जयपुर में साहित्यिक लम्पटों का शराबोत्सव

बीस जनवरी से जयपुर में हूं, गले में जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल का आईकार्ड लटका कर डिग्गी पैलेस में भारी भीड़ के बीच धक्के खा रहा हूं, कभी फ्रन्ट लोन, कभी मुगल टेंट, कभी दरबार हाल तो कभी बैठक के टेंट में मारा मारा फिर रहा हूं. ज्यादातर बातचीत अंग्रेजी भाषा में हो रही है वह भी विदेशी  लहजे में, सो अपनी तो समझ में कुछ आता ही नहीं, लगता है कि कल लोगों ने जो ज्यादा पी ली थी, वह अभी तक उतरी नहीं है इसलिए लड़खड़ाती भाषा बोली जा रही है, पर भाई अपना साहित्य और साहित्यकार दारू हाथ में उठाकर जैसा डिस्को कर रहा है उससे हमें परम संतुष्टि मिली, देखो ना हम कितने आधुनिक और प्रगतिशील हो गये है, हमारा साहित्य अब दकियानूसी साहित्य नहीं है, यह मुंशी प्रेमचंद, सहादत हसन मंटो, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध और नजरूल इस्लाम का देशज ग्रामीण किस्म का साहित्य नहीं है, हमने बिल्कुल ताजा, नये नवेले साहित्यकार बनाये है, जो हाथों में कलम उठाकर दस्तखत करवाने वालों का इंतजार करते अपनी कुर्सियों पर ऊंघ रहे है, इनसे में कुछेक के नाम चेतन भगत, सुहेल सेठ, कपिल सिब्बल नुमा है.

वैसे तो गुलजार, प्रसून जोशी, जावेद अख्तर, आयशा जलाल, फातिमा भुट्टो, सुनील खिलनानी, अशोक वाजपेयी, ओमप्रकाश  वाल्मिकी आदि इत्यादि लोग भी बुलाये गये है, स्वामी अग्निवेश, अरूणा राय, दयामणी बारला, एस आनन्द, तरूण तेजपाल, ऊर्वशी बुटालिया भी आ चुके है जो कपिल सिब्बल की तरह या तो बैठने की जगहें तलाश  रहे है या भीड़ के धक्के खा रहे है.
सच मानिये, पांच हजार साल के भारत के ज्ञात इतिहास में साहित्य कभी भी इतना लोकप्रिय नहीं रहा, हां  लेखक दारू और सिगरेट पीकर लिखने के सदैव शौकीन रहे है मगर साहित्य और शराब के ऐसे सांझे सरोकार पहले कभी नहीं देखे गए, शोषक और  शोषितों को ऐसे मंच साझा करते पहले कब देखा गया, सरस्वती पुत्रों पर कोकाकोला रियो टिंटो, टाटा स्टील आदि इत्यादि लक्ष्मीपुत्रों की ऐसी मेहरबानी भी कभी नहीं रही, इस अद्वितीय और ‘‘भूतो न भविष्यति’’ आयोजन को महज ऐसे लोग ही गरिया सकते है जो 12वीं सदी में जी रहे है, यह इक्कीसवीं सदी की उत्सवधर्मिता का जगमग करता हुआ साहित्य उत्सव है, इसका विरोध करने के बजाए भागीदारी खोजना ही चतुर सयानों को ठीक लगा, इसलिए वे अपने अपने तरीके से भागीदारी निभाने चले आए, जैसे ओपेरा विन्फ्रे आई, अनुपम खेर आये, विनोद विधु चोपड़ा आये और भी बहुत सारे आये, अपने अलावा वहां पर सारी सेलीब्रिटीज ही पहुंची, अपने वाले लोग तो सिर पर पगड़ी बांधकर या तो 10 रुपए में चरी चाय के सकोरे भर भर मटमैला तरल उष्ण बेच रहे थे अथवा कचरा बीन रहे थे, कुछेक जिन्होंने धोती छोड़ पतलून धारण कर ली थी वे सम्भ्रांतों के लिए दारू के कार्टन ढो रहे थे.
शब्दकर्मियों के लिए 400 पुलिस वाले लगाए गए, मुख्य प्रवेश द्वार से लेकर लघु व दीर्घशंका निवारण कक्षों तक में सुरक्षाकर्मी नियुक्त किए गए, इतनी सुरक्षा कि यह सुरक्षा ही खतरा लगने लगे, वैसे भी राजस्थान पुलिस काफी अच्छी है, साहित्य उत्सव में भाग लेने आई कृतियों (इसे युवतियों न पढ़े) को बीच बीच में घूर लेने का समय भी निकाल ही लेती है.
