कौन जाता है हमेशा की जुदाई देकर…

मकबूल नहीं रहे. विदा कह गए अचानक. ऐसा नहीं कि उम्र कम थी, ऐसा नहीं कि दवा और खयालों-खबर के न होने जैसा कुछ था. बीमार थे, चले गए. एक लंबी उम्र गुज़ारकर, बहुत कुछ जीतकर, थोड़ा-थो़ड़ा हारकर… मकबूल चल बसे.

पीछे बहुत कुछ छूट गया है. सबसे पहले तो वो मुट्ठी भर मिट्टी जिसमें उनके जिस्म की खुश्बू थी. जिस मिट्टी में वो जन्मे और एक महान पेंटर बने. इसके पीछे वो बहुत सारे वादे जो अपने वतन के लोगों से, अपने चाहनेवालों से उन्होंने किए थे. कई कैनवास और कुछ महफिलें बिना हुसैन को देखे ही रह गईं.
हुसैन ऐसे अकेले, तन्हा, वतन बदर क्यों चले गए. यह सवाल न मैं खुद से पूछता हूं और न हुसैन से. यह सवाल उन दिमागों के लिए है जिन्होंने 95 की उम्र में अपना आसमान देखने ही हसरत से भरी आंखों को सिर्फ आंसू दिए. उन ज़ुबानों के लिए है जो मोहब्बतें नहीं, नफरत बांटती हैं और उन हाथों के लिए है जो किसी से उसके जीने, रहने और अपना काम करने का हक़ छीन लेते हैं.
हुसैन को याद करते ही याद आते हैं परसाई. आंखों के आगे चलते नज़र आते हैं पोंगा पंडित के निर्देशक हबीब तनवीर, बददिमागों पर हंसती हुई इस्मत आपा और फ़ैज़ और साथ खड़े सफदर हाश्मी. अभी कई नाम और भी कौंध रहे हैं इस फेहरिस्त में. सब के सब अपने-अपने मोर्चों पर संघर्ष करते हुए. अपने ही लोगों का विरोध और कूपमंडूकता झेलते हुए. हुसैन इसी कड़ी के एक और नामवर हैं.
ऐसा नहीं कि हुसैन अपने ही देश में रहते हुए दुनिया को अलविदा कहते तो लोगों को उनकी याद न आती. बल्कि मुझे लगता है कि याद और श्रद्धांजलि का सिलसिला और भी मज़बूत होता. हुसैन के लिए हज़ारों एक साथ आते और इस बहाने देश के सबसे बेहतरीन चित्रकारों में से एक याद किया जाता. पर ऐसा नहीं हो सका. हुसैन गए तो याद आया उनका खुद पर हो रहे हमलों से आहत होकर भारत से चले जाना. उनका क़तर की नागरिकता स्वीकार कर लेना और इन सबके बीच उनका वतन-बदर होने का दर्द. आज हुसैन याद आते हैं तो ये टीस साथ-साथ उठती है.
हुसैन को लेकर सवाल कई उठते हैं. कई लोग अभी भी पूछ लेते हैं उनके रहन-सहन के तरीके का आम आदमी से दूर हो जाना, उनका बड़े-संभ्रांत लोगों की भीड़ में उलझ जाना. उनका हाई प्रोफाइल व्यक्तित्व जिसमें हबीब जैसी कोशिशें कम होती चली गई थीं. उनका प्रगतिशील मोर्चे से कुछ हटते हुए एक अकेले व्यक्तित्व की तरह उभरता. ऐसे कितने ही सवाल इस देश का प्रगतिशील समाज भी उठाता है दबी ज़ुबान पर इन सवालों का मायने यह नहीं हो सकता कि हुसैन और उनके काम को कोई खारिज कर सके या सिरे से एक खुराफात और खिलवाड़ करार दे सके.
हुसैन ने भारतीय कला को जो दिया है वो आजकल की कई पीढ़ियों के लिए एकदम अछूते शिखर जैसा है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय कला का नाम रौशन करने वाले चित्र में कई रंग हुसैन ने भी भरे हैं.
हुसैन का जाना हमें हमेशा के लिए एक इंतज़ार देकर चला गया है. पर हुसैन इस बहाने एक लड़ाई जीत गए हैं. अपने विरोध करने वालों को हुसैन एक गहरी चोट देकर गए हैं. उनके दिलों के भीतर कहीं गहरे में. भले ही हुसैन के विरोधी उनका उनकी मौत के दिन तक विरोध करते रहे पर हुसैन जैसे शख्स का देश से बाहर रहते हुए देश से प्यार करना और यादों से भरी आंखों को बंद करके पूरे देश को एक इंतज़ार दे जाना… एक सत्याग्रह की तरह है, उन लोगों के खिलाफ जो हुसैन या ऐसी किसी भी अभिव्यक्ति के खिलाफ हैं.
हुसैन, हम तुम्हारा ताउम्र इंतज़ार करने के लिए पीछे छूट गए हैं और इन 121 करोड़ लोगों का इंतज़ार, तुम्हारी मिट्टी और पहचान का इंतज़ार उन लोगों को अपराधबोध देकर शर्मसार छोड़ गया है जिनकी वजह से तुम अपना घर होते हुए भी बेघर रहे.  

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