पाकिस्तान भारत से सीखता हैः फ़हमीदा रियाज़

मशहूर पाकिस्तानी शायरा और एक्टिविस्ट फ़हमीदा रियाज़ पिछले माह 8 से 10 नवम्बर तक इलाहाबाद में थीं. इस दौरान उन्होंने अपनी लेखन प्रक्रिया, समाज में लेखकों की जिम्मेदारी व महिला स्वतन्त्रता पर अपने तीन व्याख्यान दिये. हर कार्यक्रम में उनके परिचय के साथ ‘नारीवादी’ भी जोड़ा जाता रहा, जबकि अपने व्याख्यान में वे मार्क्सवादी विचारों की ओर इशारे करती रहीं, इसलिए जब हमारी बातचीत की शुरूआत हुई तो मैंने उनसे सबसे पहला सवाल यही पूछा कि ‘आप नारीवादी हैं या मार्क्सवादी?’ इस सवाल ने उनके मार्क्सवादी वजूद को मानों थोड़ा झकझोर सा दिया और इसके बाद उन्होंने मेरे व दो अन्य साक्षात्कारकर्ताओं के बाकी सवालों को पीछे करते हुए न सिर्फ मार्क्सवाद पर अपने विचार रखे, बल्कि पाकिस्तान के हालात और वहां कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति भी बयां की. जो फ़हमीदा रियाज़ की विचार प्रक्रिया को समझने में तो सहायक है ही, पाकिस्तान के मौजूदा हालात को भी समझने में बहुत सहायक है.

फ़हमीदा अपनी बात की शुरूआत यही से करती हैं, कि ‘बुनियादी तौर पर मैं मार्क्सवादी हूं, पर मैं कट्टरपंथी नही हूं. मार्क्स की एनेलिसिस सही है पर जो मार्क्सवाद में नहीं है, ऐसा नही है कि वो है ही नहीं. मार्क्सवाद कहता है कि मैटर हमेशा बदलता है, उस अनुरूप आइडियाज का रिव्यु होते रहना चाहिए. समय के साथ जो बड़े परिवर्तन आते हैं उसे समझने की जरूरत है.’

मैं कहना चाहती थी कि आपकी बाद वाली लाइनें पहली वाली लाइनों की काट हैं. मार्क्सवाद तो एक दर्शन है, जो अब तक का सबसे वैज्ञानिक दर्शन है और इसकी रोशनी में दुनिया की हर समस्या को समझा जा सकता है. इसलिए मार्क्सवाद में किसी समस्या के होने न होने की बात ही नही उठनी चाहिए, पर अभी यह कहने का स्पेस नही था, फ़हमीदा जी अपनी रौ में थीं.

‘इण्डिया को पराया समझना आसान नहीं है, हमारे अलगाव का इतिहास केवल 67 साल पुराना है पर जुड़ाव का इतिहास तो हज़ारों साल पुराना है. दरअसल हमारे अलगाव की कोई ठोस वजह नही है. वो कौन सी समस्या है जो यहां है पर वहां नही है या वहां है और यहां नही है. यहां पर भी संसाधनों पर उनका हक नहीं है जो वहां के रहने वाले हैं, वहां भी यह समस्या गंभीर है. पाकिस्तान में यह एक बड़ी समस्या है वहां कई प्रान्त हैं और सबकी भाषा संस्कृति अलग- अलग है. इन्हें सहेजने की बजाय इन पर एक संस्कृति थोपी जा रही है. राज चलाने के लिए इन प्रान्तों में स्थानीय लोगों को मौका देने की बजाय बाहर के लोगों की ब्यूरोक्रेसी थोप दी गयी. यहां के संसाधनों पर यहां के लोगों को कोई हक़ नही है. पाकिस्तान में फेडरल सिस्टम नहीं है, बल्कि वहां यूनियन हावी है इसलिए हमारे यहां मुख्य अन्तर्विरोध राष्ट्रीयता का है.

ऐसा माना जाता है कि फेडरेलिस्म का रिश्ता मार्क्सवाद से नही बनता, पर मैं ऐसा नही मानती. फेडरिल्म का न होना वर्गीय सवाल को धुंधला देना है. दुनिया में बुनियादी चीज वर्ग संघर्ष है पर वर्गों में एथेनिक ग्रुप किस जगह और किस तरह हैं, ये भी महत्वपूर्ण सवाल है. लेनिन ने भी राष्ट्रीयता के सवाल पर अपनी जो पुस्तक लिखी है उसमें उन्होंने जो जॉर्जियन लोगों के मजाक उड़ाये जाने की बात लिखी है उसे पढ़कर आंख में आंसू आ जाता है.’