द सैटेनिक वर्सेस के लेखक सलमान रूश्दी शारीरिक रूप से भारत नहीं आ पाए, मगर वे साक्षात आकर जो नहीं कर पाते, वह बिना आये ही कर बैठे, पूरा महोत्सव  रूश्दी को समर्पित है, किसी को उनके हीरो बन जाने से दुःख है (ये वे लोग है जो अपनी मौजूदगी के बावजूद भी हीरो नहीं बन पाये है) तो किसी को उनका नहीं आना खल रहा है सलमान  रूश्दी प्रकरण ने अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे ईशनिंदा के खतरों की तरफ फिर से हमारा ध्यान आकर्षित किया है वहीं मुस्लिम समुदाय के मध्य बढ़ रही धर्मान्ध व कट्टरपंथी तत्वों की बढ़ती ताकत का भी संकेत दिया है.
राज्य शासन व आयोजको की मिलीभगत इस पूरे प्रकरण में साफ दिखी, मुट्ठी भर लोगों की हवाई बातों, अखबारी बयानों और माहौल बिगाड़ देने की गीदड़ भभकियों के सामने राजस्थान की सरकार और लिटरेचर फेस्टीवल के कारपोरेटी आयोजकों की सांसे फूल गई, उन्होंने कट्टरपंथियों के समक्ष घुटने टेक दिए और रूश्दी को नहीं आने दिया, यह घोर निंदनीय बात है. साहित्य उत्सव ही नहीं बल्कि पूरे भारत के साहित्य जगत के लिए भी कलंक की बात है. पर सलमान रूश्दी छाए रहे पूरे साहित्योत्सव में. रूचिर जोशी, जीत तायल, हरि कुंजरू  औरअमिताव ने द सैटेंनिक वर्सेज के अंश पढ़ने की कोशिश की, उन्हें आयोजकों द्वारा रोका गया, नमिता गोखले ने तो साहित्यक प्रतिभागियों को धमकी भरा मेल भी लिखा, चारों साहित्यकारों के विरूद्ध अशोकनगर थाने में शिकायत दर्ज की गई, धर्मान्धों के पर निकल आए, उन्होंने हैदराबाद से लेकर जयपुर तक फिर से अभिव्यक्ति की आजादी के पंख कतरने और चारों लेखको की गिरफ्तारी की मांग कर डाली. हमें इन लोगों को साफ बता देना चाहिए कि भारत अभी तक सेकुलर गणतंत्र है, यहां शरीयत का शासन नहीं है, यहां तो नास्तिक से लेकर आस्तिक तक सब स्वीकार्य है और रहेंगे.
एक तरफ साहित्योत्सव में सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़े जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ कुछ धार्मिक लोग बाहर अंगे्रजी की होली कुरान फ्री में बांट रहे थे, मुझे भी देने की कोशीश की, मैंनें यह कहकर लेने से मना कर दिया कि मुझे न तो शैतान की आयतों में रूचि है और न ही भगवान की आयातों में. मेरा जीवन तो इनके बिना भी चल जाएगा. लेकिन तत्क्षण यह दुश्चिंता भी पैदा हुई, अगर इस पवित्र धर्मग्रंथ को ले जाकर किसी ने रद्दी वाले को बेच दिया, कचरे में डाल दिया अथवा फाड़ कर फैंक दिया तो ? फिर जो दंगे होंगे उसके लिये कौन जिम्मेदार होगा ? वैसे भी भारत में ज्यादातर धर्मग्रंथ पढ़ने के लिए नहीं बल्कि दंगे कराने के ही काम आते है.
भूमण्डलीकरण के इस दौर में साहित्यकार जब बाजार में आता है तो उसकी औकात कितनी रह जाती है, इसका सबसे क्रूर उदाहरण डिग्गी पैलेस का यह कथित साहित्यक मेला है, जहां शब्दों से अधिक शराब का प्रवाह है, लोगों के मुंह से आह या वाह से ज्यादा सिगरेट के धुंए के छल्ले निकल रहे है, साहित्य के नाम पर ऐसी गंध मचा रखी है कि इस साहित्य से तौबा करने को दिल चाहता है.
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश  को यह अमीरों की चोंचलेबाजी लगती है तो साहित्यकार रमा पाण्डे को यह भीड़ का मेला, भारतीय प्रेस परिषद के बहुचर्चित अध्यक्ष सेवानिवृत जस्टिस मार्कण्डेय काटजू को यह अनुपयोगी और साहित्य के नाम पर भद्दा मजाक लगता है, गीतकार गुलजार के साथ प्रसून जोशी की सबसे बड़ी चिंता यह है कि टीवी उनकी चुड़ैल को खा गया है, भाई प्रसून जी, अव्वल तो चुड़ैलें होती नहीं, हम तो नारी को डायन अथवा चुड़ैलें कहने वालों के घनघोर विरोधी है मगर आप ठहरे चुड़ैल प्रेमी, आपकी चिंता मीडिया की चिंता बन गई और फिर अगले दिन वह पूरे देश की चिंता बन गई, आप कैसा अंध विश्वास पाले जी रहे हो जोशी जी, अगर आपका भूत व  चुड़ैल में यकीं है तो आगे कि कहानी सुनो, आपकी कहानी वाली जिस  चुड़ैल को आज का टीवी खा गया है, उस टीवी को एक प्रेत खा गया है, उस अत्याधुनिक प्रेत का नाम अन्ना हजारे है, जो हमारी खबरें, कविता, कहानी, राजनीति और विमर्श सबको खा गया है, उपर से कहता है  कि वह अनशन पर है, कुछ भी नहीं खायेगा.
