौरान आयोजित हुआ.
ई-मेल से भेजा गया न्यौता पढ़ा तो याद आ गया पिछले बरसों का जयपुर का लिट्रेचर फेस्ट, जहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के टुकड़ों पर कुछ मौकापरस्त और छपास रोग से ग्रस्त साहित्यकार पहुंचे थे. प्रायोजकों में शेल कंपनी भी थी जिसपर नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या करवाने का आरोप है. लेखक की हत्या के खून से रंगे पैसों से जयपुर में ऐसा आयोजन करवाने के लिए सहयोग करने में शेल अकेली कंपनी नहीं थी, इनकी एक पूरी सूची है.
जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल का भी बहिष्कार करने के बजाय कुकुरमुत्ते साहित्यकारों की एक खेप इस आयोजन में जा पहुंची थी. हैरिटेज लुकिंग फर्नीचर और कालबेलिया डार्क ब्यूटीज़ के नाच के बीच अपनी-अपनी कथा-कथोपदेश बघारने. तब कुछ मित्रों के साथ इस आयोजन के खिलाफ अपील भी की थी पर जाने वाले गए. सुविधा और सुस्वाद पेज-थ्री के लिए.
टाटा के इस लिटरेचर फेस्ट के बारे में ऐसी तमाम बातें सोचते-सोचते न जाने कब झपकी आ गई. सपने में मिले निराला, मजाज़, नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल, पाश, रेणु, सर्वेश्वर दयाल और त्रिलोचन. सब के सब अपनी अपनी कविताओं का पुलिंदा लिए खड़े थे. ज़मीनी सच और संघर्ष के अनुभवों से कौंधकर बाहर आती कविताएं अपने-अपने दौर के समाज और राजनीति का सच बता रही थीं, बाज़ार की हांडियों की कलई उतार रही थीं. इनके पास से गुज़रते गुज़रते पहुंचा बनारस के घाट पर, पटना विश्वविद्यालय की भीत के पास, गोरखपुर और आगरा होते हुए इंदौर, जोधपुर… कई शहरों में किताब की दुकानों और साहित्य पढ़नेवालों से मिलता आगे बढ़ता रहा. इस दौरान दिखी वैष्णवजन की फिसलन, पीली आंधी, काशी का अस्सी, राग दरबारी, मैला आंचल, कितने पाकिस्तान, एक चिथड़ा सुख, रंगभूमि…. और आगे बढ़ा तो देखा, आरा बस स्टैंड के पास खड़े हैं बाबा नागार्जुन, कंधे पर एक झोला टांगे. किसी रैली में जाने के लिए अपनी बस का इंतज़ार करते हुए.
मैंने अनायास ही पूछ लिया- बाबा, टाटा का लिटरेचर फैस्टिवल है, आप…. नाराज़गी और मेरी बेवकूफी पर हंसते हुए बाबा अपनी बस पर बैठे और चले गए. मैं अपराधबोध में जाग गया. देखा, लैटटॉप पर अभी भी टाटा फैस्ट का मेल खुला था.
सच में, कितने खोखले हैं ये आयोजन. कितने खुराफाती और साजिश की पैदाइश जैसे. भारत की जनसंख्या के कितने प्रतिशत को संबोधित करते हैं ये. किनके और कैसे साहित्य की दुकान लगाते हैं. किनकी तारीफों में शामियाने सजाते हैं. किनके गुणगान गाते हैं. सेमिनार और टॉक में किन्हें बुलाते हैं. क्या ये आयोजक, ये साहित्यकार भारत को जानते हैं या फिर इंडिया की पत्थरवाली आंख से ही सबकुछ देख-बता रहे हैं. किनके सपनों की दुनिया है इनकी कविताओं, कहानियों में. संघर्ष और राजनीति के क्या बिंब हैं इनके पास, कितने पुख्ता और खरे हैं ये अपने अनुभवों और विचारों में, समझ में, विचारधारा में. इनको कौन पढ़ता है और कौन इन्हें बेस्ट सेलर बनाता है.
सवाल यह भी कौंधता है कि क्या निराला इस तरह के आयोजनों की कभी अध्यक्षता करते. क्या नागार्जुन इनके आतिथ्य को स्वीकारते, क्या मजाज़ के बारे में इन लोगों को मालूम है. जयशंकर प्रसाद और केदारनाथ की कितनी कविताएं पढ़ी हैं इन्होंने. बेशक विश्व साहित्य की सुप्रबंधित दुकानों पर इनकी किताबें खूब सजाकर रखी गई हैं पर क्या एक भी कहानी या कृति हमें हमारे देश के, समाज के बहुमत के बारे में बताती नज़र आती है. क्या कहीं मिलती है सफदर की भाप और राधव की छाप.
बहुमत को छोड़िए, जिस वर्ग की गिरफ्त में जकड़ा है ये साहित्य का नया काल्पनिक संसार, वो साहित्य को प्रोफाइल मेकिंग से ज़्यादा कुछ समझता है क्या.
तो फिर किसका साहित्य सम्मेलन है ये. कैसे इसे देश के साहित्यकारों का समागम मानें. इस तरह के आयोजनों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के साहित्य जगत का प्रतिनिधित्वकर्ता तय करने का अधिकार कैसे दे दें भला. कैसे इस कॉर्पोरेट रिस्पॉन्सिबिलिटी की कालिख को अपनी पसंदीदा कविताएं के पन्नों पर पुत जाने दें.
इन आयोजनों को समझिए, और इनका केवल बहिष्कार मत कीजिए, इनपर सवाल भी उठाइए. वरना आपके नाम पर ये कचरे का व्यापार करेंगे और कचरा बेस्टसेलर बनाने की तैयारियों के बीच साहित्यकार होने का प्रमाण पत्र बांटते रहेंगे ये. आइए, इन्हें खारिज करके उन कविताओं और कवियों के बीच चलें, जो कलम से लिख रहे हैं हमारा इतिहास, वर्तमान और संघर्ष के लिए साहित्य का लोहा तैयार कर रहे हैं.

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