उन्होंने बताया कि 1981 से 1987 के बीच जब वे भारत में थीं तो राजनीतिक रूप से सीपीएम के करीब थी. फिर पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टियों के बारे में भी बातें कीं. उन्होंने बताया कि विभाजन के समय सब कुछ बंटा, राजनीतिक पार्टियां भी. कम्युनिस्ट पार्टियां भी. भारत से सज्जाद जहीर गये थे पार्टी गठन के लिए. हसन नासिर जो कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, को मार डाला गया और वहां 1954 से कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबन्धित है, पर यह है, कई धड़ों में बंटी हुई. एक धड़ा चीन समर्थक है तो दूसरा धड़ा रूस समर्थक.

चीन समर्थक धड़ा सूबा सरहद और पंजाब प्रान्त में केन्द्रित है जिसे मेजर इसहाक साहब नेतृत्व देते थे जो फैज के साथ जेल में भी थे, फ़ैज़ इसी धड़े के थे. ये भारत को बुर्जुआ राज्य बोलते हैं और उससे दोस्ती को नकारते हैं. पर इस तथ्य के साथ ही उन्होंने आगे यह भी बताया कि जब भारत पाकिस्तान में युद्ध हुआ तो जो भारत के खिलाफ नही बोलता था उसे देशद्रोही माना जाता था. फ़ैज़ ने भी कुछ नहीं कहा था, इसलिए उन पर भी यह दबाव पड़ा कि वे भारत के खिलाफ कुछ लिखें. उसी समय उन्होनें वह नज्म लिखी थी-
‘‘उठो अब माटी से उठो
जगो मेरे लाल’’

यह नज्म वास्तव में पाकिस्तान व भारत दोनों के शहीद सैनिकों को समर्पित थी. बहरहाल….उन्होंने बताया कि ‘दूसरा धड़ा भारत से दोस्ती चाहता है. मैं इस धड़े को मानती रही हूं. मैं इंसानियत को मानती हूं, जो इंसानियत के खिलाफ जा रहा हो, लानत है ऐसे मार्क्सवाद पर. जिन्दगी में क्लास स्ट्रगल के अलावा भी और भी बहुत कुछ है. वर्ग तो है पर इसके साथ ही जेन्डर और रेस वगैरह भी एक सच्चाई हैं.

मैं फिर पहले वाली बात में जोड़ते हुए बोलना चाहती थी कि मार्क्सवाद खुद इससे कहां इंकार करता है कि वर्ग के साथ लैंगिक और कई तरीके के भेदभाव हैं जिसमें लैंगिक भेदभाव के कारणों पर तो कई मार्क्सवादी पुस्तकें लिखी गयी हैं और यह भी कि इंसानियत का भी एक वर्गीय चरित्र और आधार होता है. इस लिहाज से मार्क्सवाद ही इंसानियत का सबसे मजबूत दर्शन है. पर फ़हमीदा जी वापस फेडरेलिस्म पर आते हुए राष्ट्रीयता के संघर्षों से बांग्लादेश के अलगाव पर बात करने लगीं, ‘बांग्लादेश अलग हुआ तो लगा कि हमारा एक अंग कट गया. पर वह अंग जो बाकी शरीर में जहर फैला रहा हो उसका कट जाना ही बेहतर था.’

मैं सोचने लगी कि भारत में कश्मीर के लिए भी यह बात सही है जिसे यहां अरूधती रॉय ने कह दिया तो उस पर देशद्रोह का मुकदमा मढ़ दिया गया.

पाकिस्तान में आज के हालात पर बात करते हुए वे कहती हैं ‘आज हाल बहुत बुरा है. साम्प्रदायिक ताकतें वहां भी आगे बढ़ रही हैं. इसने वर्ग के सवाल को धुंधला दिया है. वहां तो जमींदारी उन्मूलन भी नहीं हुआ है. जमींदारी अपने आप कमजोर हुई है, सिंध में ये अभी भी मजबूत है. तालिबान के आत्मघाती दस्ते बढ़ रहे हैं. वजीरिस्तान में दुनिया भर के जेहादी जमा हो गये हैं. बेरोजगारी की वजह से लोग जेहादी बनते जा रहे है. ये लोग पश्चिमी प्रान्त के गरीब लोगों के बच्चे हैं. इनके लिए मोहसिन मखमलबफ़ कहते हैं ‘एक प्याला शोरबा और एक नान के बदले तालिबान इनकी पूरी जिन्दगी खरीद ले रहे हैं.

एक कार्यक्रम में दिये गये वक्तव्य में फहमीदा जी ने अंग्रेजों के समय के देशद्रोही कानून 124ए का जिक्र किया था जो उनपर भी लग चुका है और इस कारण वे 1981 से 1987 तक आत्मनिर्वासन में भारत में रही. मैंने उनसे पूछा कि वहां यूएपीए और पोटा जैसा कानून भी है तो उन्होंने कहा वहां उसकी जरूरत नही, क्योंकि वहां सीधे मार देते हैं, गिरफ्तारी की नौबत ही नही आती.

उन्होंने भारत के लोगों से अपील की कि यहां आप संघर्ष करते रहिये क्योंकि यहां जो कुछ भी अच्छा होता है उसका असर वहां भी होता है और जो कुछ वहां अच्छा होता है उसका असर यहां अच्छा होता है.

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