भारी सुरक्षा इंतजामों और अंडरवल्ड की काल्पनिक धमकियों के बीच डरपोक सलमान रूश्दी तो जयपुर नहीं आये, या आ ही नहीं पाये अथवा आना ही नहीं चाहते रहे होंगे मगर रियो टिंटो संवाद स्थल पर नकारात्मक स्वरों में भौंकता हुआ एक विदेशी नस्ल का कुत्ता जरूर आ गया, सारी सिक्यूरिटी धरी रह गई, वह संवाद स्थल से दरबार हाल होते हुए उस कैफेटेरिया की तरफ दौड़ लगा गया. जहां पर अधिकांश देशी और विदेशी नस्ल के साहित्यकार दारूखोरी में व्यस्त थे, कुछ क्षणों के लिए साहित्यक लम्पटो के इस शराबोत्सव ने स्वयं को बाधित महसूस किया, हरेक के चेहरे पर नाराजगी के भाव साफ थे, मगर जैसे ही लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों, चित्रकारों, विचित्रकारों और फिल्मकारों आदि इत्यादि को यह शुभ सूचना मिली कि यह कुत्ता हमारे मेजबान और डिग्गी पैलेस के मालिक राम प्रताप सिहं का है और वह भी विदेशी  नस्ल का, जो अक्सर अंग्रेजी में भौकता है तो उपस्थित लोग श्रद्धा से भर उठे और मालिक के उस कुत्ते की वापसी की प्रतीक्षा करने लगे ताकि उसे यथोचित सम्मान दिया जा सके, मगर वह नहीं लौटा, सरस्वती पुत्रों को यह अफसोस सदैव बना रहेगा कि उन्होंने वर्ष 2012 के साहित्य उत्सव में एक मध्यवर्गीय विदेशी  कुत्ते के साथ गली मोहल्ले के देशी  कुत्ते जैसा सलूक करने का अक्षम्य अपराध कारित किया है. कई लोगों का ऐसा भी अनुमान है कि वह इस फेस्टीवल का पांचवा  प्राणी था जिसने द सेटेनिक वर्सेस के अंश सुनाने की असफल कौशिक की, जिस पर जल्द ही आयोजको ने काबू पा लिया.
खैर, यह दारूबाजी और सिगरेटखोरी और अय्यासी के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मौसम है यह वो वक्त है जब उत्तर भारत के एक चुनावी राज्य में टीम अन्ना पर जूते फैंक जा रहे है और इस साहित्य उत्सव में सोशल नेटवकिंग के विरोधी और इक्कसवीं सदी के सबसे बुरे कवि कपिल सिब्बल भीड़ के धक्के खा रहे है. खास आदमी होने का उनका पाप यहां की पियक्कड़ जनता ने धो दिया है, यह जनता है ही ऐसी चीज कि पता ही नहीं चलता है कि कब किसको धो देती है.
इस साहित्य उत्सव की एक विशेष उपलब्धि यह भी रही कि कपिल मुनि के अनन्य भक्त स्वामी जी जब उदरपूर्ति में लगे थे, तभी कोई उनकी टेबल पर सुरापात्र धर गया, अपना मीडिया तो बाग बाग हो गया, पृथ्वी लोक पर ऐसा दुलर्भ चित्र भला कहां मिलता है, जहां बिग बास रिटर्न एक स्वामी जी के समक्ष बोतल धरी हो! छाप दिया मीडियावीरों ने. मगर इससे क्या, स्वामी तो स्वामी है, शराब विरोधी जो ठहरे, वैसे एक बार पी लेते तो वैदिक समाजवाद, जनलोकपाल और गांधीवाद अच्छे से घुट जाता, पर वे तो इस मत के है न पियेंगे, न पीने देंगे. भाई लोग पूछ रहे है कि फिर इस शराबोत्सव में आप पधारे ही क्यों?
शायद हर कोई इस शराबोत्सव में साहित्य ढूंढ रहा था, साहित्य स्वयं टुन्न होकर डिस्को कर रहा था, एक टेंट में किताबों के फुल लुटेरो का पूरा सर्कल था जो एक को सौ में बेच रहे थे, किताबों में कहीं कहीं जाति बहिष्कृत गरीब हिन्दी भाषी कवियों की किताबें भी कुशोभित थी, जिन्हें पाठक निहायत ही हिकारत की नजरों से देखकर आगे बढ़ रहे थे, नीलाभ का शोकगीत जरूर बिका होगा, डिग्गी पैलेस नामक इस सामंती प्रतीक के अवशेष स्थल में गुलाम मानसिकता के स्तुतिकारों का ऐसा संगम हो रखा था कि हर कोई यहां घुसकर खुद को धन्य महसूस कर रहा था और घुसा हुआ खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था, ज्यादातर लोग विशेष स्टाइल में बाल नौंच रहे थे, चरी चाय 10 रुपए में तो सड़ी चाय 25 रुपए में क्षत्रिय वेशधारी महिलायें बेच रही थी, ऐसा लग रहा था कि यहां सब कुछ बिकाऊ है, कबीरा भी शबनम बिरमानी के जरिये बाजार में फिर से खड़ा था.
राडियाकर्मी (क्षमा कीजिये मीडियाकर्मी) बरखा दत्त, ओपरा विन्फ्रे का साक्षात्कार लेकर धन्य हो रही थी, भारतीयों व अभारतीयों की कई पीढि़यां इस क्षण पर कुर्बान हो रही थी, बाहर रिक्सा चालक और आटो चालक पुलिस की ज्यादती और बदतमीजी के शिकार हो रहे थे. एसएमएस के रोगी इन सरस्वती व लक्ष्मी के संयुक्त पुत्रों के सांझे तमाशें से पैदा हो रहे विघ्न से दुःखी थे, रूश्दी की आत्मा डिग्गी पैलेस में यत्र तत्र सर्वत्र मण्डरा रही थी, जो अक्सर वक्ताओं की गर्दन पर जा बैठती और हलक में होते हुए हृदय तक उतर कर लबों के जरिये अभिव्यक्ति की आजादी के स्वर मुखर करने लग जाती, अचानक लोग तालियां बजाने लगते है.
इधर दोपहर के भोजन का वक्त हो चला है, डेमोक्रेसी, डिसेंट, डायलाग, डिस्कोर्स बहुत हो गया है चलो थोड़ी दारू सारू कर ले. मैं भी अपनी काल्पनिक कन्या मित्र के कटिप्रदेश में बांह डाले भोजनशाला की तरफ बढ़ता हूं मगर निःशुल्क पंजीकृत साहित्यकार होने की वजह से बीपीएल माना जाकर हाशिये पर धकेल दिया जाता हूं, बस तब से ही विलाप कर रहा हूं. मेरा रोना भी हिन्दी में है जिसे वहां मौजूद मध्यमवर्गीय आंग्लभाषी साहित्यकार समझ पाने में असमर्थ है, जो मेरी भाषा, पीड़ा और सरोकार समझते है, वे असहाय है और गूंगे बनकर गुट निरपेक्षता में यकीन किये खड़े है, उन्हें डर है  कि वे अगर पहचान लिये जायेंगे कि वे हिन्दी भाषी है और जंतर मंतर पर प्रायश्चित में सहभागी नहीं थे तो उन्हें भी मेरी ही तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
शेष जो सौभाग्यशाली साहित्यकर्मी बचे है वे धक्के खाने को अपनी नियती मानकार अपने लिये कुर्सियां और कुर्सियों पर जगहें तलाश  रहे है, मगर वे घुटने के बल रैंगकर वहां पहुंच पाते इससे पहले ही किसी और देश, किसी और जबान, किसी और संस्कृति, किसी और धरातल एवं किसी और ग्रह के एलियन्स ने कुर्सियां और हमारी सारी शब्द सम्पदा को हथिया लिया है. उनके हाथों में हमारा साहित्य और उत्सव है और हमारे हाथों में उनकी दी हुई शराब, छलकते जाम और लड़खड़़ाते पांव है. तभी मैंनें सरस्वती को उल्लू पर सवार होकर तेजी से बाहर की ओर भागते देखा, जहां उसे किसी ने फ्री में पवित्र कुरान थमा दी, वह तो पहले से ही द सैटेनिक वर्सेज से डरी हुई ही थी, इसलिए यकायक अंतरध्यान हो गई. विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक वह अशोकनगर थाने के रोजनामचे में अथवा मालखाने में छुपी हुई हो सकती है, पता चला है कि सारे सरस्वतीपुत्र उसे ढूंढने में लगे है, मिल जायेगी तो अगले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के शराबोत्सव में राजस्थान पुलिस की परमिशन के बाद उसे आने के लिए मनाने की कोशिश की जाएगी,  आप भी प्रस्तावित शराब उत्सव में सादर आमंत्रित है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है. उनसे 9460325948 या bhanwarmeghwanshi@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)

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